Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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देव जिनराज से अनादि के बताय आए, तैसो उपदेश हम कहां लों बतावेंगे। गहे पररूप ते सरूप की चितौनी' चुके' अनुभी सों केलेई भव में न भभावंगे। एतो हू कथन किए लागे जो न उर माही तिन से कठोर नर और न कहावेंगे। कहे 'दीपचंद' पद आदि देके कोऊ सुनो, तत्त्व के गहैया भव्य भवपार पायेंगे ।।५० ।। एक गुण सूच्छमा को एतो विसतार भयो, सबै गुण सूच्छम सुभाव जिहि कीने हैं। एक सत सूच्छम के भेद हैं अनंत जामें, अगुरुलघु ताहू को सूच्छमता दीने हैं। अगुरुलघुताई सो सारे गुण माहि आई, अनंता-अनंत भेद सूच्छम यों लीने है। सबै गुण मांहि ऐसे भेद सधि आवत है, तेही जन पावें 'दीप' चेतना चीने हैं। ।५१ ।। जगवासी अंध यो तो बंध्यो है करम सेती, फंधो परभाव सों अनादि को कलंक है। नर देव तिरजंच नारकी भयो है जहां, अहंबुद्धि ही में डोल्यो अति निसंक है करम की रीति विपरीति ही सों प्रीति जाते, रागदोष धारि-धारि भयो बहु बंक है। करम इलाज में न काज कोऊ सिद्ध भयो, अब तू पिछान जीव चेतना को अंक है।।५३।।
१ चितवन, दृष्टि. २ चूकना, हटना, ३ इतना ही. ४ समझ में न आए. ५ सूक्ष्मत्वगुण, ६ सभी