Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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परपद त्यागि आप पद मांहि रति माने, जगी ज्ञानजोति भाव स्वसंवेद-वेदी है। अनुभौ सरूप धारि परवाहरूप' जाके, चाखत अखंड रस भ्रम को उच्छेदी है । त्रिकालसंबंध जब द्रव्य-गुण- परजाव, आप प्रतिभासे चिदानंदपद भेदी है। महिमा अनंत जाकी देव भगवंत कहे, सदा रहे काहू पै न जाय सो न खेदी है । । ५६ ।। जग में अनादि ही की गुपत भई है महा, लुपत-सी दीसे तोऊ रहे अविनासी हैं। ऐसी ज्ञानधारा जब आप ही को आप जाने, मिटे भ्रमभाव पद पावे सुखरासी है।। अचल अनूप तिहुं लोक भूप दरसावे.
महिमा अनंत भगवंत देव वासी है।
कहे 'दीपचंद' सो ही जयवंत जगत में,
गुण को निधान निज ज्योति को प्रकासी है । । ५७ ।। मेरे निज स्वास्थ को मैं ही उर जानत हौं, कहिये को नाहिं ज्ञानगम्य रस जाको है । स्वसंवेदभाव में लखाव है सरूप ही को, अनाकुल अतेंद्री अखंड सुख ताको है। ताकी प्रभुता में प्रतिभासित अनंत तेज, अगम अपार समैसार पद वाको है । सुद्धदिष्टि दिए अवलोकन है आप ही को, अविनासी देव देखि देखे पद काको" है । ५८
५ धारावाही ज्ञान, २ स्वाद लेते ही ३ लुप्त हुई के समान, ४ किसका
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