Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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लोकालोक लखिके सरूप में सुथिर रहें, विमल अखंड ज्ञानजोति परकासी हैं। निराकार रूप सुद्धभाव के धरैया महा. सिद्ध भगवान एक सदा सुखरासी हैं। ऐसो निज रूप अवलोकत हैं निहचे' में, आप परतीति पाय जग सो उदासी हैं। अनाकुल आतम अनूप रस वेदतु है, अनुभवी जीव आप सुख के विलासी हैं।।२२।। करम अनादि जोग जातें निज जान्यो नाहि, मानि पर मांहि सयों भव में इतु हैं। गुरु उपदेश समै पाय जो लखावे जीव, आप पद जाने भ्रमभाव को दहतु है। देवन को देव सो तो सेवत अनादि आयो. निज देव सेवे बिनु शिव न लहतु है। आप पद पायवे कोरे श्रुत सो बखान्यो" जिन, तातें आत्मीक ज्ञान सब में महतु है।।२३।। गगनके बीचि जैसे घनघटा मांहि रचि, आप छिप रह्यो तोऊ तेज नहिं गयो हैं। करमसंजोग जैसे आवर्योप है उपयोग, गुपत सुभाव जाको सहज ही भयो है। ज्ञेय को लखत ऐसो ज्ञानभाव या कोऊ, परम प्रतीति धारि ज्ञानी लखि लयो है। उपयोगधारी जामें उपयोग किए सिद्धि, और परकार नहीं जिनवैन गायो है ||२४ ।।
१ परमार्थ में, २ मुद्रित पाठ सेए' है, ३ पाने के लिए, ४ व्याख्यान किया, ५ महत्वपूर्ण ६ आवृत, ढका हुआ. ७ मुद्रित पाठ है- चयो है।
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