Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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मए पै तथापि तिर्यो दसा आप धारणी। आन को उथापि' एक जिनमत थाप्यो यों, समंतभद्र तीर्थकर होसी या विचारणी। कारण तैं कारिज की सिद्धि परिणाम ही तें. भाषी भगवान है अनंत सुखकारणी ! १४२|| करि किया कोरी कहूं जोरी सों मुकति, सहज सरूप गति ज्ञानी ही लहतु हैं। लहिके एकांत अनेकांत को न पायो भेद, तत्त्वज्ञान पाये विनु कैसेक महंतु हैं। सकल उपाधि में समाधि जो सरूप जाने. जगकी जुगति' मांहि मुनिजन कहतु हैं। ज्ञानमई भूमि चढि होइके अकंप रहे, साधक दै सिद्ध तेई थिर ह्वै रहतु हैं ||१४३।। अविनाशी तिहुंकाल महिमा अपार जाकी, अनादि-निधान-ज्ञान उदै को करतु है। ऐसे निज आतमा को अनुमौ सदैव कीजे, करम कलंक एक छिन में हरतु है। एक अभिराम जो अनंत गुणधाम महा, सुद्ध चिदजोति के सुभाव को भरतु है। अनुमौ प्रसाद से अखंड पद देखियतु, अनुभौ प्रसाद मोक्षवधू को वरतु' है।। ।१४४ ।। तिहुंकाल मांहि जे-जे शिवपंथ साधतु हैं, रहत उपाधि आप ज्ञान जोतिधारी हैं। देखें चिनमूरति को आनंद अपार होत, १ अन्य मत का खण्डन कर, २ हट पूर्वक, बलजोरी से. ३ युक्ति, उपाय, ४ स्वभाव सन्मुख आत्मज्ञानी हो कर, ५ निश्चत, स्थिर, ६ ज्ञान की अचलता का नाम मोक्ष है, ७ वरण करता है