Book Title: Tattvartha Kartutatnmat Nirnay
Author(s): Sagranandsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મુનિશ્રી નીતિવિજયજી સૌને શા * याने * श्रीवीतरागाय नमः ॐ श्रीतत्त्वार्थकर्तृतन्मतनिर्णय श्रीतत्त्वार्थसूत्रके कर्त्ताश्वतांवर है या दिगंबर? विचार संग्राहकपरमपूज्य नृपतिप्रतिबोधक आगमोद्धारक श्रीमत् सागरानन्दसूरीश्वरजी महाराज. _____प्रकाशिका-श्री रतलाम (रत्नपुरीय) श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी नाम्नी श्वेतांबरसंस्था. प्रथमावृत्त । पण्यं विक्रमसंवत् ५०० । --१०-० । १९९३ प्राप्तिस्थान--श्रीजनानन्दपु तकालय गोपीपुरा सूरत. . इस पुस्तकका सर्व हक प्रकाशकने स्वाधीन रखा है. २४ प्रिंटिंग प्रेस, इन्दौर में मुद्रित. For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ (१) इतरदर्शन कारोंने जब अपने दर्शन में और दुसरे में मार्गशब्द लगाया तब इसमें भी मोक्षमार्गशब्द से कहा गया. याने मोक्षशब्द के साथ मार्गशब्द शरीक किया गया है. (३) तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं इसका भेद दिखानेका सूत्र अलग रखकर यह सूत्र लक्षणकी तोरसेही अलग कियाअन्यथा 'निसर्गाधिगमाभ्यां तत्रश्रद्धा सम्यक्त्वं' इतनाही कह देते. दर्शनशब्दभी इसमें सूचक ही है । (४) इतरदर्शनकारों केवल संहितादिसे व्याख्या मानते हैं, तब तत्वार्थकारने नामादिनिक्षेपसे व्याख्या दिखानेको नामस्थापना० सूत्र कहा । (५) ज्ञानशब्द से शुद्धज्ञान रखकर सामान्यसे बोध दिखानेके लिए अधिगमशब्द रख कर ' प्रमाणनयैरधिगमः ' ऐसा कहा. या बोधशब्द नहीं रखके अधिगमशब्द अन्यदर्शनकी प्रसिद्धिसे होगा, कभी तीसरे सूत्रमें अधिगमशब्द से भी उपदेश लिया गया है उसके संबंध से • प्रमाण और नयसे याने तन्मयवाक्योंसे उपदेश होता है असा मान ले तब भी यही हुवा कि अन्यदर्शनकार अपनी प्ररूपणा प्रमाणसे है ऐसा मानते हैं, लेकिन ये लोग केवल नयादिसे ही प्ररूपणा करनेवाले हैं और जैनको तो प्रमाण और नय दोनोंसेही प्ररूपणा इष्ट है, इस तरहसे भी यह दर्शन के हिसाब से सूत्र है । 3 For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) तत् प्रमाणे, और आये परोक्षं, प्रत्यक्षमन्यत्, ये तीन सूत्र .: भी इतस्दर्शनोंके अधिकारसे है। (७) मत्यादिज्ञानोंका सूत्रोंमें द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाचसे विषय दिखाया है, तब तत्वार्थकारने सिर्फ द्रव्य भाव ही दिखाया, इसका भी क्षेत्र और कालको द्रव्य मान कर तर्कानुसारियों की अनुकूलताही तत्व है. .... (८).अधिगमके कारणोंके दिखाते जो तीन सूत्र 'प्रमाणनयै रधिपमा 'निर्देश' 'सत्संख्या' ऐसे दिखाये हैं यह तर्कानुसारियोंके ही अनुकूलता के लिये है। ....... शास्त्रामं पृथ्वी, जल, वायु और अग्निको जड माने हैं, लेकिन इधर इनको सचेतन दिखाये हैं. वैज्ञानिकलोगभी वनस्पति और पृथ्वीको अब सचेतन मानते हैं। (अन्यमजहबकालोंने इन्द्रिय और विषयके वैषम्यसे ही पदार्थज्ञानका वैषम्य माना है, लेकिन भगवान श्रीउमास्वातिजीने पदार्थ और इन्द्रियको वैषम्यतान होने पर भी ज्ञाताकी धारणाके कारणसभी ज्ञानविषमता मानी है, अन्यमजहबकालोंने भिन्न इन्द्रियका सुगमत् ज्ञान हो जाय उसको रुकने के लिये ज्ञानकी युगपत् अनुत्पत्ति के लिये अणु ऐसा.मन मान लिया, और वह अणु.ऐसा मनमानाके जिस इन्द्रियके साथ संयुक्त हो उसका ज्ञान उत्पन्न होके, ऐसा For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान लिया है, लेकिन एकही इन्द्रियसे अनेक विषयों का ज्ञान होनेका मोका आजाय याने एकही स्पर्शनसे शीत, उष्णादि जानने का, रसनासे तिक्तादि अनेकरस, चक्षुसे अनेक रूप और श्रोत्रसे अनेक शब्द जानने का मौका आजाय तो फिर ज्ञाताकी धारणा को आगे करनीही होगी. इसी तरहसे वाचकजी महाराज फरमाते हैं कि जिसकी धारणा आत्मीयकल्याण के ध्येयवाली नहीं है वह मनुष्य अपना ज्ञान आत्मकल्याण ध्येय से नहीं करके पौगलिकके ध्येयसे ही करता है, उस ज्ञानका प्रयोजनभी पौङ्गलिकही सिद्ध करेगा, इससे उस पौगलिक ध्येयषालेका ज्ञान अज्ञानही है. याने ज्ञानका सम्यकपणा अच्छी धारणा से ही होता है, और अच्छधारणावालेके ज्ञानका ही प्रमाणविभाग दिखाया है ! (११) अन्यदर्शनकारों के अनुकरणसे ही इस तत्त्वार्थकी रचना होनेसे ही तो 'सदसतो' इस सूत्र में अन्यधारणावाले को उन्मत्त जैसा कदुशब्द लगाया है, याने अन्यदर्शनकारोंका अयोग्य और असत्य प्रचार देखके ही इन अनुकरणकारको घृणा आइ होगी, और उसी घृणासे यह कठोर कथन हुआ होगा । (१२) जैसे दीपकज्योति समान होने पर भी काचक्रे रंगके अनुकरणसे ही मिस्र मिश्र प्रकाश होता है, इसी तरहसे For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थ और इन्द्रियादिसे समान बुद्धिजन्म होने पर भी धारणाके रंगका अनुकरण ही बुद्धि करती है. इससे योग्य धारणा रहितको अज्ञानहीं माना, याने जैसे अन्धे आदमी पदार्थको न देखनेसे यथायोग्य दृश्यपदार्थके विषयमें हेयोपादेय प्रवृत्ति नहीं कर सक्ते हैं. उसी तरह मृगतृष्णाको जलस्थान माननेवाले की तरह भी या कंचनको पितल और पितलको कंचन दिखनेवाले आदमीभी यथायोग्य हेयोपादेय फलको नहीं पा सक्त हैं. इसी तरह इधरभी स्याद्वादमुद्राकी और मोक्षध्येयकी धारणा नहीं रखनेवाला .आत्मप्रक्षसे अबोध या दुर्बोध है, इससे उसके ज्ञानको अज्ञान मानके प्रमाणके हिसाबमें ही नहीं लिया है. (१३) इतरदर्शनकारीको स्याद्वाद मंजूर नहीं करना है इससे इनको उपक्रमसे सूत्रोंकी व्याख्या करनी नहीं है सब वस्तुको नामादिचतुष्कमय. माननेवालाही उपक्रमादिकरूपसे व्याख्यान कर सके, इसी सबबस भगवान् उमास्वातिजीने जामस्थापनादिका सूत्र कहकर चतुष्ककी व्यापकता दिखाई, उसी तरह अनुगमनामक व्याख्यानमें उपयुक्त ऐसे संहितादिभेद इतरदर्शनकारोंने मंजूर किया, लेकिन स्याद्वाद मंजूर करने के डरसे ही उन लोगोंने नयकी दृष्टिसे व्याख्या मंजूर नहीं की है. यद्यपि एकनयदृष्टिसे के सभी मत है ही, लेकिन परस्पर विरुद्ध ऐसे For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयोंका समावेश करके दूसरोंको व्याख्यान करनेका मोका होवेही नहीं, क्योंकि ऐसा करनेमें विरुद्धधर्मका समावेश करना ही पड़े, इसी हिसाबसे इतरदर्शन नपसमूहको न तो मानते हैं और न भिनभिन्ननयसे पदार्थोकी व्याख्या करते हैं, परंतु जैनशासनमें तो सब या अर्थ कोई भी नयविचारणा सिवाय का नहीं है, इससे भगवान उमास्वातिजीने नयका विचार चलाया है। इसी अपेक्षासे ही आचार्य महाराज श्रीसिद्धसेनदिवाकर फरमाते हैं कि भगवान आपमें सब दृष्टि है, लेकिन सबष्ठिमें आप नहीं है. देखिये ! " उदघाविक सर्वसिंघवः, समुदीर्णास्त्वयि नाथ ! दृष्टयः । न च तासु भवान् प्रदृश्यते, प्रवि'भक्तासु सरित्स्विवोदधिः ॥१॥" याने नयवादके हिसाबसे जैनमजहबमें सब मजहब हैं, लेकिन अन्यमजहबमें जैनमजहब नहीं है, नयवादसे जब ऐसा है तव अतीन्द्रियपदार्थके हिसाबसे ऐसा है कि सभी मजहब द्वादशांगसेही है, और इसीसे द्वादशांग ही रत्नाकर तुल्य है, केवल द्वादशांगका ही पदार्थ अन्यमजहबवालोंने अन्यथारूपसे लिया है।' (१४) इतरदर्शनकारोंने द्रव्य और गुणादि पदार्थ मित्र मित्र माने हैं, इससे ये लोग गुणादिक पदार्थोंको व्यक्त भावरूपसे नहीं निरूपण कर सकते हैं, तब जैनदर्शन द्रव्य और For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावका कथंचित् भिन्नाभिनपणाको मान्य करने के कारण भावके नाससे पर्याय दिखा सक्ते हैं, और इसीसे तत्रार्थकारमहाराज : पर्यायपदार्थको भी साथ लेकर भावके नामसे ही गुणोंका भी निरूपण करते हैं, लेकिन पाठकोंको ख्याल रखना चाहिये कि यह शास्त्र मोक्षप्राप्तिके उद्देशसे ही बनाया गया है इससे ज्यादह जीवके उद्देशसे ही भावका निरूपण किया है। (१५) अन्यदर्शनकारोंने जीवको ज्ञानका अधिकरण माना है, माने आत्माको ज्ञानका भाजन माना है, परन्तु जैनदर्शनके मन्तव्यानुसार न तो ज्ञान आत्मासे भिन्न है और न ज्ञान आत्मामें आधेयभावसे रहा हुवा है, किंतु आत्मा झनस्वरूप ही है, इसीसे ही सूत्रकारने 'उपयोगो लक्षणं' ऐसा सूत्र कहा है, यद्यपि अन्यमजहबवालोको परमेश्वरमें ज्ञान मानना है और इंद्रिय या मन जो ज्ञानके साधन माने हैं वे परमेश्वरको नहीं मानना है, इससे ज्ञान आरंमाका स्वभाव है ऐसा जबरन मानना ही होगा, लेकिन नैयायिक और वैशेषिक की तरह सांख्य भी मुक्तोंमें ज्ञान मानते ही नहीं. फिर वे लोग आत्माको ज्ञानस्वरूप कैसे मानेंगे?, वाचकवृन्द ! याद रखिये कि इसीसे ही उन मतोंमें आत्माकी सर्वज्ञताका सद्भाव मानना मुश्किल होजाता है, ज्ञानकी तन्मयताही मंजुर For Personal & Private Use Only · Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है तो फिर वे लोग ज्ञान और रोकनेवाले कर्मोको कहां से मंजूर करें ? (१६) अन्यदर्शनकारोंने स्थूल और लैंगिक ऐसे शरीर माने हैं, तब जैनदर्शन में पृथ्वीसे मनुष्यतकको औदारिक, देव, नारकको पूर्वभव के किये हुवे कार्योंसे लाखों गुणा सुख दुःख भुगतने के लिये काबिल ऐसा वैक्रिय२ महायोगके योग्य आहारकर ये तीन शरीर के भेद स्थूलके दिखाये और गर्भसे लगाकर यावज्जीवन खुराकका पाक करके रसादि करनेवाला तैजस और आखिर में कर्मका विकार या समूहरूप कार्मण शरीर ऐसे पांच तरहके शरीर दिखाये हैं (१७) अन्यमजहबवालोंने कर्मोंको ही पौङ्गलिक नहीं माने हैं, तो फिर आयुष्यको पौगलिक माने ही कैसे हैं और आयुष्यको पौगलिक ही नहीं माने तो फिर उपक्रम आयुष्यको लगते हैं और आयुष्यका अपवर्त्तन होता है वैसा कैसे मान सके ?, और ऐसा न मानें तो अनपवर्त्तनीय विभाग तो मानेही कहाँ से १, वे लोक उपक्रम और अपवर्धन न माने ऐसा कभीभी नहीं बनेगा, क्योंकि कोई भी मनुष्य क्या अनि हथीयारआदिसे नहीं डरे ऐसा बनता है ? हरमीज नहीं, तो फिर मानना ही पडेगा कि यही उपक्रम और अपवर्तनकी सिद्धि है. 2 T • 41 For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८, तीसरे अध्यायमें कर्मभूमिके भेद दिखाते जो 'अन्यत्र' करके देवकुरु उत्तरकुरुका वर्जन करके कर्म अकर्म भूमिका बयान दर्ज किया, वह असंख्यद्वीपसमुद्रादि वर्णनको शैलीकी तरह अलौकिक है। (१९) पांचवें अध्यायमें अजीवकायसे आरंभ कर जो धर्मास्ति. कायादिका प्रकरण लिया है वह इतरदर्शनकारोंने जो आकाशका आधिकरणके हिसाबसे वर्णन किया था उसका ही प्रतिबिंब है, परंतु वस्तुएँ अलौकिक हैं. (२०) उत्पादव्ययादिका निरूपण इतरदर्शनोंमें स्वममेंभी नहीं था, और हो. सक्ताभी नहीं. (२१) "कालश्वेत्येके" यह पांच अध्यायका सूत्रही अन्यदर्शन कारोंको स्याद्वाद दिखाने के साथ इस तत्वार्थसूत्रका व्यापित्व दिखलाता है। ... (२२) इधर तत्वविभागसे आप्रवादिके प्रकरण हैं, और इसीसेही कितनेक छोटे और कितनेक बडे भी होगए हैं, यह दर्शनकारोंके सूत्रोंकी अनुकरणीयता ही दिखाता है। . (२३) देव निर्ग्रन्थ और सिद्ध के लिये स्थिति और क्षेत्रादिका विकल्प करके जो निरूपण करनेका दिखाया चहभी नकारोंकी अनुकृति है। (२५) माखूम, होता है कि अन्यमजहबवालोंने महादेवकी अष्टमूर्तिक हिसाबसे अष्टाध्यायीका विभाग . रक्खा, B For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A इधर उसीतरहसे दशतरहका श्रमणधर्म ही मोक्षका साधक और तत्त्वभूत गिनकर दशअध्याय प्रमाण रक्खा है, और इसीसे ही कलिकालसर्वज्ञ भगवान् श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजीने प्रमाणमीमांसामें महाव्रतधर्मके हिसाबसे पांच अध्याय और दशविधयतिधर्मके लिये देश आहिक रक्खे हैं. इसतरहसे अन्य सबब भी इतरदर्शनशास्त्रकी अनुकृतिमें दे सकें, लेकिन संक्षेप करके सज्जनोंको, खुद ही सोचनेका इशारा करके बस करते हैं. . . .. (२५) ' समनस्कामनस्काः ' यह संसारी और मुक्तिके विभाग करने के बाद और बस स्थावर भेद के पेश्तर कहा है। इसकी मतलब यह होगा कि इतरदर्शनकार सभी जीवको मनसे युक्त मानते हैं और वह मन भी नित्य मानते है, इससे इधर दिखाया कि सभीको मन है भी नहीं, और मनका वियोग करके ही मुक्त आत्मा मनरहित होते हैं। यह सूत्र सामान्यविभागका होनेसे ही आगे 'संसारिगनसंस्थावरा' ऐसा और 'संज्ञिनः समनस्काः ' ऐसा पत्र कहा. अन्यथा इस समनस्का० सूत्रकी जरूरत नहीं थी. 'सीझनः समनस्काई' इतना ही बस था और संसारिणखसंस्थावराः' इस स्थानमें 'आद्यास्त्रसस्थावराः' इतना ही बस था। . . . .. . .. L . . .. For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ (२६) 'मतिश्रुतावधिमन पर्यामकेवलानि ज्ञानं' ऐसा कह कर जो 'तत् प्रमाणे' ऐसा सूत्र कहा वह भी इनकार इन्द्रियार्थसंनिकर्ष आदिको प्रमाण मानते हैं वा श्रामाण्य भी जिस परसे मानते हैं यह योग्य नहीं है ऐसा दिखानेके लिए है । (७) ' कृत्स्नकर्मगो मोक्षः' यह सूत्र भी अममय या ज्ञानादिविच्छेदमय जो मोक्ष मानते हैं उनको सत्यपदार्थसमझानेके लिये है । यह सब बयान इतरदर्शनकारोंकी अपेक्षाका दिया है, इसका मतलब यह है कि श्वेतांबराकीही यह मान्यता है कि जिस जमाने में जीव जिसतरहसे बोध पावे और भावीतराग के मार्ग में स्थिर होवे वैसा प्रयत्न करना चाहिये, इससे भी यह शास्त्र घेतानाही है ऐसा समझा जाय । आखिर में सब श्वेतांबर व दिगंबरमायाको सत्यमार्गपर स्थिर रहनेकी और वीतरागप्रणीत मार्ग अखत्यार करने की संभावना करते हैं, और लेखको समाप्त करते हैं । वीर सं. २४६३आपका ५ For Personal & Private Use Only आनन्दसागर Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री गणधराय नमः ॥ तत्वार्थसूत्र के dearer कर्ता वेतांबर हैं * या दिगंबर ? श्रीमान् उमास्वातिजीवाचकमहाराज ग्रन्थकर्ता तवार्थसूत्र एक ऐसा अपूर्व ग्रन्थ बना हैं उत्कृष्टता ※ कि इसको देखनेवाला इसे अपनायें बिना * कदापि नहीं रह सक्ता । अतः इसका कोई न कोई खास कारण अवश्य होना चाहिये। इसविषय में और विद्वानह के चाहे कुछ भी विचार हो किन्तु मेरे ख्यालसे तो इसका यही खास कारण मालूम होता है कि यह ग्रंथ बडा ही संग्राहक है. पाने दूसरे ग्रंथ एक एक विषयको प्रतिपादन कर शास्त्रके एक एक महनविषयकी सुगमता करके शास्त्रसमुद्र में प्रवेश कराते हैं और इतना होने पर भी एकविषयका तलस्पर्शी ज्ञान उत्पन्न नहीं कर सक्ते, किन्तु तवार्थसूत्र ही एक ऐसा ग्रंथ है कि जो सभीविषयोंका ज्ञान उत्पन्न करके तमाम ग्राम अवमाइन यो श्रवणकी योग्यता करा देता हैं, तमामविषयोंका तलस्पर्शीज्ञान करानेवाला याने सद होने For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) बहुत ही संक्षिप्तरूप होकर संग्राहक है। इसीलिये कलिकालसर्वज्ञ श्रीमान्, हेमचन्द्राचार्यजीने अपने श्रीसिद्धहैमशब्दानुशासनमें 'उत्कृष्टेऽनूपेन २.