Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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महा अविकारी सुद्धपद याको ऐसो जैसो, जिनदेव निजज्ञान मांहि लहलह्यो है। ज्ञायक प्रभा में द्वैतभाव' कोऊ भासे नाहि. स्वसंवेदरूप यो हमारो बनि रह्यो है।।३७ ।। ज्ञान उपयोग ज्ञेय मांहि दे अनादि ही को, करि अरुझार आप एक भूलि बह्यो है। अमल प्रकाशवत मूरति स्यों बँधि र ह्यो, महा निरदोष तारौं पर ही में कलो है। ऐसे है रह्यो है तोऊ अचल अखंडरूप, चिदरूपपद मेरो देव जिन कह्यो है। चेतना निधान में न आन परदेस कोऊ, स्वसंवेदरूप यो हमारा बनि रह्यो है।।३८ ।। जीव नटे नाट थाट- गुण है अनंत भेष, पातरि सकति रसरीति विसतारा' की। चेतना सरूप जाको दरसन देखतु है, सत्ता मिरदंग ताल परमेय प्यारा की। हाव-भाव आदिक कटाक्षन को खेयवो जो, सुर को जमाव सब समकितधारा की। आनंद की रीति महा आप करे आप ही को, महिमा अखंड ऐसी आतम अपारा की ||३६ ।। जैसे नर कोऊ भेष पशु के अनेक धरे, पशु नहीं होइ रहे जथावत नर है। तैसे जीव च्यारिगति स्वांग धरे चिर ही को, तजे नाहिं एक निज चेतना को भर' है।
१ दो पना, भिन्न-भिन्न, २ उलझन उत्पन्न कर, ३ फंसा, ४ अन्य. दूसरे, ५ प्रदेश. , ६ किसी का, ७ नृत्य, ८ घाट, ६ जघन्य, १० फैलाव, ११ भरपूर मराव