Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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ऐसी परतीति किये पाइये परमपद, होइ चिदानंद सिवरमणी को वर है। सासतो सुथिर जहां सुख को विलास करे, जामें प्रतिभासे जेते भाव चराचर है।।४०||
दोहा निज महिमा में रत भए, भेदज्ञान उर धारि। ते अनुभौ लहि आपको, करमकलंक निवारि ।।४१।।
मनहर मूरति पदारथ जे भासत मयूर' जामें, विकारता उपल' मयूर मकरंद की। भावन की ओर देखे भावना मयूर होइ. रहे जथावत दसा नहीं परफंद' की। तैसे परफंद ही में पर ही सो भासतु है, पर ही विकार रीति नही सुखकंद की। एक अविकार शुद्ध चेतन की ओर देखें. भासत अनूप दुति देवचिदानंद की।।४२।।
मत्तगयन्द सवैया मेरो सरूप अनूप विराजत, मोहि में और न भासत आना। ज्ञान कलानिधि चेतन मूरति, एक अखंड महा सुखथाना । पूरण आप प्रताप लिए, जहँ जोग नहीं पर के सब नाना। आप लखे अनुभाव भयो अति, देव निरंजन को उर आना ||४३||
१ मोर. २ पत्थर पाषाण, ३ राग-द्वेष, मोहादि पर भावों का फन्दा, ४ आत्मानुभव, ५ विसजमान करना
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