२-३९' इस कारकसूत्रकी व्याख्यामें बतौर उदाहरणके दिखाया है कि 'उपोमास्वाति संग्रही तार' याने शास्त्रोंके तत्त्वोंको संग्रह करके कहनेवाले श्रीमान् उमास्वातिजी महाराजही संग्रहकारआचार्योंमें शिरोमणि हैं। यही बात श्रीमान् मेविजयी उपाध्यायजी भी अपनी हेमकौमुदीमें फर्माते हैं । श्रीमान् विनयविजयजी उपाध्याय अपना प्रक्रियाव्याकरणमें और श्रीमान् मलयगिरीजी महाराज भी अपने शब्दानुशासनमें इस विषय पर इन्हीं महाराजका उदाहरण देते हैं। मतलब यह है कि शब्दानुशासनके बनानेवाले और उद्धृत करनेवालोंने भी इन्हीं उमास्वातिजीमहाराज की मुक्तकण्ठ. से प्रशंसा की और इन्होंको ही संग्रहकारों में अगुए बतलाये हैं। . श्वेतांबराचार्योंने जिस प्रकार उमास्वातिजीमहाराजकी संग्रहकारतरीके प्रशंसा की है वैसी दिगंबरोंके शब्दानुशासनमें नहीं पाई जाती. इसके मुख्य कारण दो प्रतीत होते हैं। एक. तो यह है कि श्वेतांबरोंके आगम-शास्त्र विस्तृत विद्यमान हैं. जिनकी अपेक्षासे इस तत्त्वार्थसूत्रको बडा ही संग्राहक मान सक्के हैं, किन्तु दिगंबरमजहबकी मान्यताके मुताबिक श्रीजिनेश्वरभगवान एवं गणधरमहाराजका कोई भी बचन या शास्त्र वर्तमानमें है ही नहीं । दिगंबरजैनियोंका जो कुछ भी साहित्य है वह उनके आचार्योंका ही बनाया हुआ है,जो कि उमास्वातिजी For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) महाराज के पीछे हुए हैं । तो फिर ये लोग किन शास्त्रोंके आधारसे संग्रह याने सूक्ष्मतासे सबविषयोंका उद्धार होना मान सकेँ ? | इसी कारण से दिगंबरियोंने इसे संग्रहित नहीं माना। जब ग्रंथको ही संग्रहित नहीं माना तो फिर वे उसके कर्ताको संग्रहकार कैसे मानें ? | और जब कर्ता को संग्रहकार ही नहीं माने तो उन्हें संग्रहकारों में अग्रगण्य कैसे कहें ?, अर्थात् श्वेतांबरलोग जिस प्रकार इस सूत्रको संग्रहित और सूत्रकर्ताको उत्कृष्टसंग्रहकार मंजूर कर उनकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा करते हैं उस तरह से दिगंबरोंने नहीं की, और कर सके भी नहीं । दूसरा कारण यह भी मालूम होता है कि दिगंवरियों में जिस वक्त शब्दानुशासन बना होगा उस वक्त इस तत्त्वार्थ सूत्र को उन लोगोंने पूरीतौर से नहीं अपनाया होगा । जो कुछ भी हो,. किन्तु हर्षकी बात है कि वर्तमानसमयमें इस सूत्र को श्वेतांबर और दिगंबर दोनों सम्प्रदायने अच्छीतरहसे अपनाया है । * * इस सूत्र को बनानेवाले आचार्यमहाराजको ग्रंथकर्ता aaiर लोग श्रीमान् 'उमास्वातिजीवाचक का और दिगंबर लोग 'उमास्वामी' कहते हैं । नाम- श्वेतांबर लोगों के हिसाब से इन आचार्यमहाराज की माताका नाम 'उमा' और पिताका नाम * 'स्वाती' था. इसीलिये आपका नाम 'उमास्वाति निर्णय जगतमें प्रसिद्ध हुआ । श्वेतांबर संप्रदायमें इन्हीं आचार्यमहाराज के For Personal & Private Use Only * Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) 'रचे हुए दूसरे शास्त्र भी माने गये हैं । उन्हीं में से तत्वार्थ भाष्य में खुद आचार्य महाराजने ही 'स्वातितनयेन' ऐसा कहकर अपने पिताका नाम स्वाति है, ऐसा साफ जाहिर कर दिया है, और उसी स्थान पर अपनी 'माताका नाम उमा' था, ऐसा भी स्पष्ट अक्षरों में ही सूचित किया है. संभव भी है कि उमा नाम स्त्री वाचक होने से श्रीमान् की 'माता का नाम 'उमा' हो । मतलब यह कि आपका नाम आपके मातापिता के नामके संयोग से है । प्राचीन जमाने में यह कि माता या पिता के नामसे या नाम रखा जाता था । यह बात तो हुई व हिसाब से ग्रंथकार के नामकी बाबत, किन्तु दिगंबर लोग 'उमा' और 'स्वामी' शब्दसे कौन अर्थ लगाते हैं वह उनके तर्फसे अभी तक जाहिर में नहीं आया है । यदि कोई विद्वान इसविषयका खुलासा करेगा तो हमें हर्ष होगा । बात अक्सर होती भी थी दोनों के नामसे लडके का जब तक इसका खुलासा न हो और नामपर ही विचार किया जाय तो उमानामकी कोई व्यक्ति हो, एवं उसके स्वामी याने नाथ होवे, और इससे श्रीमानको उमास्वामी कहा जाय, यह तो अच्छा नहीं मालूम होता, इसके सिवाय कोषकारोंने उमाशब्द जैसा पार्वतीका वाचक गिना है वैसा ही कीर्तिकी वाचक भी माना है। इससे उमा याने कीर्ति और स्वामी याने नायक, अर्थात् कीर्तिके नायक इन ग्रंथकारको मानकर For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) उमास्वामी नाम रखा हो तब तो ठीक मालूम होता हैं, किन्तु दिगंबरियों में प्रायः रिवाज है कि साधु और आचार्यको इलकाबके तौर पर नाम के आगे 'स्वामी' शब्द लगाया जाता है, तो फिर इससे असली नाम उमा होना और वह तो स्त्रीवाचक होन से सर्वथा असंभवित ही है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि उमास्वातीका टुक नाम उमा रखकर उसके साथ स्वामी शब्द लगाया गया या शुरु से ही उमास्वामी नाम हो, किन्तु विचार करने पर इन दोनोंकी अयोग्यता हैं और प्रथम पक्ष ही ठीक जचता है । . श्वेतांवरोंके हिसाब से श्रीमान्का उमास्वाति ** वाचक कौन ? नाम शुरुस ही था, किन्तु जब आप दीक्षित होकर पूर्वसूत्रों याने "दृष्टिवाद" नामका जो बारवां अंग है, उसका तीसरा हिस्सा पूर्वनामक उसके पाठक हुए तब आप 'उमास्वातिवाचक' कहलाये । श्वेतांवरशास्त्रों में यह तो स्पष्ट ही ह कि 'वाचकाः पूर्वविदः' अर्थात् पूर्वशास्त्रोंको पढने विचारने एवं बांचनेवाले वाचक गिने जाते थे । इसीलिये ही तो आपने तत्त्वार्थभाष्यमे खुदका नाम उमास्वाति ही दिखाकर अपने गुरुमहाराजको ही वाचक तरीके दिखाये हैं । यद्यपि दिगंबर लोग इन उमास्वातिजीमहाराजको उच्चकोटीके तत्वज्ञानी मानते हैं, किन्तु वे पूर्वशास्त्रों के वेत्ता थे ऐसा कहने में संकोच करते हैं, और श्वेताम्बरलोम 'इदमुचैर्नागरवाचन' ऐसा भाष्यका पाठ देखकर श्रीमान्का वाचकपनाका स्वीकार करते हैं । • For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( ६ ) * इस सूत्रकी प्राचीनताके विषयमें कुछ भी (ग्रन्थका मतभेद नहीं है । दोनों ही सम्प्रदायवाले इसे समय प्राचीन मानते हैं । श्वेताम्बरलोग महोपाध्याय* * श्रीधर्मसागरजीको पट्टावली आदिसे और खुदने भी तत्त्वार्थभाष्यमें अपनी शाखा उच्चनागरी दिखाई है. इससे श्रीमानको उच्चनागरीशाखाके मानते हैं । यद्यपि श्वेताम्बरलोग प्रज्ञापनानामक चतुर्थ उपांगके रचयिता श्रीमान् श्यामाचार्यक गुरु और दशर्वधर मानते हैं; किन्तु कितनेक ताम्बरलोमउच्चनागरी-शाखा का प्रादुर्भाव श्रीवज्रस्वामीजीके बाद होने से श्रीमान्को सम्पूर्णदशपूर्वधर माननेमें हिचकते हैं। - पाठकों ! श्रीमान् उमास्वातिजीमहाराज सम्पूर्ण दश पूर्वको धारण करनेवाले हों या न हो किन्तु पूर्वको धारण करनेवाले अवश्य थे, और श्रीवीरमहाराजसे इसमी सदीके पेश्तरके थे,क्योंकि श्रीमानजिनदासगणिजी और हरिभद्रसूरिजी वगैरा , श्रीवीरमहाराजकी दसवीं शताब्दीके आचार्यभी तत्त्वार्थादिसूत्रोंकी जीतकल्पचूर्णि, आवश्यकबृहवृत्ति, आदिमें साक्षी देते हैं, और श्रीमान्का बनाया हुआ क्षेत्रसमास जो प्राकृतभाषामें है उसको टीकासे अलंकृत किया है । पूर्वका अभ्यास दसमीशताब्दी तक ही था, यह बात तो सिद्ध ही है, याने इस सूत्रको रचे करीब १५००-१७०० वर्ष हुए हैं, और इसविषयमें किसीके तर्फसे कोई भी शंका For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है। दिगम्बरलोग भी इन आचार्यको गृद्धपिच्छके शिष्य मानकर प्राचीनतम मंजूर करते हैं । इस विषयमें म्हेसाणा श्रेयस्करमंडलकी ओरसे श्वेताम्बरोंने छपवाये तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तावनासे और बंबइ परमश्रुतप्रभावकसंस्था तर्फसे छपवाये हुए तत्वार्थसूत्रसभाष्य भाषान्तर: की प्रस्तावनासे विद्वानों को विशेष जानकारी हो सकती है। .. ___ इस ग्रन्थकी उत्पत्तिके विषयमें श्वेताम्बरों की यह मान्यता है कि शास्त्रके विस्तारसे X उत्पत्ति । तत्त्वज्ञानमें जिनलोगों की रुचि कम हो, या * *जिनलोगोंको विस्तृत शाल जानने या सुननेका समय कम मिलता हो, या बडे शास्त्रोंमें प्रवेश करनेके पेश्तर सूक्ष्मतासे परिभाषा समझना हो वैसे जिज्ञासुओं एवं बालजीवोंके लाभार्थ श्रीमान्ने यह शास्त्र बनाया है । उधर दिगम्बरोंका कहना है कि किसी श्रावकको प्रतिदिन एक सूत्र बनानेका नियम था, अतः उसने पहिला सूत्र "दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग" ऐसा बनाकर उसे भींत (दीवाल ) पर लिखा। उसके घर गोचरीके लिये आये हुए उमास्वातिजीमहाराजने उस सूत्रको देखा । उसको देखकर श्रीमान्ने उस श्रावकसे कहा कि इस सूत्रके आदिमें सम्यक्शब्द और लगाना चाहिये, याने"सम्यम्-दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः,” इस प्रकार यह सूत्र होना चाहिये । तब श्रावकने नम्रता पूर्वक निवेदन किया . For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) कि हे महाराज ! आप समर्थ हैं अतः यह ग्रन्थ आपही बनाइये ?, उस श्रावककी इस विनतिको स्वीकार कर उमास्वातिजीमहाराजने यह शास्त्र बनाया है । इस विषय में कितने को यह जिज्ञासा जरूर रहती है कि वह श्रावक किस गांव का और उसका नाम क्या था ?, एवं उस श्रावकको प्रतिदिन एक सूत्र बनानेका जो नियम था उसका क्या हुआ ? किन्तु इसका स्पष्ट खुलासा नहीं मिलता है, जैनशासन में प्रसिद्ध ऐसे सम्यग्दर्शनादि में से सम्यग्दर्शनादिमें से सम्यक्पदको उस श्रावकनें क्यों निकाल दिया ? और जब यही सूत्र सारे ग्रन्थके आदिका है तो फिर आदिभाग में 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' यह श्लोक किसने लगा दिया ? कितनेक लोगोंका तो कहना है कि मोक्षमार्गका श्लोक तत्रार्थ में शुरू से ही नहीं था, और इसीसे वार्त्तिककारने इस श्लोकका स्पर्श भी * नहीं किया है, इस श्लोक की व्याख्या सर्वार्थसिद्धिमें भी नहीं है, इससे मालूम होता है कि यह श्लोक तत्वार्थ के अन्तर्गत ही नहीं है । आद्य श्लोक श्वेताम्बरलोग इस श्लोक की व्याख्या न तो अपनी टीकाओं में करते हैं और न इस श्लोकका तत्वार्थ के अन्तर्गत ही मानते हैं | श्वेताम्बरांका कहना है कि यदि यह श्लोक तच्चार्थ का होता तो पेश्तर उसमें आभिधेयादि निर्देश होता, For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि अभिधेयादिनिर्देशके बिना अकेला मंगलाचरण करनेका रिवाज न तो श्वेताम्बरोंके शास्त्रोंमें है । और न दिंगबरोंके शास्त्रोंमें है। जैसा शास्त्रके आदिमें मंगलाचरण होता है वैसा ही अभिधेयाधिकारिनिर्देशभी अवश्य होता ही है। और मंगलाचरण शिष्टाचारसे शास्त्रसमासिके लिये होता है, किन्तु यहां तो , " वन्दे तद्गुणलब्धये " ऐसा अखीर का पद देकर नमस्कारका फल श्रीजिनगुणके लब्धिरूप. दिखा दिया है। जिससे यह श्लोक तत्त्वार्थशास्त्र के सम्बन्ध में ही नहीं है एसा कहनके साथ २ यह भी कहते हैं कि इस श्लोकमें पेश्तर तो मोक्षमार्गका प्रणेतृत्व लिया है बादमें कर्मपर्वतोंका भेदना , तद्उपरान्त विश्वतत्त्व का ज्ञान लिया है. याने यह क्रम ही उलटा है। कर्मक्षयके बिना केवलज्ञान कैसा ? और केवलज्ञानके बिना, मोच मार्गका प्रणयन कहां ?, अतः यह श्लोक क्रमसे भी मिन्न है। इसके सिवाय इसमें विशेष्यका निर्देश्य न होनेसे यह श्लोक दूसरे ग्रन्थके, सम्बन्धमें है, एवं इस श्लोकको किसीवे इधर तत्वार्थआदिमें मंगलाचरण या और किसी इरादेसे स्थापन किया है। तत्वके जानकार श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायवाले इस श्लोकको श्रीमान् उमास्वातिजीमहाराजका बनाया हुआ नहीं मानते हैं। . . . . . . For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (१०) * ~* यह तत्वार्थसूत्र दोनोंही. सम्प्रदाय याने 8. शास्त्र । श्वेताम्बर और दिगम्बरमें परम मान्य है, और सम्प्रदाय । इस पर दोनोंही सम्प्रदायक विद्वानोंने विस्तृत * * एवं संकुचित विवेचन भी किया है। यद्यपि कितनेक प्रमाणपन्थाको याने न्यायसम्बन्धीग्रन्थोंको दोनो परस्पर मंजूर करते हैं, एवं टीकासे भी अलंकृत करते हैं, और प्रत्यक्षादि प्रमाणों, जीवादि विषयों तथा स्याद्वादमर्यादामें दोनोंको ऐक्यता है । इसीसे तो उनको प्रतिपादन करनेवाले युक्तिप्रधान ग्रन्थोंको दोनों ही परस्पर मानते हैं, और इसी कारणसे सिद्धिविनिश्चयका उल्लेख प्रमाणशास्त्रतरीके श्रीनिशीथचूर्णिमें पाया जाता है। अष्टसहस्री पर न्यायाचार्यश्रीमान्यशोविजयजीउपाध्यायजीने टीका बनाई है। ऐसे न्यायप्रधानग्रन्थों में व्याकरणग्रन्थों की तरह विवाद न होनेसे परस्पर मान्यता रहनी कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । इसी प्रकार : तत्त्वार्थके विषयमें भी बहुत भाग ऐसा है कि दोनों सम्प्रदायपालोंको एक सरीखा मान्य है। किन्तु दूसरे ग्रन्थोंके कर्ता सम्बन्धी ऐसा कोई विवाद नहीं है जैसा इस ग्रन्थके कर्ताक विषयमें. है । अष्टसहस्री और स्याद्वादमंजरी वगैरा ग्रन्थोंको दोनों सम्प्रदायवाले अपने २ उपयोगों देते हैं, और उनके कर्ता सम्बन्धी कोई विवाद नहीं करते हैं । विनम्वरकी कृतिको दिमम्वरकृति तरीके और श्वेताम्बर - For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) की कृतिको श्वेताम्बरकतक तरीके दोनों ही मंजूर करते हैं, किन्तु इस तत्वार्थक विषयमें ऐसा नहीं है । श्वेताम्बर लोग इस शास्त्रको श्वेताम्बर मन्तव्य प्रतिपादन करनेवाला और दिगम्बरलोग इसको अपना मन्तव्य प्रतिपादन करनेवाला मानते हैं। श्वेताम्बरलोग इसके कर्ताको श्रीउमास्वातिजीवाचकके नामसे अपनी सम्प्रदायके आचार्य मानते हैं, तो दिगम्बरलोग इनको अपनी सम्प्रदायमें उमास्वामीआचार्यके नामसे स्वीकार करते हैं, ऐसी स्थितिमें दोनों सम्प्रदाय वाले जिस रीति से इस सूत्रसे अपना २ मन्तव्य सिद्ध करनेकी चेष्टा करते हैं उसी तरहसे अन्यके मजहबसे यह बात विरोधी है और इससे यह शास्त्र इन्हों का नहीं है ऐसा सिद्ध करनेका प्रयत्न भी करते हैं। * इस ग्रन्थविषयक चर्चा होनेका खास सम्प्रदाय कारण यह है कि इस शास्त्रकी रचना श्वेताम्बर भेट । और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायकी भिन्नता होनेके * * पेश्तर हुई है। यदि दोनों सम्प्रदायक विभक्तं होने के बाद इस ग्रन्थकी रचना होती तो यह चर्चा होती ही नहीं। दोनों सम्प्रदायकी विभक्तताके समय के विषयमें तो दोनोंही सम्प्रदायवालोंकी सरीखी मान्यता है। श्वेताम्बरलोग दिगम्बरकों उत्पनहोनेका समय श्रीवीर सं०६०९ बताते हैं, तब दिगंवरलोम श्वेताम्बरसम्प्रदायकी उत्पत्ति विक्रम स० १३६ में बताते For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) है। अर्थात् दिगम्बरों के हिसाबसे भी श्वेताम्बरों के ही मुताबिक श्रीवीरसंवत् और विक्रमसंवत्का फर्क ४७० होनेसे चीरसंवत् १३६+४७७६.