Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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मिथ्यामग त्यागि एक लागिये सरूप ही में, आप पद जानि आप पद को लखीजिये ।।११२ ।। जाको चिदलच्छन पिछानि परतीति' करे, ज्ञानमई आप लखि भयो है हितारथी। राग-दोष-मोह मेटि भेट्यो है अखंड पद, अनुभौ अनूप लहि भयो निज स्वारथी। तिहुँलोक नाथ यो विख्यात गायो वेदनि में, तामें थिति कीनी कीनो समकित सारथी। सरूप के स्वादी अहलादी चिदानंद ही के, तेई सिवसाधक पुनीत परमारथी। 1११३||
सवैया पैड़ी चढ़े सुध चाल चले, मुकताफल अर्थ की ओर ढरें। कंटकलीन कमल लखे, तिहि दोष विचारिके त्यागि धरें। उज्जल वाणि- नहीं गुणहानि, सुहावनि रीति को ना विसरें। अक्षर" मानसरोवर माहि,कितेक विहंग किलोल करें। [११४।।
कवित्त करतार करता है करता अकरता है, करता अकरता की रीति सों रहतु है। मूरतीक मूरति की उपेक्षा अमूरती है, सदा चिनमूरति के भाव सों सहतु है। १प्रतीति, श्रद्धान, २ हित (आत्महित) चाहने वाला.३ पग रूपी सीढ़ी, श्रेणि, ४ सरल, शुद्धोपयोग, ५ मोती. मुक्ति, ६ कीचड़ में लिप्त, शुभाशुभ कांटों से व्याप्त, ७ छोड़ना, व्रत-त्याग, ८ वाणी, स्वभाव, १ सुहावना, सम्राक. १० भूलना, असावधान होना, ११ नित्य, अखण्ड, १२ मानसरोवर, झील, शुद्धोपयोग, १३ कितने ही. विरले. १४ पक्षी, शुद्धोपयोगी. १५ क्रीड़ा, विलास