Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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तथा- विधि न निषेध भेद कोउ नहीं पाइयतु.
वेद न वरण लोकरीति न बताइये। धारणा न ध्यान कहुँ व्यवहारी ज्ञान कहयो, विकलप नाहिं कोउ साधन न गाइये। (शानदर्पण, १७७)
वस्तुतः स्वसंवेदन ज्ञान में न क्रोध है, न मान है, न माया है और न लोभ है, पुण्य-पाप किंवा शुभ-अशुभ भाव भी नहीं है तथा किसी प्रकार का विकल्प नहीं है। कहा है
स्वसंवेदन ज्ञान में न आन कोउ भासतु है,
ऐसो बनि रहयो एक चिदानन्द हंस है। यही नहीं,
जोग - जाति जहाँ भुषति न भावना है, आवना न जायना न करम को वंस है। (शानदर्पण, १७१)
जिनागम में ध्यान चार प्रकार के कहे गए हैं- आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान । प्रथम दो ध्यान अशुद्ध ध्यान हैं। संसार में कोई जीव बिना ध्यान का नहीं है। जब संसार, राग-द्वेष, विषय-कषाय तथा पर पदार्थों से सम्बन्धित विभाव भाव की चिन्ता, स्मरण का चिन्तन, मनन तथा अनुभवन होता है, तब शुद्धध्यान होता है। अशुद्ध ध्यान संसार को उत्पन्न करने वाला है। पं० कासलीवालजी के शब्दों में
एक अशुद्ध जु शुद्ध है, ध्यान दोय परकार। शुद्ध धरे भवि जीव है, अशुध धरे संसार।। शुद्ध ध्यान परसाद तें, सहज शुद्ध पद होय। ताको वरणन अब करों, दुख नहीं व्यापे कोय।।
(स्वरूपानन्द, २८, २६)
इतना अवश्य है कि सभी ध्यानशास्त्र "आत्मध्यान" का ही उपदेश देते हैं। क्योंकि पाँचों परमेष्ठी जिस शुद्धात्मा का आश्रय करते हैं, वहीं शुद्धात्मा हमारे लिए भी ध्येय है।