०६ होता है, तो ऐसे विषयमें जो तीनवर्षका फरक होता है वो कोई फरक नहीं गिना जाय, अतः दोनों सम्प्रदायके भिन्नताका समय दोनों की मन्तव्यतासे सरीखा ही है। अब इन दोनों सम्प्रदायोंमेंसे श्वेताम्बर कहते हैं कि हम असलसे हैं, और दिगम्बरसम्प्रदाय हममें से निकली है, और इसकी पुष्टिमें बोटिकका बयान जो आवश्यक, विशेषावश्यक, उत्तराध्ययन आदिमें दर्ज है वह दिखलाते हैं। उधर ‘दिगम्बरीलोग कहते हैं कि श्वेताम्बरसम्प्रदाय हमसे निकली है, और इसके सबूतमें दर्शनसारग्रन्थका सबूत देते हैं, कौन किससे निकला है ? इस विषयमें यदि बटस्थ दृष्टिले विचार किया जाय तो दिगम्बरलोग ही वाम्बरोंसे निकले हैं। इसका विशेष विवेचन तो इस विषयके स्वतंत्रलेखमें होना ही ठीक है, किन्तु जो. दिगम्बर. लोग श्वेताम्बरमेंसे नहीं निकले होते तो वे दिगम्बर बन्द जो बस्त्रकाही प्रश्नोत्तररूप है उससे आपको कहलातेही नहीं। पाठकों! यदि दान्देशीसे विचार किया जाय तो स्पष्ट मालूम होजायगा कि दोनोंके नामक अखीरमें अम्बरबाद लगा हुआ है, जोकि वस्त्रका वाचक है । इससे एक कहने हैं कि हम सकेदकसवाले हैं और दूसरे कहते हैं कि For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) हम दिशारूप वस्त्रवाले हैं, अर्थात् दोनोंने अम्बरशब्दको तो अपने नाममें रखाही है। असलमें ऐसा मालूम होता है कि जब दिगम्बरसम्प्रदाय श्वेताम्बरसे अलग हुआ तब इतर लोगोनें उनसे पूछा कि तुम्हारे पास अन्य जैनसाधुओं जैसे कपडे कहाँ. है? तो दिगम्बरोंको कहभा पडा कि हमारे दिशारूपही वस्त्र है। इस प्रकार कहनेसे ही इस सम्प्रदायको लोग जैन नहीं कहके दिगम्बर कहने लगे, याने दिगंबरपना लोगोंने ही लगाया। कभी मान लिया जाय कि दिगम्बरसम्प्रदायसे श्वेताम्बरसम्प्रदाय निकली, तो यह बात उचित नहीं जचती। क्योंकि दिगम्बरमेंसे श्वेताम्बर निकले होते तो उनका नाम साम्बर याने वस्त्रवाले ऐसा ही होना चाहिये था, कारण कि वस्त्र विनाके दिगम्बरों से यदि निकले होते तो विशिष्टतावाला वनसहितपनेका साम्बर नामही रखा होता। जिस प्रकार श्वेताम्बरों में त्यागीवर्गमेंसे निकले हुए यतिवर्गको परिग्रहवाले कहते हैं, उसी प्रकार इधर भी सांबर ही नाम होता, न कि श्वेताम्बर । अतः निर्णय किया जायगा कि श्वेताम्बरोंमेंसे ही दिगम्बर निकले हैं, परंतु श्वेताम्बर लोग दिगम्बरों में से नहीं निकले हैं । @@@@ दिगंबरोंके तर्फसे कहा जाता है कि मदिः सूत्र चर्चा यह सत्र श्वेतांबरोंका होता तो इसका प्रतिपादन Disord श्वेतांवरशैली से होता, किन्तु इसमें ऐसा प्रतिपादन ही नहीं है.. बेतांबरोंने.. जीवादि मात्र ०२२0000000000000 000000000000 For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) तव माने हैं और इससूत्रमें जीवादि सात तत्वोंका ही प्रतिपादन है अर्थात् श्वेतांबर लोग पुण्य और पाप तत्र साथ ही रखकर जीवादि नवको तत्र मानते हैं, किन्तु इससूत्रमें तो जीवादि सात तत्वहीका निरूपण करके पुण्य और पाप को तत्रकी कोटि में लिया ही नहीं है. इसी प्रकार प्रायश्चित्तके विषय में भी जब श्वेतांबरों के शास्त्र आलोचनासे लेकर पारांचिततक के दस प्रायश्चित्त दिखाते हैं. तब इसी सूत्र में आलोचनासे लेकर अनवस्थाप्य तकके नौ प्रायश्चित्त ही दिखाये हैं, अतः ऐसी स्थितिमें यह शास्त्र किसी भी तरहसे श्वेतांबरीय कदापि नहीं हो सक्ता ! इधर इसविषयमें श्वेतांबरोंका कहना है कि श्रीउमास्वातिवाचकजीने " शुभः पुण्यस्य" और "अशुभः पापस्य " इन दोनों सूत्रोंसे पुण्य और पापतचको दिखाकर पुण्य और पापको तत्व ही माना है, इतना ही नहीं, किन्तु " सम्यक्त्व हास्यरतिपुंवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यं" और "शेष "पाप" ऐसा कहकर पुण्य और पापके फल भी स्वतंत्र दिखाये हैं. तो फिर श्रीमान्ने पुण्य और पापको तत्वही नहीं माना, ऐसा कैसे कहा जाय ? अलबत्ता इतना जरूर है कि श्रीमानने जैसी जीवादिकी स्वतंत्र तरीके तत्त्वमें गिन्ती की, वैसी पुष्प और पापतत्वकी नहीं की, किन्तु इसमें विवक्षा ही मुख्य है, क्योंकि श्वेतांवरशास्त्र ठाणांग, पनवणा, अनुयोगद्वार आदिमें सामान्य ? For Personal & Private Use Only * • Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) से जीव और अजीव इन दोनोंकोही तत्व या द्रव्य तरीके दिखाये है, तो क्या स्थानांग आदिमें ही अन्यत्र कहे हुए आश्रवादिको वहां तत्व नहीं माना हैं ? अवश्य माना है. इसी तरह इधर भी पुण्य और पाप की विवक्षा पृथक् तस्म तरीके नहीं की है, किन्तु श्रीमान्ने पुण्य और पापको तत्त्व अवश्य माने हैं. अतः यह शास्त्र सात तव काही प्रतिपादन करता है इससे श्वेतांबरोंका नहीं है, ऐसा कहना अकलमंदी का काम नहीं है, परस्पर विभक्त सात ही तय है. पुण्य और पाप आश्रवकी भीतर है, आश्रवादि जीवाजीवके मिश्रित है, स्वतंत्र पुण्यादिका तरह भेदरूप नहीं है. इसी तरह आलोचनादि प्रायश्चित्त भी नौ ही दिखाये याने श्वेतांबरोंने माना हुआ परांचित नामक प्रायश्चित्त इसमें नहीं दिखाया. इससे यह ग्रंथ श्वेतांबरोंका नहीं है ऐसा कहना भी भोलापन ही है, क्योंकि छेदनामक प्रायश्चित्तम छेद और मूलकी एकही प्रायश्चित तरीके विवक्षा होसकती है. अतः छेद और मूलकी विवक्षा न की. कारण यह है कि साघपनके पर्याय में कुछ अंश काटा जाय उसको छेद और सब पर्याय काटा जाय उसको मूलप्रायश्चित कहते हैं, अर्थात् दोनों प्रायश्चित्तों में छेद होनेसे छेदतरीके मानने में कोई हरजा नहीं है. इसी तरह अनवस्थाप्यप्रायश्चित्तमें अमुक समय तक महाव्रतका आरोम नहीं करना यह तत्व है, और परिहारका भी यही तत्व है. उपस्थापवादका अर्थ स्थिति करना होता है. ऐसे ही पारां चिकका अर्थ भी प्रायश्चित्तका दीर्घकाल से पार करके For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) उपस्थित होनेका है. याने जिसशास्त्र में दसप्रकारका प्रार श्चित कहा है उसमें और इसमें फर्क नहीं होता है, कितने आचार्य उपस्थापनामें ही अनवस्थाप्य और पाराचिक नि हैं, वो उन दोनोंमें भी उपस्थापनाकी क्रिया दुबारा करने पडती है. इस हिसाब से भी इसमें क्या हर्ज है ? । तत्रकी औ प्रायश्चित्त की विवक्षा अलग रीतिसे करनेमें ग्रंथभेद नह गिना जाताः पाचिकप्रायश्चित्त चतुर्दशपूर्वी कोही होता है किन्तु श्रीमान् उमास्वातिज के समय में चोदह पूर्व विद्यमा नहीं थे. अत: इस हिसाब से भी पारांचिक नहीं गिना हो तब भी क्या ताज्जुब ! / इसीतरहसे कितनेक दिगंबरोंका ऐसा कहना है ि तने लोकान्तिक नौ माने हैं, किन्तु इस तत्त्वार्थमें जे श्वेतांबर्सेका सूत्र पाठ हैं उसमें सिर्फ आठही में गिनायें है. अत पाया जाता है कि इससूत्रको श्वेतांबरोंने बिगाड दिया है किन्तु ऐसा कहनेवालों को सोचना चाहिये कि जब श्वेतांबरों के स्थानांग, भगवतीजी, ज्ञातधर्मकथा आदिमें लोकान्तिक देवके नौभेद स्पष्टतया माने गये हैं तो फिर श्वेतांबर लोग इधर नौभेदके स्थान में आठ भेद क्यों करे ? । असल बात तो यह है कि उमास्वातिजीने ब्रह्मलोकके मध्य में रहनेवाले, रिष्ठवि मानकी विवक्षा नहीं करके सिर्फ कृष्णराजी में और ब्रह्मलोकके सभामके शिवाय यानें अंत में रहनेवालों को ही इधर लोकगे 1 For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में रहनेवाले एसा. स्पष्ट शब्दार्य लेकर आठही मेद लोकाविकसन्दसे लिये हैं. याने लोकके अन्तमें रहनेवाले लोकान्तिक बाजाय इस व्युत्पत्तिसे निर्देश है, याने आठका रहना ब्रह्मादेवलोकके आखिर में है, इससे उनकोंही लोकान्तिक लिसे है. शिक अपत्तिअर्थकी अपेक्षासे कहा हुआ पदार्थ तत्त्वका घातक नहीं हो सकता । श्वेतांबरोंने अपने मजहबके अनुकूल पाड़ करने का नहीं रखा, परन्तु जैसा पाठ था वैसी ही मान्यता रसी और व्याख्या की है।) सी. इस तरह दिगंबरोंके श्वेतांबरों पर इस सूत्रके श्वेतांबरपने बिलवमें जोर कटाक्ष थे, वे इस लेखद्वारा दिखाये हैं, और उनका माधान भी श्वेतांबर जिस तरहसे करते हैं वैसा किया गया है। * कितनेक दिगम्बर लोग यह भी कह देते हैं कि नव सूत्रों सतनय मानने पर पांच नय क्यों माना ? को! आवश्यक, विशेषआवश्यक वगैरह देखते सा है कि नयके भेद दो भी हैं, और तीन भी है चार र पांच भी है छ भी हैं और सात मी हैं, याने नरके मेवानवा यह भी श्वेतांबरोंके शास्त्रसे प्रतिकूल नहीं है। जिस प्रकार दिगंबरोंने श्वेतांबरों के प्रति तत्वार्थ राग नहीं है, ऐसा बतलाने के लिये शंकाएं की। Todकी, वर्कसे भी दिगंबरों के प्रति बहर नहीं है, यह दिखाने के लिये को For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) शंकाएं की जाती हैं. अतः उनमेंसे कितनीक यहां पर दर करने में आती हैं. ये शंकाएं केवल मान्यताके विषयमेंही हैं, किन् पाठभेदके विषयमें तो जो विचार करना है वह इन शंकाओं कों जताने बाद आगे पर करेंगे। । (१) यदि इससूत्रके कर्ता श्वेतांवर नहीं होते तो अवधि और मनःपर्यवज्ञानके भेदमें विशुद्धिआदिमे दोनों ज्ञानका जे फके बतलाया है उसमें अव्वल तो लिंग याने वेदसे फर्क बताना चाहिये था. क्योंकि श्वेतांबरोंके हिसाबसे जैसा अप्रमत्तसाधुको मनापर्यवः ज्ञान होता है वैसा ही अप्रमत्तसाध्वीको भी मनःपर्याय ज्ञान होताही है, अतः श्वेतांबरोंके हिसाबसे दोनोंही वेदवाले अवधि और मनःपर्यवकी योग्यतावाले हैं. इससे उनके हिसाबसे वेदका.फर्क दिखानेकी कोइ आवश्यकता नहीं है, किन्तु दिगंबरोंके हिसाबसे साधुओंको अप्रमत्तता होती है और उनको मन:पर्यवज्ञान भी होता है, लेकिन स्त्रीवेदवाले जीवको साधुपना ही नहीं होता है, तो फिर मनःपर्यवज्ञान तो होवे ही कहां से? जब मनःपर्यवज्ञान. पुरुषवेदवालेकोही होवे और स्त्रीचेवाले. को नहीं होवे तो इस सूत्रमें पुरुषवेदस्वामित्वका फर्क, जरूर दिखाना चाहिये था. क्योंकि अवधिज्ञान तो स्त्रियोंको भी होता है ऐसी दोनों ही संप्रदायोंकी मान्यता है । . दूसरी बात श्वेतांबरी यह भी कहते हैं कि यदि दिगंबरोंके हिसाबसे बायसंसर्गरहितको ही केवलज्ञान होने और मन: Vain Education International For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) पर्यवज्ञान भी निग्रंथत्वप्रतिपत्तिमें ही होवे याने बाह्यसंसर्गरहितपनेमें ही होवे, तो फिर यह अवधिज्ञानका फर्क केवल और मन:पर्यव दोनोंके ही साथ रहा, किन्तु स्वामीपनसे केवल मनःपर्यवके साथ नहीं. और यह बात सूत्रकारने दिखाई ही नहीं है । श्वेतांबरोंके हिसाबसेतोरजोहरणादि बाघलिंग या त्यागरूप बाधलिंग वालाही जीव मनापर्यवका मालिक होता है, किन्तु अवधि या केवलज्ञानका तो चाहे वह त्याग लिंगकाला हो या बिना लिंग का हो. दोनोही मालिक होसकते हैं. अतः इधर अवधि मनःपर्यावके फर्क में स्वामीशब्द लिया है, लेकिन आगे केवलमें नहिं याने अवधिसे मनःपर्यायका फर्क दिखाया लेकिन केवल का न दिखाया और इससे यह सूत्र श्वेतांबरसंप्रदायकाही है, लेकिन दिगम्बरसंप्रदायका नहीं है। (२) चारनिकायके देवोंके भेद दिखाते समय ग्रंथकारमहाराजने स्पष्टरूपसे वैमानिकके भेदोंमें कल्पोपन्नतकके १२ भेद ही गिनायें हैं, याने "दशाष्टपंचद्वादशविकल्पाः कल्पोपपत्रपर्यन्ताः" कहकर वैमानिकके १२ ही देवलोक दिखाये हैं, किन्तु दिगम्बरलोग कल्पोपपन्न १६ भेद मानते हैं. पाठकों ! यदि ग्रंथकार महाराज दिगम्बरमजहबके होते तो " दशाष्टपंचवोडशविकल्पाः कल्पोपपत्रपर्यन्ताः" इस प्रकार सूत्रकी रचना करते । किन्तु १६ भेद देवलोकके नहीं दिखाते सिर्फ १२ ही भेद दिखाये हैं, अतः निश्चय होता है कि यह सूत्र श्वेताम्बरआचार्यका ही बनाया हुआ है। " AN For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २०) (३.) श्रीमान्ने वैमानिकदेवोंकी लेश्या, प्रवीचार और स्थिति के लिये जो जो सूत्र बनायें हैं वे दिगम्बरसंप्रदायक माने हुए १६ देवलोकके हिसाबसे प्रतिकूल हैं, किंतु के सब श्वेताम्बरके माने हुए। १२ देवलोकके हिसाबसे ही अनुकूल हैं. देखिये ! दिगम्बरलोग. १ सौधर्म २ ईशान ३ सनत्कुमार ४ माहेन्द्र ५ ब्रह्म ६. ब्रह्मोत्तर ७ लांतब ८ कापिष्ट ९ शुक्र १० महाशुक्र.११ शतार १२.सहस्रार १३ आनत १४ प्राणत१५ आरण और १६. अच्युल. इस प्रकार.१६ देवलोक मानते हैं. अर्थात् ब्रह्मोत्तर, कापिष्ट, शुक्र और शतार इन चारको ज्यादा मानते है.अन इधर श्वेतांबरोके हिसाबसे लांतकदेवलोकके देवसे आगेके सब देवलोकवाले देवोंकी शुक्ललेश्या होती है. पहिले और दूसरे देवलोकके देवताओंकी पीत याने तेजसलेश्या,तीसरे चौथे और पांचवें ये तीन देवलोकवाले देवोंकी पद्मलेश्या और शेष लांतकादिदेकोंको शुक्ललेश्या ही होती है. और इसी मुताविक सूत्रकारने भी"पीतपत्रशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु" इस सूत्रसे खुलंखुल्ला बतला भी दिया है. अब उधर दिगम्बरलोग शुक्ललेश्या कापिष्टसे मानते हैं किन्तु कापिष्टसे पेश्तर तो पांच देवलोक नहीं हैं, किंतु सात है इसका क्या होगा?,तब यहां पर इनकी बोलती बंद होजाती है. कितनेक देवलोकमें जबरन लेश्याका मिश्रपन मान लेते हैं. इससे साफ २ सिद्ध होगया कि लेश्यांके हिसाबसे भी श्वेतांबरोंके ही अनुकूल ग्रंथकारमहाराजने सिर्फ १२ ही देवलोक माने हैं. For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) इसी तरह प्रविचारके विषयमें भी श्वेतांबरोंके हिसाबसे दूसरे देवलोक तक तो मैथुनक्रिया कायासे है । बादमें दो देवलोक तक स्पर्शसे, फिर आगे दो याने ५.६ में शब्दसे ७-८ में रूपसे और आगे ९-१०-११ १२ इन चारदेवलोंकों में सिर्फ मनस ही प्रविचार है. अर्थात् दो दो देवलोकमें क्रमसर एक एक बात लीमई है । अब इस स्थान पर दिगम्बरोंको१६ देवलोकके हिसाबसे मोटाला करना पडता है.क्योंकि देवलोक शेष रहे हैं१४ और विषय रहे हैं ४ स्पर्श, रूप, शब्द और मन. इसलिये दो दोका क्रम भी नहीं मान सकते है कारणकि १४ में चार विभाग करना जरा मुश्किल है यदि दिगंबरों की मान्यता मुजब अनियमित क्रम होता तो सूत्रकारको अलग २ सूत्र करने पडते कि अमुक अमुकप्रविचार और अमुक अमुक. किन्तु ऐसा नहीं करतें समान विभागहोनेसे ही सूत्रकारमहाराजने अलग २ सूत्र नहीं करके सिर्फ एकही सूत्र किया और दो दो देवलोकोंमें एक एक बात दिखादी ___ यहां पर पाठकोंको इतनी शंका जरूर होगी कि श्वेतांबसें के कहने मुताबिक १० देवलोकमें,४ विषयकी सत्ता माननी है और दोदोंमें एकएक विषयभी मानना है तो यह कैसे होसत्ता है ? यह शंका भी. बेबुनियाद है, क्योंकि सूत्रकार श्रीउमास्वाति महाराजने. ही आनत और प्राणतका आरण और अब्दुतका स्वास दिखाकर दोनोंका निर्देश एकही साथ किया For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) है. अतः चारोंही देवलोककी दो देवलोक तरीके गिनती करने में कोई आपत्ति नहीं हो सक्ती क्योंकि.