Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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अनुभौ उल्हास में अनंत रस पायो महा, सहज समाधि में सरूप परकासना।। बोध नाव बैठि भव-सागर को पार होत, शिव को पहुँच करे सुख की विलासना।। ज्ञानदर्पण, १७५
यद्यपि होनहार सुनिश्चित है; जिस समय जिस विधि से जिस रूप जो कार्य होना है वह हो कर रहता है, किन्तु जैसा स्वभाव नियत है, वैसा ही उसका कार्य निश्चित है। परन्तु अज्ञानी जीव वस्तु के स्वभाव तथा उसके नियत परिणाम को उस रूप स्वीकार नहीं करता है, क्योंकि वह ऐसा समझता है कि मैं संयोगों को अपने अनुकूल परिणमा सकता हूँ। वस्तुतः यह पुरुषार्थ नहीं है, बल्कि मिथ्या कल्पना एवं कर्तृत्व बुद्धि की मिथ्या मान्यता है। गंद केवल प्रयत्न से ही साध्य की सिद्धि होती, तो द्रव्यलिंगी साधु विधि पूर्वक अनादि काल से अभी तक साधना कर चुके हैं, फिर भी उनको मुक्ति की प्राप्ति नहीं हुई। इसलिये भवितव्यता का उल्लंघन नहीं हो सकता। फिर भी, सम्यक नियति को मानने वाले जैनी योग्य निमित्त की सन्निधि में सम्यक् पुरुषार्थ को भी स्वीकार करते हैं। यथार्थ में पाँचों ही समवाय के होने पर कार्य की मलीभाँति सिद्धि होती है। जिनवाणी तो वस्तु-व्यवस्था एवं उसकी मर्यादा का व्याख्यान करती है । अतः ऐसा नहीं समझना चाहिए कि सम्यक नियति को मानने वाले पुरुषार्थ का उपहास करते हैं। पुरुषार्थ के बिना तो सिद्धि नहीं है; परन्तु पुरुषार्थ सम्यक् होना चाहिए । पं० दीपचन्द जी के शब्दों में
मोक्षवधू ऐसे जो तो याके करमांहि होय, तो केवली के वैन तो सुने हैं अनादि के। जतन अगोचर अपूरव अनादि को है, उधम जे किए जे जे भए सब वादि के। तातें कहा सांच को उथापतु है जानतु ही, मोरो होय बैठो वैन मेटि मरजादि के। जो तो जिनवाणी सरधानी है तो मानि-मानि, वीतराग वैन सुखदेन यह दादि के।। (ज्ञानवर्पण, १४०) उद्यम के डारे कहूँ साध्य-सिद्धि कही नाहि, होनहार सार जाको उद्यम ही द्वार है।
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