Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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ज्ञान कला जागी जब पर बुद्धि त्यागी तब, आतमिक भावन में भयो अनुरागा है ! पर परपंचन में रंच हूं न रति माने, जाने पर न्यारो जाके सांची मति जागी है। महा भवभार के विकार ते उठाइ दिए. भेदज्ञान भावन सों भयो परत्यागी है। उपादेय जानि रति मानी है सरूप माहि, चिदानंद देव में समाधि लय' लागी है ।।४४ ।। दरसन ज्ञान सुद्ध चारित को एक पद, मेरो है सरूप चिन्ह चेतना अनंत है। अचल अखंड ज्ञान जोति है उद्योत जामें, परम विशुद्ध सब भाव में महंत है। आनंद को धाम अभिराम जाको आठो जाम, अनुभये' मोक्ष कहे देव भगवंत है। सिवपद पाइवे को और भांति सिद्धि नाहिं, यातें अनुभयो निज मोक्षत्तियाकंत' है ।।४५।। अलख अरूपी अज आतम अमित तेज, एक अविकार सार पद त्रिभुवन में। चिर लों सुभाव जाको समै हू समार्यो नाहिं, परपद आपो मानि भन्यो भववन में | करम कलोलनि में डोल्यो है निशंक महा. पद-पद प्रति रागी भयो तन-तन में। ऐसी चिरकालकी हू विपतिः बिलाय जाय, नेक हू निहारि देखो आप निजधन में ||४६ ।।
१ लौ, लीनता, २ निज शुद्धात्मानुभव में स्थिर होने पर, ३ परमात्मा, मुक्ति नारी के पति, ४ आन्दोलित, ५ भव-भ्रमण, ६ ज्ञान चेतना में
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