स्पर्शादि३ विषयके ६देवलोक और मनके विषयमें ४ देवलोक मानकर ४ विषयमें १० देवलोक मानना ग्रंथकारकेही हिसाबसे होगा. ". इसी तरह स्थिीतके विषयमें भी माहेन्द्रदेवलोकसे आगे ७ सागसेपमकी स्थिति पेश्तर नो साधिक दिखलाई, बाद तीन, सात, नौ, सतरा, तेग और पंद्रह सागरोपम एक एक देवलोकमें बढाकर अन्तमें आरणाच्युतकी २२ सागरोपमकी स्थिति लानेका श्रीमान्उमास्वातिवाचकजीने ही कहा है. अब श्वेतांबरोंके हिसाबसे ५-६-७.८ के चार और ९-१०-१११२. के दो, यों करके ६. भाग बराबर होजावेंगे, क्योंकि खुद शास्त्रकारनेही आगेके सूत्रों आरणाच्युतावं' ऐसा कहकर आरण और अत्युतको एकही गिननेका फर्माया है. दुसरी बात यह है कि जैसा आरणाच्युतका निर्देश देवलोकके क्रम सूत्र में एकविभक्तिसे है वैसाही आणत और प्राणतका निर्देश भी एक ही विभक्तिसे है, इससे इन चारों दोदोको एक एक देवलोक. सरीखे गिन सक्ते हैं. अतः श्वेतांबरोंकी १२ देवलोककी मान्यता मुताबिक वो यह ठीक बैठता है, किन्तु दिगंबरोंको १६ देवलोक माननेसे हाथ पैर लगाना पडते हैं. इससे कबूल करना ही पडेगा कि यह तत्वार्थसूत्र श्वेतांबरों की मान्यतावाले आचार्यनेही बनाया है. For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) इस सूत्रका सारा ही चौथा अध्याय श्वेतांबरोंकी मान्यता मुजबका है, और दिगंबरों की मान्यतासे खिलाफ है. तबही तो दिगंबराचार्य श्रीमान् अमृतचंदजीने इसी तत्वार्थस्त्रपस्से "तत्त्वार्थसार" नामक जो ग्रंथ बनाया है. उसमें और और अध्यायोंपर तो अच्छीतरहसे खुलासा और विस्तृत बयान दिया है, लेकिन उनको इस अध्यायके लिये तो बहुत ही संक्षेप करना पड़ा। .. (४) पांचवें अध्यायमें द्रव्य कहनेके समय श्रीमान्ने "द्रव्याणि च जीवाश्च' कहकर धर्मास्तिकायादि चार अजीव और पांचवां जीव इन पांचोंको द्रव्य कहा है. दिगंबरोंके हिसाबसे कालभी एक नियमित द्रव्य है, किन्तु श्वेतांबरोंके हिसाबसे काल अनियमित द्रव्य है, और यही बात श्रीमानउमास्वातिवाचकजीनेभी इधर पांचको नियमित द्रव्य है ऐसा दिखाकर कालको अनियमितद्रव्य दिखानेके लिये आगे पर "कालश्चत्येके" ऐसा कहा, याने कितनेक आचार्य कालको भी द्रव्य मानते हैं, ऐसा कहकर कालका अनियमितपना स्पष्ट दिखाया है. यदि यह ग्रंथ दिगंबरआनायका होता तो इधर कालका स्पष्टरूपसे नियमितद्रव्यपना दिखाते. दिगंबरोंने "कालश्च" ऐसा सूत्र रखा है, किन्तु यह साफ २ समझमें आसकता है कि यदि ग्रंथकार कालको नियमित द्रव्य गिनते तो फिर "कालश्च" ऐसा अलग सूत्र अलग स्थानों थीं For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) धरते ? यदि श्रीमान् के हिसाब से काल यह नियमितद्रव्य होता तो पेश्वरस ही द्रव्य के साथ मिला देके 'द्रव्याणि जीवकालौ च' ऐसा या 'द्रव्याणि जीवाः कालश्व' ऐसा सूत्र करते और अलग अलग सूत्र करने की जरूरतही नहीं थी. अतः माननाही होगा कि इसशास्त्र बनानेवाल आचार्य श्वेतांबर ही थे । ( ५ ) दिगंबरलोग कालके भी अणु मानते हैं और उसका प्रमाण लोकाकाशके याने धर्माधर्मास्तिकाय के प्रदेश जितना असंख्यात मानते हैं. यदि श्रीमान् उमास्वातिजी दिगंबर संप्रदायके होते तो जैसा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीव और पुद्गल के प्रदेश गिनानेके लिये "असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मयो." इत्यादि सूत्र बनाये, वैसाही कालके अणुओंकी संख्या भी बताने के लिए सूत्र बनवाते, या 'धर्माधर्म कालानां ' ऐसा कह देते किन्तु किसी भी स्थानमें कालके अणुकी सत्ता या संख्या नहीं दिखाई. इससे भी स्पष्ट जाहिर होता है कि इस ग्रंथ के कर्ता श्री उमास्वातिजी दिगंबर आम्नायके नहीं, किन्तु तांबरआनायके ही है । • + ** (६) दिगंबरोंके हिसाब से भी सामायिक और पौषधमैं साधका त्याग तो जरूर ही मानना पड़ेगा. और उनके हिसाब वस्त्रादिकमी सावध हैं, तो फिर सामायिक, पौषधवालको सैस्तारोपक्रमण याने प्रमार्जन प्रत्युप्रेक्षण क्रिया किया बिना संथारा पर बैठना यह अतिचार है सो कैसे होगा ? For Personal & Private Use Only * Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) कारण कि पेश्तर तो प्रमार्जन करनेके साधनको ही उपकरण ही नहीं मानेंगे तो उपकरण कहांसे होगा? कि जिससे सामायिक, पौषधवाला प्रमार्जन करेगा। यदि कहा जाय कि श्रावकको सावधका या परिग्रहका सर्वथा त्याग, नहीं है. जिससे सामायिक पौषधवाला प्रमार्जनका साधन रख सकता है, किन्तु यह कहना भी उचित नहीं माना जाता. क्योंकि श्रावकको सामायिक, पौषधमें अनुमोदनकी प्रतिज्ञा नहीं है, परंतु सावंद्य एवं परिग्रहकी करणकारणविषयमें कुछभी छुट्टी नहीं है, तो फिर ऐसीस्थिति सामायिक, पौषध करनेवाले श्रावक उपकरणहीच नग्न ही होने चाहिये। यदि सामायिक, पौषधमें ऐसा. नगपना माना जाय तो सामायिकपौषधकी योग्यता तो दिगंबरलोग पुरुष और स्त्री दोनोंहीकों. मंजूर. करतही हैं, तो क्या स्त्रियां भी नग्न होकर सामायिक कर सकती हैं. यदि कहा जाय कि जिसको सामायिक, पौषध करना हो वह चाहे पुरुष हो या खी, नग्न होना ही चाहिये, तो फिर मानना ही पडेगा कि जब स्त्रियां बिना वनके ठहरं सकती हैं तो उन्हींको साधपना आने में क्या हर्ज है ? और जब साधपने में कोई हर्ज नहीं है तो फिर उनको केवलज्ञान और मोक्ष भी होने में क्या हर्ज है ? असल बात तो यह है कि ग्रंथकारमहाराजने वेतांबरही होनेसे संस्तारकको परिग्रह.न: माना और इसीलिये मजकके विविध त्रिविध त्यागी श्रावक श्राविकाको सामाजिक For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौषधमें संस्तारक रखनेका और प्रमार्जन के लिये उपकरण रखने का निर्देश किया है. ... कितनेक दिगंबर लोग यह कहते हैं कि हम मोरपीछी रखते हैं इससे प्रमार्जन करेंगे, किन्तु यह व्यर्थही है, क्यों कि पेश्तर तो गृहस्थलोग सामायिकमें पीछी रखते ही नहीं, यदि मान लिया जाय कि दिगंबरसाधुकी तरह दिगंबरगृहस्थलोग भी पछी रखेंगे तो यह भी प्रमार्जनके लिये उपयोगी नहीं होगा, क्योंकि शरीर और पैरके चोरस नापसे ज्यादा नापकी कोई चीज होवे तबही प्रमार्जनमें जीवदया होसके, याने रजोहरणादिउपकरण जिस प्रकार श्वेतांबरलोग रखते हैं वैसा रखनेका ही शास्त्रकारको सम्मत है. अतः यह शास्त्र श्वेतांबरआनायका ही है । .५(७) पाठकों ! दिगंबरोके हिसाबसे जो कोई साधु बीमार हो तो उसकी वैयावच्च दूसरा साधु नहीं कर सकता है, कारण कि न तो उनके साधुके पास पात्र रहता है कि जिससे वो ग्लानसाधुको आहार पानी या औषध लादे, और न वस्त्र कंबल आदि ही होते हैं कि जिससे वो ग्लानसाधुको संथारा ही कर दे, अथवा जाडेका बुखार हो तो उस बीमारको ओढनेको दे सके. आखिरकार उन लोगोंने यहां तक माना है कि गृहस्थोंमें ही पोष्यपोषकव्यवहार हो सके, साधुमें तो निर्गथपना होनेसे पोष्य-पोषकव्यवहार होता ही नहीं. ऐसी हालतमें बीमारकी हिफाजत करनेका कहां से माने १. अर्थात् इन लोगोंके For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) हिसाब से साधुको शिष्य तो बना देते हैं, लेकिन वह जब बीमार होता है तो वह गृहस्थोंको सौंप दिया जाता है, और गृहस्थलोम उस बीमारसाधुकी हिफाजत करके उसे आरोग्य करते हैं. ऐसी स्थितिमें दिगंबरों के हिसाब से वैयावच्च करना कैसे बने ? असल में विनय और भक्ति तो परस्पर साधुओंमें माननेमें हरज नहीं है, लेकिन उपकरण माननेकी फरज आ पडे इससे परस्पर पोष्यपोषकभावके नामसे वह उडा दिया, यद्यपि संयत में पोष्यपोषकभावभी हरज करने वालाही नहीं है. और वेयावच्च तो ग्रन्थकार महाराजने तीर्थकरनामकर्मके आश्रवमें और अभ्यन्तरतपमें जताया ही है । इधर तो उमास्वातिवाचकजीने तीर्थकर नामकर्मका कारण गिनाते वैयावच्चको तीर्थकरने का कारण दिखाया है और तीर्थकरनामकर्मका बांधना साधु एवं श्रावक दोनोंहाको सरीखा रखा है, याने साधुकों तीर्थकर नामकर्मबंधी मनाई नहीं की, तो ऐसी स्थिति में याने साधुको माया अच्छे साधुकी वैयावच्च और बरदास्त करनेसे तीर्थकरनाम बांधने का कहने वाले ग्रंथ-लेखक श्वेतांबर संप्रदाय के ही हो सक्ते हैं। वैसेही मुहपत्ति न होनेसे द्वादशावर्त्तवन्दन नहीं होगा और वह नहीं होने से आवश्यक प्रतिक्रमण नहीं होगा । (८) दिगंबरोंके हिसाब से कोई भी चीज साधुको रखना मना है तो फिर अदत्तादानका विरमण क्यों है, अर्थात् आदान- ग्रहणमात्रसे विरमण होना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) ( ९ ) दिगंबरों के हिसाब से वस्त्रादिकका लेना और धारण परिभोग यह सबही परिग्रह है, अर्थात् ग्रहण ही परिग्रह है, तो फिर उनके हिसाब से तो " ग्रह" से ही विरमण मानना चाहिये, याने "परि" उपसर्ग लगानेकी क्या जरूरत थी ? • १० ) दिगंबरोकों सिवाय शरीरके दूसरा कुछ माननाही 'नहीं है तो फिर ये लोग साधुके एषणा और आदाननिक्षेपसमिति कैसे मानेगें ? क्योंकि पात्रादि नहीं रखने से उनके साधुओंकों एक ही गृहेस आहार कर लेना पडता है. जब एक गृहमें ही भोजन कर लेनेका हैं तो फिर एकगृहान्न छोडना और माधुकरी वृत्ति करना यह कैसे रहा? जब माधुकरीवृत्ति ही नहीं रहेगी तो फिर एषणासमिति कहां रहेगी ?. जिस तरह पौत्रादिक न होनेसे एषणासमिति नहीं बनसक्ती उसी तरह आदाननिक्षेपसमिति भी नहीं बन सक्ती है । क्योंकि कोई भी वस्तु उठाना या धरना उसको प्रत्युपेक्षण और प्रमार्जन 'करके उठाना या धरना उसका नाम आदाननिक्षेपसमिति ' है.. अब इधर सोचना चाहिये कि जब प्रमार्जन करनेके लिये 'न तो रजोहरणादि हैं और न उठाने धरनेकी कोई वस्तु ही है, तो फिर आदाननिक्षेप समिति उनलोगों के मजहब से कैसे बनसक्ती है ? | यथायोग्य उपकरण नहीं होने पर यदि रात्रिमें पेशाब या टट्टी जानेका मौका आजाय तो यतना किस तरहसे की जा सके ? क्योंकि लंबा और बडा रजोहरण नहीं होने से अंधेरे For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) में चलते २ प्रमार्जन करे किससे ? अर्थात् उपकरण नहीं माननेसे ईर्यासमिति भी अमुक टाइम में नहीं बन सक्ती । इसी तरह दिनमें भी यदि कीटिकादिका समूह निकले, उस समय भी विराधनासे वचना उनको मुश्किल होजाता है. . भाषासमितिमें भी मुखवस्त्रिका नहीं रखनेसे बोलते समय संपातिमादिककी हिंसा नहीं रुक सक्ती. पात्रादिक न होनेस वारिशकी मौसममें भी जलवृष्टि होती रहने पर भी पेशाब, टवीके लिये बाहर जानाही पडेगा. और यदि. साथमें कंबली नहीं होगी तो अपकायके जीवोंकी भी यतना नहीं हो सकेगी। मतलब यह है कि उपकरण नहीं माननेवालकि लिये इर्यासमितिआदिमें से एक भी समिति अशक्य है, और शास्त्रकार तो पांचो ही समितिको साधुपनकी माता तरीके गिनाते हैं। ... (११) दिगंबरों के हिसाबसे जैनमजहब मथुनके शिवाय स्याद्वादरूप होने पर और भावप्राधान्यवाला होने पर भी नग्नपना निरपवाद है याने किसी भी अवस्थामें साधु वस्त्र नहीं रख सक्ता या वस्त्रका संसर्गवाला उच्चतरभाववाला होने पर भी मोक्ष नहीं पा सक्ता ( बाडे या म्हेलका संसर्गकी या वस्त्र सिवाय औरका संसर्गकी हरज नहीं है ) किन्तु श्वेतांबरोंके हिसाबसे शक्ति और अतिशयसंपन्नके लिये साफ ननपना जरूरी है, लेकिन शेष अशक्त और अनतिशायीके लिये संयमरक्षादिका Jain Education international For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन ही उपकरण हैं ! जैसे क्षुधापरिषहको जीतना और आहारकी अपेक्षा नहीं रखना, वैसेही पिपासापरिषहको जीतना और पानीकी अपेक्षा नहीं रखना. यदी शक्ति चले तब आव: श्यक ही है, लेकिन जब अनाहारपने और निर्जल ठहरना नहीं होसके तब शुद्ध आहार, पानीको लेनेपर भी क्षुधा और पिपासापरिषह सहन किया ऐसा कहा जाता है. उसी तरह वस्त्रादिक उपकरणके विषयमें भी संयमादिके लिये शुद्धअल्पमूल्यादिवत्रा. दिक उपकरण रखना नाग्न्यपरिषहजयका बाधक नहीं है, इसी कारणसे तो नाग्न्यकों परिषहमें गिनाया. यदि निरपवाद होता तो इसकी गिनती भी मुख्यत्रतोंमें होती। (१२) पाठकों ! दिगंबरोंकी मान्यता भुजब शीत और उष्ण परिषहब दंशमशक नहीं जीत सके याने शीतस उरके धूपमें आवे या धूपसे डरके छायामें जावे या दंशमशकके भयसे कोसे बहार नीकले तो केवल इतनी सी ही बातपर साधपना चला जाना मानना पडेगा। क्योंकि शुद्धवस्त्रादिक तो उनको मंजूर नहीं है, फिर अग्न्यादिका आरंभ या सरक जाना क्या मंजूर कर सकेंगे?, ख्याल रखना के अग्निका परिभोग साधुको महाबतका बाधक है और अग्न्यादिकके आरंभसे साधपनाका समूल नाश होजाता है। .. (१३ दिगंबरोंकी मान्यतानुसार शय्यापरीषह और निषद्यापरीषह कैसे बन सक्ते हैं ?, यदि शय्यादिके निर्ममत्वसे For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसपरीषहका सद्भाव मानते हैं, सब तो मकान के सद्भाव में जैसे निर्ममत्वभाव साधु रख सक्ते हैं वैसेही तुच्छवस्त्रादिमें अच्छीतरहसे निर्ममत्वभाव क्यों नहीं रहेगा? और शय्यापरीपह और चर्यापरीपह तो वेदनीय और मोहनीयमें गिन गये है, अन्यथा मोहमें गिनत। .. ... (१४) दिगंबरोंकी मान्यतानुसार मुनिमहाराजको कुछ भी नहीं रखना चाहिये ऐसा है तो फिर वेदर्भादितण भी कैसे रख सकेंगे?, और जब तृणका रखना ही नहीं है तो फिर उसका उपयोग ही कहांसे हो सके ? कि जिससे तृणस्पर्शनामका परीषह दिगम्बरोंकी मान्यतासे होवे । ख्याल रखना जरूरी है कि सतुषभी ब्रीहि न पके ऐसा कहकर उपकरणका निषेध किया तो फिर इधर तृणका ढेर कैसे बाधक नहीं होगा? तुप अरु तृणका स्पर्शमें गाढ आगाढका फरक मानें तपतो संसर्गमात्र बाधक नहीं है, किंतु गाढसंसर्गविशेषही बाधक है एसा मानना होगा, याने मूर्छाही नहीं के संसर्गमात्र बाधक मानना होगा असल में तो जैनमजहबसे दृष्टान्तमात्र साधक ही नहीं है। (१५) जब साधुओंको वस्त्रादिक रखनेका ही नहीं है तो फिर वस्त्रादिकसे सत्कार होने पर भी अभिमान नहीं आने ऐसा सत्कार-परीवह सहन करनेकी उनको गुंजाइश ही नहीं है. For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) : पाठकों ! असल मतलब यह है कि शीतोष्ण से लगाकर सत्कारतकके परीषह श्वेतांबरों की मान्यतानुसार ही योग्य हो सकेगें । ( १६ ) ऊपर जितने भी पॉइन्ट बतलाये गये हैं उन सब से बडा पोइन्ट " एकादश जिने" इस सूत्र में है । क्योंकि इस सूत्रमें साफ दिखाया गया है कि श्रीजिनेश्वरमहाराज याने केवली महाराजको ग्यारह परीषह होते हैं, अर्थात् क्षुधा और पिपासापरिषह केवलीमहाराजको भी होता है, लेकिन दिगं के हिसाब से केवलीमहाराज आहार पानी लेते ही नहीं हैं, तो