Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
View full book text
________________
स्वपर विवेक भारि आतमस्वरूप पावे, चिदानंद मूरति में जेई लीन भए हैं। पर सेती न्यानो पद अचल अखंडरूप, परम अनूप आप गुण तेई लए हैं। तिहुँ लोक सार एक सदा अविकार महा, ताको भयो लाभ तातै दोष दूरि गए हैं। अतुल अबाधित अनंत गुणधाम ऐसो, अभिराम' अखैपद' पाय थिर थए हैं।।३।। राग दोष मोह जाको मूल है असुभ-सुभ, ऐसे जोग भाव में अनादि लगि रह्यो है। भेदज्ञान भाव सेती जोग को निरोधि अति, आतम लखाव ही में निज सुख लया है।। परद्रव्य इच्छा परत्याग भयो जाही समै. आप है अनंत गुणमई जाही' गह्यो है। कारण सुकारिज को सिद्धि करि याही भांति, सासतो सदैव रहे देव जिन कह्यो है ।।५४ || आप के लखैया परभाव के नखैया रस, अनुभौ चखैया चिदानंद को चहतु हैं। परम अनूप चिदरूप को सरूप देखि, पेखें परमातमा को निज में महतु हैं। ज्ञान उर धारि मिथ्यामोह को निवारि सब, डारि दुख-दोष भवपार जे लहतु हैं। लोक के सिखरि सुध सासतो सुथान लहि, लोकालोक लखिके सरूप में रहतु हैं। ।५५।।
१ सुन्दर. २ अक्षय पद. गुकिा, ३ हुए हैं. स्थित हैं, ४ जिस को, ५ छोड़ने वाले, ६ अपलोकन करते हैं