Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
View full book text
________________
व्यवहार नयके धरैया व्यवहार नय, प्रथम अवस्था जामें करालंब कह्यो है। चिदानंद देखे व्यवहार झूठ भासतु है, आतमीक अनुभौ सुभाव जिहिं लह्यो है।। देठ चिदरूपकी अनूप अवलोकनि में, कोऊ विकलप भाव-भेद नहि रह्यो है।। चेतन सुभाव सुधारस पान होय जहां, अजर अमरपद तहां लहलह्यो है 11१०।। ज्ञान उर होत ज्ञाता उपादेय आप माने, जाने पर न्यारो जाके कला है विवेक की।। करम कलंक पंक डंकर नहीं लागे कोऊ. देव निकलंक रुचि भई निज एक की। निरभै' अखंडित अबाधित' सरूप पायो, ताही करि मेटी भ्रमभावना अनेक की11 देव हिय बीच बसे सासतो निरंजन है, सो ही धनि 'दीप' जाके रीति सुध टेक की।।११।। मेरो ज्ञानज्योति को उद्योत मोहि भासतु है, ताते परज्ञेय को सुभाव त्याग दीनो है।। एक निराकार निरलेप जो अखंडित है, ज्ञायक सुभाव ज्ञान मांहि गहि लीनो है।। जाकी प्रभुता में उठि गए हैं विभाव भाव, आतम लखाव ही तैं आप पद चीनो' है।। ऐसे ज्ञानवान के प्रमान ज्ञान भाव आपो,' करनो न रह्यो कछु कारिज नवीनो है।।१२।। .१ हस्तावलम्बन, आश्रय, २ लहलहाता है, ३ डॉक, कर्मकलंक, ४ निर्भय, ५ मुद्रित पाठ है- आषधित, ६ मुझे ७ लेप रहित, ८ समाप्त हो गए, विलीन हो गए. ६ पहचाना, १० आप. आत्मा का