फिर क्षुधा और पिपासाका परीषह उनको कैसे होगा ?, यदि मान लिया कि उपचारसेही क्षुधा और पिपासा - का परीषह कहा है तो स्वरूपनिरूपणके स्थान में उपचारको कौन कहेगा ? और केवली महाराजमें क्षुधापिपासापरीषहका उपचार करनेकी जरूरत भी क्यों ? तुम्हारे मतसे ही एकओर तो आहारादिकको दोषरूप गिनकर केवलज्ञानके बाद आहारादिकका अभाव दिखाना है, और दूसरीओर उपचार से आहारादिकसंभवसे ही होनेवाले क्षुधापरीषहादिक दिखाया जाता है, यह क्या पारस्परिक विरोध नहीं है? जरा इसे सोचिये!, केवलिमहाराजमें उपचारसे कोई गुणका आरोप करके स्तुतिभी करे, लेकिन दिगंबरों के हिसाब से आहारादि जैसा महा दोषका उपचार करनेसे तो हांसलमें केवली महाराजकी निंदा ही होगी, याने आहारादिकको दोष मानके केवली महाराज के ये . For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) दिगम्बरलोग निंदकही बनते हैं, कितनेक ऐसा भी कहते हैं कि इधर एक + अ + दश: ऐसा समास करके एकसे अधिक ऐसे दस नहीं, इस प्रकार अर्थ करना. याने एक दस शब्द से ग्यारह लेना और बीचका जो अकार वह निषेध वाचक होनेसे ऐसा अर्थ होगा कि केवलियों में ग्यारह परीषह नहीं है, पाठकों ! सामान्यबुद्धिवाला आदमी भी यहांपर कह सकता है कि यह अर्थ शास्त्रकार की आत्माका खून करके किया गया है. क्योंकि ऐसा कूट अर्थ न तो शास्त्रकार कहते हैं, और न शास्त्रकारकी ऐसी शैली भी है. तत्त्वार्थ सूत्र में श्रीगणेश से इतिश्रीतक किसी भी स्थान पर किसी भी सूत्रमें ऐसा टेडा अर्थ नहीं किया गया है. तो फिर यहां पर ऐसा टेडा अर्थ क्यों ? चोथे अध्याय में एकादशशब्द है उसका क्या ऐसा अर्थ करते हैं १, कभी नहीं, असल बात तो यह है कि शास्त्रकारनें कोई टेडा अर्थ नहीं किया है, किन्तु इस तत्वार्थ सूत्र के कर्ता ही श्वेतांबरी आचार्य हैं और वे केवलीमहाराजको आहार माननेवाले हैं. इसलिये केवलीमहाराजको क्षुधा और पिपासा परीषद होना गिनकर श्वेतांबराचार्य श्री उमास्वातीवाचकमहाराजने सूत्र में म्यारह ही परीषद कहे हैं. दिगम्बर की. उत्पत्तिके पेश्तर यह सूत्र श्रीउमास्वातीवाचकज़ीने गुणठायेंमें परीषहका अवतार के प्रसंगसे क्यों न किया हो & * अब इधर दिगंबरोंने पेश्तर तो उपकरणोंको उपकरण $ For Personal & Private Use Only י Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . तरीके माननेकी मनाई की. तब एक ओर तो स्त्रीको चारित्र नहीं होता है, ऐसा मानना पडा, और साथमें बन्ध, निर्जरा और मोक्षका संबंध जो परिणामके साथ था उसके स्थानमें मोक्षादिकका संबंध बाह्यलिंगके साथही करना पड़ा, और इसीकारणसे अन्यलिंग और गृहिलिंगसे सिद्ध होनेका उडा कर सिद्धके पन्द्रह भेद भी उडाना पडा. तदनंतर तीर्थकरकेवली गोचरीके लिये नहीं जाते हैं. और पात्रादिकके अभावसे दूसरे भी आहार, पानी लाकर नहीं दे सक्ते हैं. अतः केवली महाराज आहार नहीं करते हैं ऐसा मानना पडा, और इसीलिये इस सूत्रका ऐसा टेडा अर्थ करनेकी दिगम्बरोंको जरूरत पड़ी है। - व्याकरणके हिसाबसें 'एकेनाधिका न दश एकादश' ऐसा करना ही अयोग्य है. मध्यपदका लोप करके कर्मधारय तत्पुरुष करना होगा. नका समास दशके साथ करके अदशशब्दको जोडना होगा और ऐसा करनेसे तो अर्थक हिसाबसे आचार्य महाराजको 'नैकादश' ऐसा करना ही लाजिम है, किन्तु ऐसा अयोग्यसमास और इतना टेडा अर्थ करने पर भी दिगंबरीभाइयोंकी अर्थसिद्धि नहीं हो सक्ती है. क्योंकि परिसह २२ हैं, उनमेसे ११का निषेध करने पर भी शेष११तो रहते ही हैं, याने केवलीमहाराजाओंको११नहीं हो तो भी शेष११तो होयेंगे ही। कभी ऐसा कहा जाय कि श्वेतांबरलोग केवली. महाराजको ११. परिसह मानते हैं उस पक्षको खंडन करनेके For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिये यह सूत्र कहा है तो यह कहना भी लाजिम नहीं हो सक्ता, क्योंकि तुम्हारे ही कथनसे तुमको मंजूर करना पड़ेगा कि तत्त्वार्थसूत्रकी रचनाके अव्वलसे ही श्वेतांबरोंका मजहब था, और उसको तत्त्वार्थकर्ताने खंडित किया, किन्तु ऐसा मानने परभी "नैकादश" ऐसा सूत्र बनाना लाजिम था. अन्य लोगों के हिसाबसे भी११ नहीं मानने पर भी इधर प्रकरण टूट जाता है, क्योंकि११ नहीं है तो कितने हैं यह तो दिखाया ही नहीं है. एक हो, दो हो, यावत् नव हो, या दस हो, तब भी ग्यारह नहीं हैं ऐसा ही कहा जायगा. यदि दश माने जाय तो क्षुधा छोडनी या पिपासा छोडनी उसका नियम नहीं रहेगा. दूसरी बात यह है कि इधर किसमें कितने परिषह है यह दिखानेका प्रकरण चला आता है, क्योंकि बादरसंपरायादिमें सभी परिषह होनेका हिसाब दिखाया है तो फिर इधर ग्यारह परिवह नहीं हैं ऐसा निषेध कहांसे आयगा ? आगे कमें भी परिषहका अवतार करते शास्त्रकारने 'वेदनीये शेषाः' ऐसा कहकर क्षुधापरिषह और पिपासापरिषहका अवतार वेदनीयकम में दिखाया है, और आपके हिसाबसे. मी. जिनराजको वेदनीयकर्म नष्ट नहीं हुआ है, तो फिर वेदनीयमें गिना हुआ क्षुधा और पिपासाका परिषह क्यों न हो ? और जा क्षुधा और पिपासाका परिषह केवलीमहाराजको होना मंजूर करोगे तो फिर बिना आहार और जलपानके के परिषह For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) कहांसे होंगे ? यदि मनमाने परिषह मानना हैं तो फिर केवली महाराज में बावीस ही परिषह मान लेने में क्या हर्ज थी ? तटस्थमनुष्यकों तो यह स्पष्ट मालूम हो जायगा कि आचार्यमाहाराजने जिनेश्वरको ग्यारह ही परिषह माने हैं अतः शास्त्रकार श्रीमान् उमास्वातिवाचकजी महाराज श्वेतांबर पक्षके ही आचार्य थे, न कि दिगंबरपक्ष । ܪ (१७) जिस तरह 'एकादश जिने' यह सूत्र इन ग्रन्थकारमहाराज के श्वेतांबर पनेको साबित करता है उसी तरह महाव्रतोंकी भावना में भी 'आलोकितपानभोजनः' अर्थात् अन्न पानीको देखकर लेना, यह भी श्वेतांबरोंकी ही मान्यतानुसार हो सक्ता है, क्योंकि पात्र के बिना लाना और देखना कैसे हो सके? और बिना पात्रके देखने में तो जमीन पर अन्न पानी गिरपडता है कि जिससे अहिंसाकी पालना भी नहीं हो सक्ती । (१८) शास्त्रकार महाराज यदि दिगंबर होते तो तपस्या के अधिकारमें दिगंबरोंके हिसाब से भी 'विविक्तशय्यासन' नहीं कहते, क्योंकि उन दिगंबरोंके हिसाब से शय्या और आसन रखनेका कहाँ हैं कि जिसके लिये विविक्तस्थान में ये दो करनेका नाम तप कहें । V(१९) फिर भी बाह्य और अभ्यंतर उपधिका याने उपकरणादिक और कषायका त्याग करना अभ्यन्तरतपस्या कही इधर यदि उपकरणादिक रखनेका ही नहीं है तो फिर For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) उसका अभ्यन्तरतपमें त्याग क्यों कहा? और यदि उपधि याने उपकरण महाव्रतका घातकारक है तो फिर तप क्या ? क्या परिग्रहविरमणादिको तप मान सक्ते हैं ? . (२०) यह शास्त्रकार यदि श्वेतांबरी नहीं होते तो 'पुलाकबकुशकुशीलनिग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः' ऐसा सूत्र नहीं करते, क्योंकि बकुशमें उपकरणबकुश वही कहाजाता है कि जो उपकरणका ममत्व याने धोना रंगना करे और आकांक्षा व लोभ उपकरणमें रक्खे. जब इसको तो निग्रन्थ मान लिया तो फिर दिगंबर होवे वही साधु होवे यह बात कहां रहेगी ।.. २१) फिर भी ये सूत्रकार महाराज साधुके विचारमें लिंगका विकल्प कहते हैं. अब दिगंबरों के हिसाबसे तो पुरुष ही साधु होता है, तो वेदरूपलिंगके हिसाबसे भी विकल्प नहीं रहता है. द्रव्यलिंग भी दिगंबरों के हिसाबसे भावलिंगकी तरह नियत है तो फिर वेषरूपलिंगकी अपेक्षासे भी विकल्प कहां रहेगा? याने इस ग्रन्थके हिसाबसे वेदरूप या वेषरूपलिंगमें एकही प्रकार नहीं माना है, किन्तु विकल्प माना है, तो इससे स्पष्ट होजाता है कि ये ग्रन्थकार श्वेतांबरी ही हैं. ख्याल रखना के सिद्धमहाराजकी तरह इधर पूर्वभावप्रज्ञापना नहीं है, किन्तु वर्तमानभावकी ही प्ररूपणा है, (२२) अखीरमें सिद्धमहाराजके विषयमें भी शास्त्रकार लिंगका विकल्प दिखाते हैं तो वहां भी द्रव्यलिंगका अनेका For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) न्तिकपणा मानने से ग्रंथकारका दिगंबरपना उडजाता है, और शास्त्रकार श्वेतांबरी ही है ऐसा साबीत होता है. ऊपर दिखाये हुए कारणोंसे इस तत्त्वार्थ सूत्र के कर्ता श्वेतांबराम्नायके ही हैं ऐसा मानना होगा. इस विषय में किसी भी विद्वान्को कुछ भी शंका समाधान करना होवे तो शान्तिसे पक्षपात छोडके खुशी से करे, क्योंकि दोनों पक्षोंकी दलील सुनने से ही सत्य का निश्चय करना सुगम होता है. * इस तत्रार्थसूत्रको दोनों सम्प्रदायवाले मंजूर करते हैं, लेकिन दोनों सम्प्रदाय में सूत्रमें कितनाक भेद है, सारे तत्वार्थ में श्वेतांबरोंके * हिसाबसेही अनुक्रमसे दशों ही अध्याय में ३५५३-१८-५४-४४-२६-३४-२५-५० और ७ सूत्र हैं, याने संपूर्ण तत्वार्थ में ३४६ सूत्र हैं. तब दिगंबराम्नायके तत्त्वार्थमें क्रम से दश अध्यायमें ३३-५३-३९-४२-४२-२७-३९ २६-४७ और ९ सूत्र हैं, याने सब सूत्र ३५७ हैं, अर्थात् दिगंबरोंके हिसाब से सर्वसाधारण में ग्यारह सूत्र ज्यादे हैं. कौन अध्याय में श्वेतांबरोंके. आम्नायसे ज्यादे सूत्र हैं और कौन अध्यायमें दिगम्बराम्नायसे ज्यादे सूत्र हैं. कौन कौन सूत्र किस किस अध्यायमें कौन कौन मजहब में ज्यादा हैं वह निम्नलिखित कोष्ठकसे मालूम होगा. सूत्रका विशेष. For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९ ) .३ १२ or mom ० no ० अध्य. सू. . श्वे, १ २१ द्विविधोऽवधिः .१ ३५ आद्यशब्दौ द्वित्रिभेदी . '२ १९ उपयोगः स्पर्शादिषु .. २ ५२ ... शेषालिवेदाः हेमार्जुनतपनीयवैडूर्यरजतहेममया: ३ १३ . मणिविचित्रपार्था उपरि मूले च तुल्य विस्ताराः पद्ममहापद्मतिगिञ्छकेसरिमहापुण्डरी कपुण्डरीका ह्रदास्तेषामुपरि प्रथमो ये जनसहस्रायांमस्तदर्धविष्कभो हदः दशयोजनावगाहः ३ १७ . तन्मध्ये योजनं पुष्कर ३ । १८ . तद्विगुणद्विगुणा हताः पुष्कगणि च तन्निवासिन्यो देव्यः श्रीह्रोधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्योपमस्थितयः सामा मानिकपरिषत्काः ३ २० . गंगासि धुरोहिद्रोहितांशाहरिद्धरिका न्तासीतासीतोदानारीनरकान्तामुवर्णरूप्यकूलारक्तारतोंवादा:सरितस्तन्मध्यगा: ० ० no no nom ० ० For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) ० س ० س ३ २५ ० . س अध्या. सू. ३ २१० द्वयोर्द्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः ३ २२ शेष स्त्वपरगाः चतुर्दशनदीसहस्रारिवृताः गंगासिंवा दयो नद्यः . भरतः षड्विंशतिपंचयोजनशत विस्तार: षट् चैकोनविंशतिभागा योजनस्य तद्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षी वि. देहान्ताः २६० उत्तरा दक्षिणतुल्या: .. ३ : २७ २७ . भरतैरावतयोवृद्धिहासौ षट्समयाभ्या मुत्सर्पिण्यवसार्पणीभ्याम् ३ २८ ताभ्यामपरा भूमयोऽस्थिताः ३, २९ . एकद्वित्रिपल्योपमस्थितयो हैमवतकहा रिवर्षकदैवकुरुवकाः तथोत्तराः विदेहेषु संख्येयकाला: भरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य नव. ...तिशतभाग: ४. ७ पीतान्तश्या: ४ २३ उच्छ्वासाहारवेदनोपपातश्च साध्या: . سه سه ० ० ० ० For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ० ० ० ० अध्या . सू. श्व ४ ३० स्थितिः ४ ३१ भवनेषु दक्षिणार्धाधिपतीनां पल्यो- पममध्यर्ध ४ ३२ शेषाणां पादोने ४ ३३ असुरेन्द्रयोः सागरोपममधिकं च ४ ३४ सौधर्मादिषु यथाक्रम ४ ३६ अधिके च ४ ३७ सप्त सनत्कुमारे ४ ४१ सागरोपमे ४ ४२ अधिके च ४ ५० ग्रहाणामेक ४ ५१ नक्षत्राणामधं ४ ५२ तारकाणां चतुर्भागः : ४ ५४ चतुर्भागः शेषाणां ४ २८० स्थितिरसुराणां ४ ४२ . . लोकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सः . षाम् ५ ३ . . जीवाश्च जीवस्य च . . .. . ५ २९ ...... सद् द्रव्यलक्षणं. .. ० ० ० ० ० s For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) 6.00 6 अध्या. सू. श्वे. ५ ४२ अनादिरादिमांश्च ५ ४३ रूपिष्वादिमान् ५ ४४ योगोपयोगी जीवेषु ६ ४ शुभः पुण्यस्य स्वभावमार्दवं च सम्यक्त्वं च वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणासमित्यालो. . कितपानभोजनानि पंच क्रोधलोभभीरुत्वहास्य प्रत्याख्यानान्यनु. ___वीचीभाषणं च पंच शून्यागारनिसेवितावासपरोपधाकार भैक्ष्यशुद्धिसधर्माविसंवादाः पंच स्त्रीणां कथाश्रवणतन्मनोहरांगनिरीक्ष गपूर्वरतानुस्माणबध्येषरसस्वश रीरसंस्कारत्यागा: मनोज्ञामनाज्ञन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जना नि पंच ९ २८ प्रामुहूर्तात् ९. ३८ उपशान्तक्षीणकषाययोश्च ९ ४० पूर्वविदः 2 6 ० 6 For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) अध्या. सू . श्वे. १० ३ कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः १० ४ अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः ० आविद्धकुलालचक्रवव्यपगतलेपालाबु वदेरण्डबीजवदानिशिस्वापवञ्चेति १० ८ ०. धर्मास्तिकायाभावात् ०१७ * * पाठको ! ऊपर दी हुई सूचिसे आपको () आधिक मालूम हो गया होगा कि श्वेतांबरों और दिगसूत्रोंकी भी बराम कौन २ सूत्र किस २ अध्यायमें किस * किस जगह ज्यादह या कम हैं। अब यहां पर जरा सोचनेकी जरूरत है कि दर असलमें सूत्रकारके बनाये हुए सूत्र किस सम्प्रदायनें तो उडाये और किस सम्प्रदायने अपनी ओरसे नये सूत्र बनाकर घुसेड दिये ? ____यद्यपि यह बात संपूर्णतया तो ज्ञानी पुरुष और सूत्रकार महाराज ही जान सक्ते हैं, तोभी मेरी मान्यतानुसार इस विषय पर तुलना करनेकी जरूरत मालूम होती है । एवं दूसरे विद्वानोंको भी इस विषयपर. अपनी ओरसे समीक्षा करनेकी जरूरत है कि जिससे दूसरे तटस्थलोगोंको भी अपने अभिप्राय स्थिर करनेमें सुगमता हो। For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 88 ) (१) पहिले अध्याय में श्रुतज्ञानके भेद कथन किये बाद श्वेतांबर लोग २१ वें सूत्रमें “द्विविधोऽवधिः " इस सूत्र - को लेते हैं, किन्तु दिगंबरलोग इसको नहीं मानते हैं, और 'मक्प्रस्वयो" कहके सूत्रको शुरू करते हैं. अब इस स्थान पर सोचना चाहिये कि जब शुरूमें अवधिका भेद ही नहीं दिखाया तो फिर "भवप्रत्यय" ऐसा विशेषभेदका निरूपण कहांसे आसक्ता है ? उद्देशरूप सामान्यभेदको कहने के बादी मतिआदिज्ञानरूप प्रत्येक भेद कहे हैं, और मतिज्ञानमें भी इन्द्रियादिभेद कहकरही अवग्रहादि भेद कहे हैं, एवं अवग्रहादि भेदोंके अनन्तरही बहुबहुविधादि भेद दिखाये हैं. और श्रुतज्ञान में भी दो भेद सामान्य से दिखाने के बादही उनके विशेषभेद उसी सूत्र में भी दिखाये हैं. इससे स्पष्ट मालूम होता है कि आचार्यजीकी शैली तो "द्विविधोऽवधि:" इसी प्रकार सूत्रकी रचना करनेकी है. तिसपर भी दिगंबरी लोग मानते नहीं है यह उनकी मर्जी की बात है, पर सूत्रको लोप करना भव - भीरुका कार्य नहीं है. + (२) इसी तरह श्वेतांबर लोग नयके सामान्य पांच भेद मानकर आच और अन्त्य के नयके भेदों को दिखानेवाला "आद्यशब्दौ द्विविमेदौ" ऐसा ३५ वां सूत्र मानते हैं. तरियोंका मन्तव्य है कि यदि एकही सूत्रसे नयकी व्याख्या करनी होती तो " प्रमाणनयैरधिगमः " इस सूत्र के For Personal & Private Use Only . Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) साथही नयकी व्याख्याका सूत्र कर देते। अतः सिद्ध होता है कि ये दोनों सूत्र असलसे ही हैं ।। (३) दसरे अध्यायमें भावन्द्रियके भेदोंमें उपयोगेंद्रियनामक भेदकों तो दोनोंही संप्रदायवाले मानते हैं. और जीवका लक्षण भी उपयोग ही है यह 'उपयोगो लक्षणं' इस सूत्रसे दोनों मंजूर करते हैं, और वह उपयोग तो सबही केवलीमहाराजाओंको भी होता है, अतः इधर उपयोगका स्वरूप दिखानेक लिये स्पर्शादिकविषयकाही उपयोग इधर लेना चाहिये, और यह दिखानेको सूत्रकीभी जरूरत ही है। .. [४] दूसरे अध्यायमें दिगंबर लोग "शेषास्त्रिवेदाः" ऐसा सूत्र मानते हैं, किन्तु श्वेतांवरियोंका कहना ऐसा है कि "गतिकषायलिंग." इत्यादि सूत्र जोकि औदायकके इक्कइस भेदको दिखानेवाला है, उसमें तीन वेद कहे हैं. और इधर नारक और संमूर्छजको नपुंसकवेदही होता हे और देवतामें नपुंसकवेद नहीं होता. जब ऐसे दो सूत्र कह दिये गये तो अपने आप ही निर्णय होगया कि मनुष्य और तिथंच जो गर्भज है वे वेदवाले होनेसे तीनोंही वेदयाले हैं. इस तरहसे अर्थापत्तिसे स्पष्ट बात थी, उसको दिखाने के लिये सूत्रकी कोई जरूरत नहीं है । और ऐसा नहीं मानेंगे तो औदारिकादिक औतपातिक नहीं होता है मसुकको अमुक योनी और अमुक जन्म नहीं है, अमुक सापर्वतनीय आयुष्यवाले हैं, एसा भी सूत्रकारको दिखाना होगा। For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५] तीसरे अध्यायमें दिगंबर लोग १२ वे सूत्रसे हेमार्जुनत्यादि करके इक्कइस सूत्र "द्विर्धातकी खण्डे" इससूत्रके बीचमें नये मानते हैं. सूत्रकी शैलीको देखनेवाले और अर्थको सोचने वाले तो इधर स्पष्टही समझ सक्ते हैं कि ये सब सूत्र दिगंबरीने नये ही दाखिल कर दिये हैं दर असल में तो यह तत्वार्थसूत्र संग्रहग्रंथ है, इसलिये इसमें विस्तारसे कथन करनाही अनुचित है. और यदि कुछ भी विस्तार करना होता तो जीवा धनुःपृष्ठ बाहा प्रपातकुंड परिधि गणितपेद इत्यादिकका कथन करते । किन्तु वर्णनग्रंथकी तरह वर्णन करना ऐसे ग्रंथमें कदापि नहीं हो सक्ता। हिमवदादिपर्वतका वर्ण कहाजाय और उसमें न तो उसका आयाम मान कहा और न शिखरका मान और न शिखरों की उच्चतादि दिखावे, और न शिखरकी संख्याभी दिखलाई, १२ वें सूत्रमें हेमा नेत्यादि कहकर आगंके सूत्र में "उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः" ऐसा कह देना क्या उचित है? क्या सब वर्षधर मानमें सरीखे हैं? कदापि नहीं. तो फिर कुछ भी खुलासा किये बिनाही ऐसा सूत्र कैसे किया?१४वें सूत्र में"तेषामुपरि" ऐसा कहा गया,किन्तु उपरके भागमें यह हद कहां पर है? पूर्व पश्चिम मध्यमें है यह तो जतलाना था, १८ वें सूत्रमें "तद्विगुणद्विगुणा हृदाः पुष्कराणि च" कहा तो इस सूत्रसे दोनें दोनें हद और पुष्कर हैं ऐसा क्यों नहीं होगा? यावत् आयामादिकीही द्विगुणता लेनी, ऐसा कहांसे होगा? यावत् अवगाहमें दोगुना क्यों न होगा.१९ For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) वें सूत्रमें देवियां सामानिक व परिषद्वाली हैं ऐसा दिखलाया गया है, तो फिर सामानिक और पारिषद्यकी संख्या. कहांसे लेनी ? इतनाही नहीं, बाल्क इससे तो नियम हो जायगा कि देवियोंको अभियोग अनीक आत्मरक्षक आदिका अभावही है. २०वें सूत्र में गंगाआदि नदियोंको हिमवदादिके मध्य में रहनेवाली या जानेवाली दिखाई हैं, किन्तु वे वर्षधरमें पूर्वकी ओर जाती हैं या पश्चिमकी ओर ? उत्तरकी ओर बहती हैं या दक्षिणकी ओर ? वर्षधर ६ हैं और नदियां १४ तो व्यवस्था कैसे होगी? और उस व्यवस्थाका सूचक एकअक्षर भी सूत्रमें नहीं दिया गया है, यह बात भी विचारणीय है। इक्कइसवें और बावीसवें सूत्र में पूर्व और पश्चिम जाना कहागया यह कहांतक ठीक है ? क्योंकि गंगा, सिंधु इत्यादि नदियां भरत एरवत दक्षिण उत्तरमें आयगी इसका क्या? और वर्षधरपर भी हरएक नदी अलग २. दिशाओंमें कितनी २ दूर और किस २ दिशामें पीछे बहती है इसका तो इधर कुछ वर्णन . भी नहीं है । तेवीसवेंसूत्र में गंगा, सिंधुका परिवार तो दिखाया, किन्तु और नदियोंका परिवार कितना है ? विदेहके विभाग किससे होते हैं ? उसका प्रमाण क्या है ? इत्यादि बातोंका इधर नाम निशानही नहीं है। २४ और २५ वें सूत्रों में भरतादिकका इषुका विस्तार तो दिखाया किन्न आयाम जीवा धनुःपृष्ठकी बात तो दिखाईही नहीं ॥ २४ और २८. सूत्रोंमें ६ आरके स्वरूपको दिखाते आयुगीर For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) आदिका जिकर नहीं करके भूमिरसादिकी वृद्धि, हानि और अवस्थितता कही गई है, यह कहां तक शोभा देगी.१; इसका. विचार तो अकलमंदही करसक्ते हैं । २९, ३० और ३१ वें सूत्रोंमें स्थिति दिखाई गई है. वहां पर अंतरद्वीय और भरतऐरवतकी स्थितिका जिक्र तक भी नहीं किया गया है, और महाविदेहमें संख्येयकाल कहा गया यहमी कितना अनुचित है?, क्योंकि शीर्षप्रहेलिका भी संख्येयमें है, और महाविदेहमें पूर्वकोटिसे ज्यादा आयुष्यही नहीं है। सूत्र३१ में भरतका विष्कभ तो दिखलाया है, कि तु न तो वैताव्यका नाप.दिखलाया, और न उसकी शिखरसंख्या आदि दिखाये. और न भरतके लिये दक्षिण उत्तर विभाग और मानही बतलाये गये. ये तमाम हालात देखतेही विद्वान्लोग कहते हैं कि ये सब सूत्र दिसंबरियोंनेही आचार्यमहाराजकी कृतिरूप मणि-मालामें कांच दुकडे की तरह दाखिल कर दिये हैं. और उन पंडितोंका कवन हराको भी मंजूर करना पड़ता है, आगे चलकर पंडित लोग कहते हैं कि दिगंबरियोंनेही ३२ वां सूत्र "द्विर्धातकी खंडे' ऐसा रखा है, तो इधर १० वें और ११ वें सूत्र में कहे हुए भरतादि, हिमवदादि वर्ष और वर्षधर तो धातकीखंडमें और पुष्करार्धमें दुबारा हैं यह मान सके हैं, किन्तु इन दिनभरिपों के हिसाबसे तो धातकीखंड और पुष्करार्धमें भरतका भाग द्विगुणा लेना होगा, और यह बात किसीको भी मान्य नहीं For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९ ) हो सक्ती होवे कहां से ?, क्योंकि दिगंबरियोंने स्वयं सूत्र बना कर श्रीमानकी सूत्रमाला में दाखिल कर दिये हैं । चौथे अध्याय में " पतिन्तिलेश्याः " यह सातवां सूत्र दिगंबरियोंकों मंजूर नहीं है जब दोनों संप्रदायवाले भवनपति और व्यन्तरदेवों को कृष्ण, नील, कापोत और तेजो ऐसी चार लेश्या मानते हैं, और यह भी मानते हैं कि ज्योतिष्कदेवको सिर्फ तेजोलेश्या याने पीतलेश्याही है, तो फिर इधर भवनपति और व्यन्तरकी चार लेश्या दिखानेवाला सूत्र क्यों न माना जाय ? दिगंबरियोंने भवनपति और व्यन्तरको लेश्या नहीं मानी है ऐसा तो नहीं है, किन्तु दूसरा सूत्र जोकि "तृतीयः पीतलेश्यः" अर्थात् ज्योतिष्क नामक तीसरीनिकायवाले को तेजोलेश्याही है, ऐसा दिखानेके लिये जो सूत्र था उस स्थान पर दिगंबरियोंनें “आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्याः " अर्थात् आदिकी तीन निकाय के देवोंकों पीतान्तलेश्या होती है, ऐसा सूत्र बनाया है, अब इधर स्पष्टही है कि जब ज्योतिष्कदेवोंकों तेजोलेश्याके सिवाय दूसरी लेश्याएं है ही नहीं, तो फिर आदिकी तीन निकायोंको पीतान्त याने कृष्ण, नील, कापोत और तेजोलेश्याएं हैं, ऐसा कहना कहांसे सत्य होगा ?, और यदि ऐसा गोटाला करनाही है तो फिर ऐसाही क्यों नहीं कह देते कि "देवानां षड् लेश्याः" याने देवोंको ६ लेश्याएं हैं, अथवा सूत्रकी भी क्या जरूरत हैं ? । इससे स्पष्ट होता है कि For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) श्वेतांरियोंने जो असलसूत्र 'पीतान्तलेश्या ः ' ऐसा था वही मान्य रखा है, और वही उचित है । (७) चौथे अध्याय में श्वेतांबरोंने 'स्थितिः' ऐसा सूत्र देवताओं की स्थितिका अधिकारके लिये माना है, तो उधर दिगंबरोंनें उस अधिकार के सूत्रकों उडा दिया है. खूबी तो यह कि पीछेका साराही अध्याय देवतादिकीही स्थितिको प्रतिपादन करता है, ऐसा तो दोनों संप्रदायवाले मानते हैं. विस परभी दिगंबर लोग इस अधिकारको मंजूर नहीं करते. व्याकरणआदि शास्त्रों में भी नियम है कि जहां पर बारबार अनुवृत्ति लाकर अर्थ करना पडे वहां पर अधिकारसूत्र करते हैं, तो फिर इधर साराही भाग स्थितिका होने पर इस अधिकारसूत्रकों दिगंबर लोग क्यों नहीं मानते हैं?, जिस प्रकार आगे के अध्यायोंमें अधिकारसूत्र है उसी प्रकार इधर भी लेना ठीक है, 'स आश्रवः' 'स बंध : ' सूत्रोंकी तरह स्थितिका अधिकारसूत्र मानना उचित है । अन्यथा सागरोपमे, अधिके, सप्त, त्रिराधिकानि तु०, एकैकेन०, अपरा०, पूर्वा पूर्वानन्तरा, इत्यादि सूत्रोंमें समन्वय करना नरा मुश्किल होगा, याने यह स्थितिकालही है, अन्तर या अविरहादिकका काल नहीं है, ऐसा कैसे होगा ?, और " नारकाणां ० व्यन्तराणां च ज्योतिष्काणां च, लोका० सर्वेषां " इन सूत्रोंमें अध्याहार करना भी मुश्किल होगा । अतः इन कारणोंकों सोचनेवाला मनुष्य तो “स्थितिः " इस अधिकारको 1 For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) दिखानेवाले सूत्रकों मंजूर किये बिना कदापि नहीं रह सकता। (८) जिस प्रकार दिगम्बरोंने "स्थितिः" इस अधिकार सूत्रको मंजूर नहीं किया उसी प्रकार "सौधर्मादिषु यथा. क्रम" यह सूत्र भी दिगम्बरोंने उड़ा दिया है, यद्यपि दो सूत्रोंमें सौधर्मेशान और सनतकुमार माहेन्द्रका ग्रहण किया है, किन्तु त्रिसप्तेत्यादिसूत्र में किस २ देवलोककी कितनी २ स्थिति है यह नियम करना तथा "अपरा पल्योपममधिकं" जरूर इस सूत्रमें और आगेके सूत्रों में भी व्यवस्था करनेमें कठिनता होगी. जिस प्रकार "वैमानिकाः' और 'उपर्युपरि" ये अधिकारसूत्र मंजूर किये हैं, उसी तरह यह अधिकारसूत्र भी मंजूर करना सर्वथा उचित है, कि जिससे सौधर्मेशानादिकके नाम भी नहीं कहने पडेगें, और दूसरे सूत्रों में व्यवस्थापूर्वक समन्वय भी हो सकेगा। (९) श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही संप्रदायोंकी मान्यतानुसार असुरकुमारके इन्द्रोंकी और शेष असुरोंकी स्थितिमें खास फर्क है, तो भी दिगम्बरोंने सर्वअसुरोंकी सामान्य असुरशब्द लेकर ही स्थिति बतलाई है, तथा दक्षिण उत्तर के इन्द्र, शेष कुमार और उनके इन्द्रोंकी भी स्थिति कही, किन्तु असल सूत्रोंको उडा दिये हैं इसी तरहसे ग्रह, नक्षत्र, तारागणकी स्थिति, एवं उनकी जघन्य उत्कृष्ट स्थितिके सूत्र भी उडा दिये हैं, इस प्रकार इस चौथे अध्यायमें उन्होंने सब मिलाकर १३ सूत्र उडा दिये हैं। For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) । (१०) चतुर्थअध्यायके अखीरके भागमें दिगम्बरोंने "लोकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषां" ऐसा सूत्र माना है. इस सूत्रको श्वेतांबर समाज मंजूर नहीं करती है, उसका सबंब यह है कि यदि श्रीमान् उमास्वातिजीमहाराजकों लोकान्तिककी स्थिति दिखानी होती तो लोकान्तिकोंका स्थान और भेद बतलाया वहांपर ही बता देते. दूसरी बात यह है कि लोकान्तिकका प्रकरण छोडकर लोकान्तिककी बात अन्यत्र उठाना, यह भी सूत्रकारकी शैलीके अनुकूल नहीं है. तीसरी वात यह है कि यदि लोकान्तिककी स्थिति ही कहनी होती तो ब्रह्मदेवलोककी स्थिति बतलाई वहां परही कह देते. चौथी बात यह है कि--" लोकान्तिकानां" ऐसा कहनेसे सभी लोकान्तिककी स्थिति आ जाती है तो फिर " सर्वेषां" इस पदकी जरूरत ही क्या थी? इन कारणोंसे स्पष्ट होता है कि यह सूत्र श्रीमान् ग्रन्थकारमहाराजका बनाया हुआ नहीं है. किन्तु किसी अल्पबुद्धिवालेने स्वकल्पनाका फलरूप यह सूत्र बनाकर श्रीमान्के सूत्रोंमें घुसेड दिया है। । [११] चतुर्थअध्यायमें देवताओंके विषय में गति शरीर आदिकी हानि उत्तरोत्तरदेवताओंमें है ऐसा दिखाने का सूत्र है जिसे दिगम्बरलोग भी स्वीकार करते हैं, किन्तु देवतामें उच्छवासआहारादिकी तारतम्यता दिखाने के लिये जो सूत्र " उछ्वासाहारवेदनोपपातानुभावतश्च साध्याः ” [ ४-२३ ] For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) श्वेताम्बरोंने कथंचित् माना है वह दिगम्बरोंने उड़ा दिया है । जब देवताके स्थितिलेश्यादिके विषयमें अधिकता और न्यूनता दिखानेवाले सूत्र मानलिये गये तो फिर खुद स्वरूप दिखानेका सूत्र क्यों उड़ा दिया गया ? यह विचारणीय है। .. [१२] पांचवें अध्यायमें श्वेतांबरलोग " द्रव्याणि जीवाश्च" ऐसा एकही सूत्र मानते हैं। किन्तु दिगम्बरी लोग "द्रव्याणि" और 'जीवाश्च' ऐसे दो सूत्र मानते हैं। श्वेतांबरियों का कहना है कि यदि धर्माधर्मादि अजीवको स्वतंत्र ही सूत्र करके द्रव्य तरीके गिनाया जाय तो 'अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुगला द्रव्याणि' ऐसा इकट्ठा ही सूत्र करना था, और जीवको भी पीछे ही कहना था, ताकि पांचोहीकी द्रव्यसंज्ञा होजाती । याने धर्मादि पांचको अजीवकाय दिखाकर बादमें उनके द्रव्यपनको दिखाते हुए जीवको साथमें लेकर पांचों हीका द्रव्यपन दिखाया है । इससे तीन सूत्र करनेकी कोई जरूरत ही नहीं रहती है, और जो दो सूत्र हैं वे ही उचित हैं। _____ पाठकों ! इकट्ठे मूत्रको अलग २ कर देना इसमें सूत्रकारकी बडीमें बडी आशातना करना है । क्योंकि कोई भी विद्वान् यदि उसे देखे तो वह फोरन कर्ताको ही गल्तीवाला मानेगा। (१३) इसी अध्यायके 'असंख्येयाः प्रदेशा' इस सूत्रके स्थानमें दिगंबरलोग 'असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मैकजीवानां' ऐसा एकही सूत्र मानते हैं, किन्तु श्वेतांवरीलोग 'असंख्येयाः .. . For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) प्रदेशा धर्माधर्मयो:' और 'जीवस्य च ' ऐसे दो विभागसे दो सूत्र अलग २ मानते हैं । श्वेतांवरियोंका कहना ऐसा है कि यहाँ पर धर्मशब्द से धर्मास्तिकाय और अधर्मशब्द से अधर्मास्तिकाय लेना है, किन्तु जीवशब्दसे जीवास्तिकाय नहीं लेना अतः दोनोंका सूत्र अलग होना ही उचित है । 