Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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आतम करम दोऊ मिले' हैं अनादि ही के, याही ते अज्ञानी है के महा दुख पायो है। करिके विचार जब स्वपर विवेक ठान्योर, सबै पर भिन्न मान्यो नाहिं अपनायो है। तिहुंकाल शुद्धज्ञान-ज्योति की झलक लिये, सासतो स्वरूप आप पद उर मायो है। चेतना निधान में न आन कहूं आवन दे. कहे 'दीपचंद' संतवंदितः कहायो है|३|| आगम अनादि को अनादि यों बतावतु है, तिहुंकाल तेरो पद तोहि उपादेय है। याही ते अखंड ब्रह्यमंड को लखैया लखि, चिदानंद धारे गुणवृंद सो ही धेय है। तू तो सुखसिंधु गुणधाम अभिराम महा, तेरो पद ज्ञान और जानि सब ज्ञेय है। एक अविकार सार सब में महंत सुद्ध, ताहि अवलोकि त्यागि सदा पर हेय है।1८४|| याही जग मांहि ज्ञेय भाव को लखैया ज्ञान, ताको धरि ध्यान आन काहे पर हेरे है | पर के संयोग ते अनादि दुख पाए अब. देखि तू सँभारि जो अखंड निधि तेरे है। वाणी भगवान की जो सकल निचोर यहै", समसार आप पुन्य पाप नहिं नेरे है। यातें यह ग्रंथ सिव-पंथ को सधैया महा, अरथ विचारि गुरुदेव यों परेरे है।।५।। १ संयोगी, २ निश्चित किया, निर्णय किया, ३ साधु-सन्तों से वन्दना किए गए, ४ विश्व, ५ ध्येय, ६ पर का अवलोकन क्यों करता है? ७ मुद्रित पाठ 'को' है. ८ यही सार है. ६ आप; आत्मा, १० पास. ११ प्रेरणा करते हैं