Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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दरवस्वरूप सो तो द्रव्य मांहि रहे सदा, और को न गहे रहे जथारथताई है। गुण को स्वरूप गुण मांहि सो विराज रहे, परजाय दसा वाकी वाही मांहि गाई है। जैसो गुण जाको, जाको जाही भांति करे और, विषमता हरे वामें ऐसी प्रभुताई है। तत्त्व है सकति जामें विभुत्व अखंड सायें, कहे 'दीप' ऐसे जिनवाणी में दिखाई है । ।७७ ।। जाके देस - देसमें विराजित अनन्त गुण, गुण मांहि देस असंख्यात गुण पाइये । एक-एक गुणनि में लक्षण है न्यारो न्यारो, सबन की सत्ता एक भिन्नता न गाइये । परजाय सत्ता मांहि व्यय - उतपाद- ध्रुव, षट्गुणी हानि - वृद्धि ताही में बताइये । निचे स्वरूप स्व के द्रव्य-गुण- परजाय. ध्यावो सदा तातैं जीव अमर कहाइये । ।७८ ।। गुण एक-एक में अनेक भेद ल्याय करि, द्रव्य-गुण- परजाय तीनो साधि लीजिये । नय, उपचार और नय की विवक्षा साधि, ताही भांति द्रव्य मांहि तीनों भेद कीजिये । परजाय परजान मांहि मुख्य द्रव्य सो है, याही रूप गुण तीनों यामें साधि दीजिये । याही भांति एक कर अनेक भेद सबै साधि, देखि चिदानंद 'दीप' सदा चिर जीजिये ११७६ ।।
१ उस की, २ उसी में, ३ इस में, ४ इस प्रकार, ५ अमर हो जाइये
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