'जीवस्य ' ऐसे एकवचन से ही यदि एक चीज जीव 'प्रमाण' ऐसा सूत्रके द्विवचनसें दो प्रमाणकी तरह आजाय तो फिर एकशब्दको प्रयोग सूत्रमें लाना यह सूत्रकारकी खामी दिखानेवाला होता है । श्वेतांबर और दिगम्बर दोनों ही असंख्यातकी संख्या के असंख्य भेद मानते हैं, किन्तु यहां पर इसमें कौनसा असंख्यात - का भेद लेना इसका निर्णय नहीं होता है । जिससे धर्माधर्मका प्रदेशमान आदिमें ही कथन करके बादमेंही उसीके बराबर प्रदेश हरएकजीव भी कहना योग्य होगा । और धर्माधर्मके असंख्य प्रदेशका मान तो "लोकाकाशेऽवगाहः " इस सूत्र से भी निश्चित होता है । इधर यह भी सोचने का है कि यदि ' जीवस्य च ' ऐसा सूत्र अलग नहीं करना होता और चकारसे असंख्यातशब्दकी अनुवृत्ति नहीं लानी होती तो पीछे 'आकाशस्य चानन्ताः ' ऐसा सूत्र करके ' संख्येया अपि पुद्गलानां' ऐसा सूत्र करते, याने पुद्गल के प्रदेश दिखानेवाले सूत्र में 'असंख्येयाः ' यह पद करने की जरूरत ही नहीं होती. लेकिन यदि ' जीवस्य च ' यह For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) सूत्र अलग होकर असंख्येयशब्द चकारसे अनुवृत्त किया तो फिर 'चानुकुष्टं नोत्तरत्र' ऐसा नियमसे यह असंख्येयशब्द आगे नहीं चल सक्ता है, जिससे पुद्गल के सूत्रमें असंख्येयपद कहनेकी जरूरत हुई. शास्त्रकारकी शैली ऐसी ही है कि चशब्दसे जिसकी अनुवृत्ति लावे उसको आगे नहीं चलावे. और इसी से ही औपशमिक के दो भेद जो सम्यक्त्व और चारित्र नामके थे, उनको क्षायिकके भेदोके वक्त चशब्दसे लिया तो फिर क्षायोपशमिकके अट्ठारहभेदों में सम्यक्त्व और चारित्र ये भेद अनुवृत्ति से नहीं लाये गये, किन्तु स्पष्टशब्द से ही वहां कहे. इसी तरहसे इधर ' जीवस्य च' इससूत्र में चशब्द कहकर असंख्येयकी अनुवृत्ति की है इससे वह आगे नहीं चल सक्ता. याने पुगलसूत्र में 'असंख्येय ' पद लगानें से ही साबित होता है कि सूत्रकारनें ' जीवस्य च ' यह सूत्र किया था, और इन दिगम्बरोंनें उस सूत्रकों उडा दिया और धर्माधर्मकी साथ ही ' एकजीव कह कर मिला दिया. (१४) फिर भी दिगम्बर लोगोंने 'सद् द्रव्यलक्षणं' ऐसा सूत्र 'भेदसंघाताभ्यां' सूत्र के बाद और 'उत्पादव्यय' इस सूत्र के पेश्तर माना है । किन्तु श्वेतांबरलोग इस सूत्रको नहीं मानते हैं। श्वेतांवरियोंका कहना ऐसा है कि यदि सूरीश्वरजीको द्रव्यके लक्षण में सत्त्वपना लेना होता तो 'गुणपर्यायवद् For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) द्रव्यं ऐसा जो द्रव्यका लक्षण कहा उसी स्थान पर या उसीसूत्रमें वे समावेश करके कह देते । इसके सिवाय यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो यह सूत्र ही जैनमजहबकी मान्यतासे खिलाफ है। इसका कारण यह है कि जिनेश्वरमहाराजको माननेवाले द्रव्य गुण और पर्याय ऐसे तीनों को सद् मानते हैं, और सद् द्रव्यलक्षणं ऐसा सूत्र करनेसे गुण और पर्याय दोनों असत् होजाते हैं, इतना ही नहीं, किन्तु वैमा द्रव्यका लक्षण यदि इष्ट होता तो "गुणपर्यायवद् द्रव्यं" यह सूत्र अलग क्यों करते ? मतलब यह है कि 'सद् द्रव्यलक्षणं' सूत्र न तो जैनमन्तव्यताका है, और न यह सूत्र-रचना ही अनुकूल है । श्वेतांबरी लोग तो कहते हैं कि यह सूत्र यदि उमास्वातिजीको इष्ट होता तो 'सद् द्रव्यं' इतना ही लक्षणसूत्र बस था । उदाहरणार्थ-'गुणपर्यायवद् द्रव्यं' इस सूत्र में लक्षणशब्दके प्रवेशकी जरूरत ही नहीं है. उसी प्रकार यहां पर भी लक्षणशब्द कहनेकी कुछभी जरूरत नहीं है । क्योंकि उद्देश्यविधेय. विधिसे ही लक्षणका भी भान होजाता था । इसके सिवाय. दूसरे दर्शनकार भी अपने सूत्रमें लक्षणशब्दका प्रयोग कभी भी नहीं करते हैं। तो फिर इधर लक्षणका अर्थ आजाने पर भी लक्षणशब्दका प्रयोग करना सूत्रकारको तो लाजिम नहीं है। 'उपयोगो लक्षणं' इस सूत्रमें तो लक्ष्य का निर्देश नहीं होनेसे लक्षण शब्द कहना लाजिम ही है. और इधर तो लक्ष्यकी तौर For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) . . . पर द्रव्यशब्द कहा ही है। इन ही पांचवें अध्यायमें 'तद्भावः परिणामः' इस सूत्रके पीछे श्वेतांबरोंने 'अनादिरादिमांश्च, रूपिष्वादिमान,, योगोपयामै जीवेषु' ये तीन सूत्र परिणामके भेदोंको दिखाके आदिनाल परिणाम रूपीमें साक्षात् दिखाके अनादिपरिणामका सद्भाव शेषमें सूचित करते हैं। इनको सम्यक्त्व, जीव, उपयोग आदिमें लक्षण और भेदो दिखलानेकी रीतिसे योग्य होनेपर भी दिगम्बरलोग नया करनेकी आदतस ही मंजूर नहीं करते हैं। इन सूत्रोके अभिधेय को वे लोग भी मंजूर करते हैं। पांचवें अध्यायके आखीरके भागमें दिगम्बरलोग " तद्भावः परिणामः " इस सूत्रसे अध्यायको : समाप्ति करते हैं, किन्तु श्वेताम्बरलोग " अनादिरादिमांश्च" " योगोपयोगी जीवेषु" ऐसा कह कर परिणाम के तीन सूत्र मानते हैं। श्वेताम्बरियोंका ऐसा कहना है कि परिणामवादही जैन: मजबकी असली जड है, और उसके अनादिसादिपनसे अनेकान्त में भी अनेकान्तकी व्याप्ति सिद्ध होती है ऐसा दिखाकर सम्पूर्णतया स्वाद्वादका ख्याल दिया गया है, एवं वह परिणा रूपी अरूपीमें और जड चेतन में किस प्रकार है, यह दिखलाना जरूरी समझ करही आचार्यश्रीने उस अधिकारको संग्रहमें लिया है (१५). आमे छड्ढे अध्मायमें मनुष्य के आयुष्यके आश्रव में 'अल्पारंपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुफ्स्य' ऐसा . ... . . For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . .' क्रोध, मान, माया और लोभके अल्पत्त्रको दिखानेका है, वहां दिगम्बरी लोग अल्पादिका एक सूत्र और स्वभावमार्दवका दुसरा मानकर मूत्र व्यर्थ ही अलग २ करते हैं, और स्वा. भाविक आर्जव जो तिर्यग्योनिआयु रोकके मनुष्यायुका विधान करनेमें जाहिर है, उसको छोड देनेकी अनार्जवता दिखाते हैं। इसी तरह देवायुषमें 'सम्यक्त्वं च' ऐसा भी फजुल है, सम्य क्ववाले सब आयु बांधते ही नहीं, और सम्यक्त्ववान् देव, और नारकी भी है. वे देव नहीं होते हैं। .. छठे अध्यायमें मनुष्य आयुके बन्धका अधिकारमें श्वेताम्बरियोंने " " अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवत्वं च मानुषस्य" ऐसा एक सूत्र माना है । तब दिगम्बरियोंने उसके दो हिस्से कर " अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य" और "स्वभावमार्दवं च” ऐसे दो सूत्र बना डाले । इस सूत्रका निष्प्रयोजन विभाग करदेना और मनुष्यपनके कारणों से सरलतारूप कारणको उडा देना यह दिगम्भरियोंको कैसे उचित मालूम हुआ होगा। इस विषयमें दिगम्बरलोग यदि अपना अभिप्राय जाहिर करेंगे तो तटस्थलोगोंको सोचनेका प्रसंग प्राप्त होगा। सरलषनसे मनुष्यका आयुष्य बंधता है यह बात दिगम्बरियोंकोभी स्वीकार्य है, तो फिर उनलोगोंने यहां पर से"आर्जव" पद क्यों निकाल दिया ?, यदि कोई ऐसा कहे कि यह पद तो .. . . . aaja . For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९) . . श्वेताम्बरियोंने ही दाखिल कर दिया है, तो ऐसा कहना भ्रम. मात्रही है, क्योंकि "माया तैर्यग्योनस्य” इस सूत्रसे जब मायाका फलरूप आयु बतलाया तो फिर आर्जवताका फलरूप आयुष्य बताया जाना आवश्यक ही है । इसके सिवाय मार्दवके साथ आर्जव लेना भी उचित ही है। १६ छठे अध्यायमें दिगम्बरियाने "सरागसंयमा" इत्यादि देवताके आयुष्यके कारणोंको दिखानेवाले सूत्रके आगे फिर भी “सम्यक्त्वं च" ऐसा कहकर एक सूत्र विशेष माना है। श्वेताम्बरी लोग इस सूत्रको नहीं मानते हैं। श्वेताम्बरियोंका कहना ऐसा है कि "मनुष्य या तियंचका जीव सम्यक्त्वकी स्थितिमें यदि आयुष्य बान्धे तो अवश्य ही देवताका आयुष्य बांधता है ।" किन्तु "सम्यक्त्वं च” इस सूत्रसे देवताके आयुष्यका कारण सम्यक्त्व है ऐसा दिखलाना सर्वथा अनुचित है। इसका कारण यह है कि सम्यक्त्वसे सिर्फ वैमानिकका ही आयुष्य बांधा जाता है, किन्तु यहां पर तो सामान्यसे चारोंही प्रकारके देवताका आयुष्य कैसे बांधे ? यह लेनेका है । यद्यपि यहां पर संयम और संयमासंयम लेकर श्रावक और साधुके लिये कहा है, किन्तु देशविरति और सर्वविरति सम्यक्त्व पूर्वक ही लेना ऐसा इधर नियम नहीं है। जैसे सम्यक्त्वसहित श्रावकपना या साधुपना धारण करनेवाला देवलोकका आयुष्य बांधनेका आश्रव करता है, वैसे ही सम्यक्त्वरहित For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . . . कोई अभव्य या. मिथ्यादृष्टि देशविरति या सर्वविरति धारण करनेवाले होते हैं, और इससे वे अभव्यादिक ऐसी देशविरति आदिकी दशामें चारों प्रकारके देवों में किसी भी प्रकारके देवके भवसम्बन्धी आयुष्यका आश्रय करते हैं, अर्थात् देशविरति आदि द्रव्य और भावसे बनते हैं, और इनसे चारों ही प्रकारका देवआयुका बन्ध होता है, किन्तु सम्यक्त्व तो सिवाय वैमानिकके दूसरे देवआयुधका कारण बनता ही नहीं । अता सामान्य देवआयुके आश्रयमें सम्यक्त्वको लेना सर्वथा अनुचित है । यदि मानलिया जाय कि विशेषदेवोंके आयुका कारण हो और उसे सामान्यमें लिया जाय तो कोई हर्ज नहीं है, किन्तु यहां पर तो देव और नारकोंको देवताके आयुष्य सम्बन्धी बन्धाश्रव है ही नहीं और देव व नारकोंको पूर्वभवसे चला आया क्षायिक क्षायोपशमिक ही है ऐसा नहीं है और न वे जीव सम्यक्त्वयुक्त अवस्थामें भी दूसरी जिन्दगीके आयुका आश्रव और बन्धः करे तब भी देवलोकके आयुष्यका आश्रय और बन्ध कर सक्ते हैं। साफ साफ बात है कि संयम और संयमासंयम जिस जिस गतिमें जिस जिस जीवकों है वे जीव यदि आयुका आश्रय और बंध करे तो अवश्य देवआयु. काही आश्रव और बंधकरे ऐसा नियम है, लेकिन ऐसा कभीभी नियम नहीं हो सकता है कि किसीभी गतिका कोईभी जीव सम्यक्ववान होवे तो देवका आयुष्यका ही आश्रव और बंध For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करे, क्योंके देव और नारक सम्यक्त्ववान तो होते भी है परंतु वे देवायुका कभीभी आश्रव और बंध कर सक्ते ही नहीं, तो फिर ऐसी अवस्थामें 'सम्यक्त्वं च' यह सूत्र कैसे हो ? लेनाभी हो तो सराजसूत्र ही लेना होगा और 'च' तो इधर फजुलही है । इन कारणोंसे स्पष्ट होजाता है कि वास्तव में दिगम्बरियोंने श्रीमानकी कृतिमें इस सूत्रको घुसेड दिया है, ऐसा श्वेताम्बरी लोग मानते हैं। (१७) आगे अध्यायसातवेंमें " तत्स्थैर्यार्थ भावनाः " ऐसा सूत्र कह कर महावतकी पांच पांच भावना दिखानेवाला सूत्र दोनही सम्प्रदायवाले स्वीकार करते हैं, किन्तु इसके सिवाय भी दिगम्बरलोग प्रत्येक महावतकी पांच २ भावना दिखानेके लिये पांच सूत्र और मानते हैं। इस पर श्वेताम्बरियोंका कहना ऐसा है कि यदि आचार्यश्रीको प्रत्येकमहाव्रतकी भावना आगे सूत्र द्वारा दिखलानी होती तो-पंच पंचही के साथ सूचना कर देते । जैसा कि दूसरे अध्यायमें औपशमिकादिके भेदोंकी संख्या दिखाकर भेद दिखाना था तो "यथाक्रम" कहा। आगे पर भी देशविरतिके अतीचारोंके वख्त "तशीलेषु पंच पंच यथाक्रमम्" ही कहा । अर्थात् संख्यासे कहनेके बाद जब अनुक्रमसे दिखानेका होता है तो वहांपर 'यथाक्रम' शब्द कहते हैं । आठवें अध्यायमें बन्धके अधिकारमें ज्ञानावरणादि. भेदोंकी पांचनौआदि संख्या बतलाई, और आगे उनके भेद For Personal & Private Use Only " Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) गिनानेके लिये सूत्र करनेका था तो वहां परभी यथाक्रमं ऐसाही कहा गया है । नवमें अध्यायमें प्रायश्चित्तादिके भेदोंकी संख्या दिखानेके लिये “ नवचतुर्दशपंचद्विभेदा यथाक्रमम्" ऐसा सूत्र करते समय भी आगे भेदोंका स्पष्टनिर्देश करनेका होनेसे 'यथाक्रम' कहा है । इससे यह बात निश्चित होती है कि जहांपर संख्यासे भेद दिखाकर विवेचनपूर्वक भेद दिखाना होता है वहांपर श्रीमान् आचार्यमहाराज 'यथाक्रम' शब्द रखते हैं। किन्तु यहांपर भावनाके लिये पंच पंच' कहकर 'यथाक्रम' नहीं कहा गया, इससे स्पष्ट होता है कि महाव्रतोंकी भावनाओंके सूत्र आचार्यश्रीके बनाये हुए नहीं हैं। आचार्यश्रीकी शैली तो ऐसी है कि जहांपर सिर्फ भेद ही की संख्या दिखानी हो और भेदका विवेचन नहीं करना हो वहां पर 'यथाक्रम' नहीं कहते हैं । जैसा कि दूसरे अध्यायमें क्षायिकादिभेदों में दानादिलब्धि गतिकषायलिंगलेश्यादिककी संख्या दिखाई, किन्तु आगे विवेचन नहीं करना था तो वहां पर 'यथाक्रम' नहीं कहा। वैसेही छटे अध्यायमें भी आश्रवके बयानमें 'इन्द्रियकपायाव्रतक्रियाः पंचचतुःपंचपंचविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदा:' इस सूत्रमें इन्द्रियादिकके भेदकी संख्या तो विषयमें दिखाई, किन्तु उनका विवेचन नहीं था तो वहां पर 'यथाक्रम' पद नहीं कहा । इन सब हेतुओंको देखते निश्चित होता है कि आगेके भावनाविषयक सूत्र आचार्यश्रीजीके बनाये हुए नहीं MAP For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) किन्तु दिगंबरियोंने ही घुसेड दिये हैं । यदि भावनाओंके 9 सूत्र दिगम्बरियोंके घुसेडे हुए नहीं होते तो इन सूत्रोंमें हरएक जगह 'पंच पंच' शब्द कहांसे घुस जाता १, क्योंकि आचार्यश्रीजीनेतो देशविरार्त के अतिचारके सूत्रों में पांच पांच अतिचार गिनाये हैं, किन्तु किसी भी सूत्र में 'पंच, पंच' ऐसा नहीं कहा है । जब 'पंच पंच' ऐसा वीप्सा वचन कहकर व्याप्ति दिखा दो तो फिर प्रत्येक स्थान में सूत्र सूत्र पर 'पंच पंच' कहते रहना यह बात एक मामूली विद्वान्मी उचित नहीं समझता। तो फिर आचार्यश्रीजी जैसे अद्वितीयविद्वान् और संग्रहकारको ऐसा करना कैसे लाजिम हो सकता है । इसमें भी सूत्रकारने 'निक्षेप' शब्द समिति के अधिकार में लिया है, और इधर 'निक्षेपण'. ऐसा गुरुतायुक्त शब्द घर दिया वह संग्रहकार के लिये कैसे लाजिम होगा ? इसी प्रकार 'आलोकितान्नपानानि ' ऐसा लघु निर्देश शक्य होने पर भी आलोकितपानभोजनानि ' ऐसा गौरव करना भी लाजिम नहीं था । इसके सिवाय दूसरे महाव्रतकी भावनाओं में भी 'भय' शब्द रखकर 'क्रोध लोभ भयहास्य' ऐसा लघुनिर्देश सुगम और प्रसिध्धिवाला हो सके उसको छोडकर ' क्रोध लोभ भीरुत्वहास्य ' ऐसा गुरुतायुक्त टेढा निर्देश कौन अकलमंद करेगा, साथ ही साथ 'प्रत्याख्यानानुवीची भाषणानि ऐसा लघु निर्देश होने पर भी 'प्रत्याख्यानान्यनुवीची भाषणं च ऐसा मुरुतायुक्त और निरर्थकवाक्य भेदयुक्त कहना संग्रहकारको For Personal & Private Use Only : Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) कलंकित ही करना है। तीसरे महाव्रतकी भावनामें तो दिगम्बरियोंने कुछ और ही रंग जमाया है। तीसरा महाव्रत अदनादानविरमण याने बिना दी हुई चीज नहीं लेनेका है, और भावना भी इस व्रतकी वैसीही होना चाहिये कि जिससे उसममावतकी स्क्षा हो सके । किन्तु इनलोगोंने तो 'शून्यागारविमोचितावास: परोपरोधाकरणभक्ष्यशुद्धिसधर्माविसंवादा:पंच' ऐसासूत्र कहकर अदत्तादानविरमणकी भावना दिखानेकी वांछा रक्खी है ? परंतु अकलमंद आदमी इस सूत्रको देखकर नि:संदेह कह सकता है कि यह रचना न तो तचार्थकारमहाराजकी ही है और न अदत्तादानविरमणकी भावनाको दिखानेकाली भी है। इधर गुरुलघुका विषयतो दूर रहा, किन्तु शून्यागारमें रहना यह अखचर्यके रक्षण अथवा परिग्रहविरति के लिये है कि आदचाद्वानकी विरतिके लिये है ? क्या आगारशून्य होनेपर मालिककी आज्ञा बिना ठहरना अदत्तादानसे विरतिवालेको लाजिम होगा?, यदि यह कहा जाय कि नहीं, तो फिर शून्यागाररूपभावना अदत्तादानविरतिसे बचानेवाली कैसे होगी ?, इसी तरहसे दूसरी 'विमोचितावास' नामकी जो भावना कही गई है वह परिग्रहविरमणकी भावना होगी या अदत्तादानविरमणकी ? और अपनाया औरका आवास छोड दे यह अहत्तादानविरमणसे सम्बन्ध रखता है क्या ?. ... १४०० ( १८) सप्तम अध्यायमें महाव्रतोंकी स्थिरताके लिये For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) भगवान् श्रीउमास्वातिजीने 'तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पंच पंच ऐसा स्पष्ट सूचन करदिया है। बाद इन्हीं दिगम्बरोंने ४, ५, ६, ७ और ८ वें सूत्रोंको कल्पित बनाये हैं। सूरिजीने तो इस भावनाके साथ ही हिंसादिमें अपायावद्यदर्शन, मैत्री आदि, और जगत्के काय और स्वभावका चिन्तन ये सभी इसही स्थैर्य के लिये आगेके सूत्रोंसे दिखाये हैं, तो बीच में महाव्रतों: की भावनाका विस्तार अयोग्य ही दिखाई पड़ता है। जैसे औदायिकके इक्कीस भेद साकारानाकार उपयोगके अष्ट और चार भेद लोकान्तिकके भेद आश्रवके भेद वगैरह संख्यामात्र से निर्देश कर अविकृत ही रक्खा है, इसी तरह इधर भेदोंका निर्देश ठीक ही था। ( १९ ) महाव्रतोंकी भावनाके विस्तारके सत्रमें भी लोगोंने एषणासमितिको अहिंसाकी भावनामेंसे उड़ा दी है। वास्तविकमें इनलोगोंको शौचके नामसे कमंडल तो रखना है, लोकेन् माधुकरीवृत्तिमें और बाल, ग्लान, वृद्ध, आचार्यकी वैयावृत्यमें जरूरी ऐसा पात्र नहीं मानना हैं । इससेही यह जरूरी हुआ कि उसके स्थानमें उन्होंने अमत्यावश्यक ऐसी वाग्यप्ति डाल दी है । ऐसे ही 'पसेपरोधाकारण' नामकी भावनासे दूसरेको उपरोधका कारण नहीं बनना, यह अहिंसाइतकीही भावना है, अदत्तादानविरमणसे उसका बाल्क किसी भी तरहसे नहीं है। चौथीभावमा मिल्यबुद्धि रखने For Personal & Private Use Only .. