Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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सब जन जाने वाके पय को परस है। अपने सुभाव कहुं पय को न परसे है, सहज सकति लिए सदा अपरस' है। तैसे परभाव यह परसि मलीन भयो, लियो नहीं आप सुख महा परवस है। निहचे सरूप परवस्तु को दो है, अचल अखंड चिद एक आप रस है।।१८६ ।। जैसे कुंभकार कर मांहि गारपिंडा लेय, भाजन' बनावे बह भेद अन्य-अन्य है। माटीरूप देखे और भेद नहीं भासतु है, सहज सुभाव ही ते आप ही अनन्य है। गति गति माहिं जैसे नाना परजाय धरे, ऐसो है सरूप सो तो व्यवहारजन्य है। अन्य संग सेती यह अन्य सो कहावत है, एकरूप रहे तिहुंलोक कहे धन्य है । १८.७ ।। सिंधु में तरंग जैसे उपाजे विलाय जाय, नानावत' वृद्धि हानि जामें यह पाइये। अपने सुभाव सदा सागर सुथिर रहे, ताको व्यय-उतपाद कैसे ठहराइये। तैसे परजाय मांहि होय उतपति लय, चिदानन्द अचल अखंड सुद्ध गाइये। परम पदारथ में स्वारथ सरूप ही को, अविनासी देव आप ज्ञानजोति ध्याइये । १८८|| चेतन अनादि नव तत्त्व में गुपत भयो,
१ स्पर्श रहित, २ हाथ में, ३ मिट्टी -गारे का पिण्ड, ४ वर्तन. ५ अनेक रूप
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