Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
View full book text
________________
दरब सुभाव करि धौव्य च्छे सदाकाल. व्यय उतपाद सो ही समै- समै करे है । सासतो - खिणक' उपादान जाने पाइयतु, सो ही वस्तु मूल वस्तु आप ही में धरे है। द्रव्य गुण परजै' की जीवनी है याही यातें, चेतना सुरस को सुभाव रस भरे है। कहे 'दीपचंद' यों जिनेंद को बखान्यो वैन, परिणाम सकति' को भव्य अनुसरे है । । ७१ ।। काहू' परकार काहू काल काहूं खेतर' में, है है न विनाश अविनासी ही रहतु है । परम प्रभाव जाको काहू पैन मेट्यो जाय, चेतना विलास के प्रकास को गहतु है। आन परभाव" जामें आवत न कोउ जहां. अतुल अखंड एक सुरस महतु है। असंकुचित विकास सकति बनी है ऐसी, कहे 'दीप' ज्ञाता लखि सुख को लहतु है । । ७२ ।। गुण परजाय गहि बण्यो है सरूप जाको,
गुण परजाय बिनु' द्रव्य नाहिं पाइये । द्रव्य को सरूप गहि गुण परजाय भये, द्रव्य ही में गुण परजाय ये बताइये । सहज सुभाव जातैं भिन्न न बतायो द्रव्य, बिनु ही वस्तु कैसे ठहराइये?
तातैं स्यादवाद विधि जगमें अनादिसिद्ध,
वचन के द्वारि कहो कहां लगि" पाइये । । ७३ ।।
१ नित्य-क्षणिक, २ पर्याय ३ परिणामशक्ति, ४ किसी ५ क्षेत्र, ६ किसी के द्वारा,
७ मुद्रित पाठ 'अवभाव है. ८ असंकुचित-विकाशत्वशक्ति, ६ बिना, १० तक
७६