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६ ) का दिगम्बरोंने माना है. यद्यपि भैत्यशुद्धि करना जैनमजहबके हिसाबसे पूर्णतः जरूरी है. और इसीसे तो माधुकरीवृत्ति जैनोंने मानी है, परन्तु दिगम्बरोंको पात्रादि न रखनेके कारण एकही गृहमें भोजन कर लेना पड़ता है. और माधुकरीवृत्तिको जलांजली देनी पडती है. लेकिन भैक्ष्यशुद्धि प्राणातिपातविरमणके बचावके लिये है. उसको अदत्तादानविरमणसे सम्बंध ही नहीं है. ऐसी निरर्थक बातें श्रीमान्उमास्वातिवाचकजीने तो नहीं कही हैं, यह तो सिर्फ दिगम्बरोंहीका गप्प. मोला है. आगे पांचवीं भावनामें सधर्माविसंवाद नामक भावना बताई है, लेकिन यह भी सम्यक्त्व या प्रथमव्रतकी भावना है. अदत्तादानविरमणसे इसका कोई सम्बंध नहीं है. असलमें तो इस महाव्रतकी भावना यह थी: मालोच्यावरहयाञ्चाक्षिणावयाचनम् । एतावन्मात्रभित्येतदित्यवग्रहधारणम् ॥१॥ समानधार्मिकेभ्यश्च, तथाऽवप्रहयाचनम् । अनुज्ञापितपानामाशनमस्तेयभावनाः ॥ २॥ अर्थात् जिस मकानमें ठहरनेकी मालिकसे आज्ञा मांगना हो उसीवक्त ही कहां २ क्या २ करना है यह स्पष्ट करके मालिक से आज्ञा मांगना, बादमें स्थाण्डिल प्रश्रवण आदि परठने के स्थानमें भी मालिकको अप्रीति न हो ऐसा खयाल करने के लिये फिर भी उस वख्त मालिकका अवग्रह मांगना. फिर भी जहां कहीं साधुको For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) ठहरना हो वहां भी आपने कितनी जगह मालिकसे ठहरनेके लिये ली है, इसका पूरा निश्चय रखना चाहिये. ऐसा न हो कि आपने जिस स्थानकी याचना नहीं की है उस स्थानका उपभोग होजाय, और अदत्तादानविरमणमें दोष लगे. ये भावना तो मकानके मालिक जो गृहस्थ या क्षेत्र देवता होवे उसकी अपेक्षासे हुई, लेकिन जिस मकानमें आगे दूसरे साधुमहात्मा ठहरे हैं और उसमें किसी नये साधुको ठहरना है तो उस नये साधुको चाहिये कि पहिले ठहरे हुए साधुमहात्माकी मंजूरी लेवे. इसीका नाम ही साधर्मिकावग्रहकी याचना करना है. ये चार भावनाएंतो मकानके विषय में अदत्तादान बचानेके लिये हुई, लेकिन दूसरी तरहसे भी अदत्तादानसे बचानेके लिये ही कहा है कि मालिक और आचार्यने जिस अन्नपानका हुक्म दिया होवे वही उपयोगमें लेना चाहिये. इसीके लिये 'अनुज्ञापितपानानाशन' नामकी पांचवीं भावना है. वाचकगण ! इधर गौर करें कि दिगम्बरोंकी कही हुई 'शून्यागार०' आदि पांच भावनाएं अदत्तादानसे बचावेंगी कि श्वेतांबरोंकी कही हुई 'आलोच्यावग्रहयांचा' आदि पांच भावनाएं अदत्तादानविरमणसे बचावेंगी ?, यदि ये दिगम्बरोंकी कही हुई भावनाएं अदत्तादानविरमणसे सम्बन्धवाली ही नहीं है तो फिर ऐसी कल्पितभावनाएं असंबद्धपनसे बनाकर आचार्यमहाराजके नाम पर ठोक देना कितना अन्यायास्पद For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) होगा ?, असल में इन दिगम्बरोंकों अवग्रहादि मांगना और भिक्षा लाकर आचार्यादिकको दिखाना यह बात पात्रादिक नहीं रखनेके आग्रहसे इष्ट नहीं है. इसी सबब से इन्होंने इन भावनाओंका गोटाला कर दिया है. ( २१ ) आगे आठवें अध्याय में श्वेतांबर लोग 'स बन्धः' यह सूत्र अलग मानते हैं, व दिगम्बरलोग 'सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः' ऐसा कह करके एकही सूत्र मानते हैं. श्वेताम्बरोंका कहना है कि यदि एकही सूत्र होता तो फिर शब्द से उद्देश किये बिना तत्शब्द से निर्देश कैसे होवे ? असल में तत्शब्द पूर्वकालमें कही हुई बात के परामर्श के लिये होता है, और जब यह एकही सूत्र है तो फिर तत्शब्दकी क्या जरूरत थी ?, इतनाही नहीं, लोकन् एकही सूत्र होता तो 'सकषाय जीवन कर्म पुद्गलादानं बन्धः' ऐसा ही सूत्र करते. इसमें कितना लाघव होजाता है यह बात अकलमन्दोंस छिपी नहीं है. ऐसा लघुसूत्र नहीं किया इससे साफ जाहिर होता है कि श्रीउमास्वातिवाचकजीने तो इधर दो सूत्र बनाये थे, लोकन किसी पंडितंमन्यदिगम्बरने इस श्वेताम्बर के सूत्रकों अपना करने के लिए उलट पुलट कर दिया जगतमें भी प्रसिद्ध है कि किसीकी चीजको उडाके ले जानेवाला उस चीजको यथावस्थितस्वरूपमें नहीं रखता है. श्रीमान् आचार्य महाराजकी तो यह शैली हैं कि पेश्तर पदार्थका स्वरूप दिखाकर पीछे उसके For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेतके लिये संज्ञा करते हैं. जैसे कि श्रीमान्ने आश्रवका निरूपण करनेवाले छटे अध्यायमें पेश्तर 'मनोवाकायकर्म योगः' एसा कहकर योगका स्वरूप दिखाया. बादही दूसरे सूत्रमें 'स आश्रवः' कहकर उस योगकी आश्रव संज्ञा की. उसी तरहसे इधर भी श्रीमान् आचार्यमहाराजने पहिले बन्धका स्वरूप या राति बताकर पीछे उसकी 'स बन्धः' कहकर बन्धसंज्ञा की. पेस्तरके सूत्र में बन्धका स्वरूप कहनेसे दूसरे सूत्र में तत्शब्दसे निर्देश करके ही बंधसंज्ञा करनी लाजिम होगा. इससे साफ होता है कि श्वेताम्बरोंका मानना ही यथार्थ है, और असल तत्त्वार्थका सूत्र श्वेताम्बरोंही के पास है. दिगम्बरोंने इस सूत्रको अपना है ऐसा दिखानेके लिए उलटपुलट कर दिया है. श्वेताम्बरोंका कथन है कि इतना होने पर भी श्रीमान् उमास्वातिवाचकजीका भाग्य बड़ा तेज होगा कि जिससे इन दिगम्बरोंने गणधरमहाराजके बनाये हुए असली सूत्रोंको नामंजूर करके उडा दिये, इस तरहसे तत्त्वार्थसूत्र में उलटपुलट किया, लेकिन उड़ाया नहीं. क्योंकि दिगम्बरोंका यह तो मन्तव्य है ही कि श्रीमानउमास्वातिमहाराजके वक्त भगवानके आगम हाजिर थे और पीछे सर्वथा नष्ट होगये. जब भगवानके शास्त्रोंको व्युच्छेद कर देनेमें दिगम्बरोंको हर्ज नहीं हुइ, तो फिर उमास्वातिवाचकजीके तत्वार्थका व्युच्छेद कह देनेमें इन दिगम्बरोंको क्या हर्ज होती ?, दिगम्बरलोग भगवानके वचनों For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) से भी श्री उमास्वाति का वचन ज्यादह मान्य करते होंगे, अन्यथा दिगम्बरोंके बुझगौनें तत्त्वार्थआदिका रक्षण किया और भगवान के वचनका एक टुकड़ा भी क्यों नहीं रक्खाः, इस स्थान में दिगम्बरोंको सोचना चाहिये कि तुम्हारे पूर्व पुरुषोंने जो पुराण आदि बनाये वे भगवानके वचन से बनाये कि अपनी कल्पनासे बनाये ? यदि कहा जाय कि भगवान के वचनको देखकर उसके अनुसारही बनाये, तो फिर उन आचार्य के बनाये हुए तो पुराणादिके लाखों श्लोक अभी तक हाजिर रहे और भगवानका शास्त्र सर्वथा व्युच्छेद ही होगया यह बात कैसे हुई ? दूसरी यह भी बात सोचने काबिल है कि क्या दिगं बरोंके पूर्वपुरुष ऐसे हुए कि पुराणादिक के जो कथानकादिमय हैं उन ग्रन्थोंका तो रक्षण किया और भगवान् के अमूल्य वचनरूप सूत्रोंको व्युच्छेद होने दिया ? यह बात भी सोचने लायक है कि क्या दिगम्बरोंके पूर्वपुरुष ऐसे हुए होंगे कि पांच सात हजार श्लोक भी याद नहीं रख सके ? यदि याद रख सक्ते होते तो भगवान के वचनके लाखों श्लोक न भी रह सके, परन्तु हजारों श्लोक तो जरूर रहते, और ऐसा होता तो दिगम्बरोंकों " बदमाश देनदारको बहियां ही नहीं हैं" इस लोकोक्ति अनुसार "भगवान के सूत्र सर्वथा व्युच्छेद होगये, अब भगवानके वचन है ही नहीं" ऐसा कहनेका मौका ही कहांसे आता ? For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) असली मगधदेशकी हकीकत, संज्ञा, वर्त्ताव, संकेत आदिकी विद्यमानता सूत्रों में देखकर कोई भी आदमी श्वेताम्बरों के सूत्रों को असली सूत्र है ऐसे कहे बिना नहीं रह सकता है. गद्यपद्यका या सुगम कठिनताका विषय लेकर जो कुछ अकलमंदको अग्राह्य ऐसा अनुमान कितनेक लोगोंकी तरफ से किया जाय तो वह भी झूठ है, क्योंकि जो आदमी प्रवाहमय संस्कृत भाषामें दिनों तक वाद करता है वही आदमी अपने गृहमें औरत लडकोआदिके साथ ग्राम्यभाषा में भी बात करता ही है. श्रीमान् हरिभद्रसूरिजीने अति कठिन अनेकान्तजयपताकादि जैसे न्यायग्रंथ बनाये और उन्होंने ही श्रीसमरादित्यकथा जैसा कथानकमय प्रसन्नग्रंथ भी बनाया, और जिन श्रीमान् हेमचन्द्रसूरिजीने शब्दानुशासन और प्रमाणमीमांसा सरीखे व्याकरण और न्यायके प्रौढग्रंथ बनाये उन्होंने ही त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र और परिशिष्टपर्व सरीखे कथानकमय सरल ग्रंथ भी बनाये. जिन सोमप्रभाचार्यजीने हरएक काव्य के सौ अर्थ बनें ऐसा काव्य रचा. उन्हीं सोमप्रभाचार्यजीनें सिन्दूरप्रकरण जैसा प्रसन्नकाव्य बनाया, इसी तरह सूत्रकी पूर्वापर भाषादिमें भी होना असंभावित नहीं है, तो फिर श्वेताम्बरोंके असली सूत्रको दिगम्बर नहीं मानते उसमें उनका हठकदाग्रहके अतिरिक्त दूसरा कोई भी सच नहीं मालुम होता है ( २१ ) आठवें अध्याय के अन्तम For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) ' सद्वैद्य सम्यक्त्व हास्य र ति पुरुषवेद शुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यं ऐसा सूत्र माना है, तब दिगम्बरोंने "सद्वेद्य शुभायुर्नामगोत्राणि पुण्" ऐसा सूत्र माना है. बादमें दिगम्बरोंने 'अतोऽन्यत् पाप' ऐसा आखिरका सूत्र माना है याने श्वेताम्बरोंने अकेले पुण्यकी प्रकृतियों को दिखानेवाला सूत्र स्पष्ट माना है और पापप्रकृतिको अर्थापत्ति से गम्य मानी है, जब दिगम्बरोंने दोनों तरहकी प्रकृतिको दिखानेवाले सूत्र अलग अलग माने हैं. असल में श्वेताम्बरोंको यह सोचना चाहिये कि सम्यक्त्व हास्य रति और पुरुषवेद ये सब प्रकृतियां मोहके भेद हैं, तो मोहका भेदरूप होनेवाली प्रकृतियां पुण्यरूप कैसे हो सकती हैं ? लेकिन श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों को यह तो मंजूर ही है कि असल में आत्माको बन्ध तो मिथ्यात्वमोहनीयका ही होता है. बाद में जब आत्मा शुद्धपरिणाममें आकर उन मिथ्यास्वके पुगलोंको शुद्ध कर डाले तभी उनपुद्गलोंको सम्यक्त्वमोहनी के पुद्गल कह सकते हैं, और उन्हीं सम्यक्त्वके पुद्गलों को वेदता हुआ जीव सम्यक्त्ववान् है और रहता है सम्यग्ज्ञानादिकको भी पाता है, तो फिर ऐसे पुद्गलोंका पुण्यरूप नहीं मानना वह कैसे होगा ! असल में तो जैनशास्त्र के हिसाब से सभी कर्मपुद्गल पापरूप ही है. लेकिन जिसके उदयमें आत्मा आनन्द पावे वैसे पुगलको पुण्य मानते हैं और जिन पुगलको वेदते आत्मा तकलीफ भोगता है उसको पाप मानते हैं. यदि For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह बात दोनोंको मंजूर है तो उस अपेक्षासे सम्यक्त्वपुद्गलका वेदन करना पुण्य क्यों नहीं होगा ? सम्यक्त्व पानेसे. अपूर्व आनन्द का अनुभव होता है ऐसा तो दोनोंको ही मंजूर है. अब आगे हास्य रति पुरुषवेद कहे हैं, वे भी आल्हादसे जंब अनुः भूत होते हैं तो फिर वह पुण्यतरीके क्यों न माना जाय ? इतनाही नहीं, लेकिन दोनोंको यह भी मंजूर है कि हास्य रतिः और पुरुषवेदका कर्म अच्छा कार्य करनेसे ही बंधता है. बुरे. कार्यकी प्रवृत्तियोंमें तो शोक, अरति और स्त्रीवेदका ही बध होता है, तो फिर शुभयोगसे होनेवाला आश्रव 'शुभः पुण्यस्य ऐसा जो सूत्र पूर्वमें कहा है उस मुजब क्यों शुभ नहीं गिनना ? और आश्रबके वक्त पुण्य गिने तो फिर उदयके वक्त उन प्रकृतियों को पुण्य नहीं कहना और पाप कहना यह कैसे होगा। विशेष आश्चर्यकी बात तो यह है कि दिगम्बरलोग सीने महापापका उदय मानकर स्त्रीको केवलज्ञान और मोक्ष नहीं होता है ऐमा मानते हैं. तो इधर तो उनके हिसाबसे स्त्रीवेदका. उदय भी जैसा पापरूप है वैसाही पुरुषवेदका उदय भी पाप सहीं है. तो फिर स्त्रीको पुरुषकी तरह केवलज्ञान और मोक्ष क्यों नहीं मानते हैं ? यह तो एक सामान्यरूपसे विचारणा ही है. असलमें तो आगे छठे अध्यायमें दोनोंने सुम से होने वह पुण्यका और अशुभंयोग होने सो पाप सापर होवे ऐसा मंजूर कर लिया है, तो फिर पर - 4 . For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४ ) प्रकृति गिनाकर पापकी प्रकृति अपने आप समझमें आनेवाली होनेसे कहनेकी जरूरत ही नहीं थी. इतना होने पर भी सूत्रकी समझनेवाला आदमी स्पष्ट जान सकता है कि यह सूत्र श्रीमानउमास्वातिवाचकजीका वा किसी भी अकलमंदका बनाया हुआ नहीं है अकलमंद नया बनानेवाला होता तब भी ऐसा सूत्र नहीं बनाता. क्योंकि 'अन्यत् पाप' इतनाही कहना जरूरी था, क्योंकि पेश्तरके सूत्र में पुण्यप्रकृति स्पष्टतः दिखाई है. तो फिर 'अतो' इस पदकी जरूरतही क्या थी ? अपने आप 'अन्यत्' शब्द कहनेसे ही उससे याने पुण्यप्रकृतिसे भिन्न प्रकृतियोंको पाप कहना यह आ जाता. जैसे दिगम्बरोंके हिसाबसे "शेषाखिवेदाः' इस सूत्रमें 'इत:' वा 'अत:' कहनेकी जरूरत नहीं रही और श्वेताम्बरके हिसाबसे 'शुभः पुण्यस्य' सूत्रके बाद कितनेक स्थानके हिसाबसे 'शेषं पापं' इसमें 'इतः' वा "अत:' की जरूरत नहीं है, और दोनोंके मन्तव्यसे 'प्रत्यक्षमन्यत्' ