Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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निहचे निहारत ही आतमा अनादिसिद्ध, आप निज भूलि ही नै भयो व्यवहारी है। ज्ञायक सकति जथाविधि सो तो गोप्य' दई, प्रगट अज्ञानभाव दसा विसतारी है। अपनो न रूप जाने और ही सों और माने, ठाने भवखेद निज रीति न सँमारी है। ऐसे तो अनादि कहो कहा साध्य सिद्धि अब, नेक हूं निहारो निधि चेतना तुम्हारी है।।४७11 एक वन माहि जैसे रहतु पिशाची दोइ, एक न ताको तहां अति दुख द्यावे है। एक वृद्ध विकराल 'माव धरि त्रास करे. एक महा सुंदर सुभाव को लखावे है। देखि विकराल ताको मन मांहि भय माने, सुंदर को देखि ताको पीछे दौरि धावे है। ऐसो खेदखिन्न देखि काहू जन मंत्र दियो, ताको उर आनि वो निसंक सुख पावे है।।४८, ।। तैसे याही भव जामें संपति विपति दोऊ. महा सुखदुखरूप जन को करतु है। गुरुदेव दियो ज्ञानमंत्र जब-जब ध्यावे, तब न सतावे दोऊ दुखको हरतु है। करिके विचार उर आनिए अनूप भाव, चिदानंद दरसाव भावको धरतु है। सुधा पान किए और स्वाद को न चाखे कोऊ, किए सुध रीति सुध कारिज" सरतु है ।।४६ ।।
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१ छिप गई, २ मानता है. ३ सम्हाली, ४ राक्षस, ५ दिलाता है, ६ दौडता है. ७ कार्य, ८ बनता है
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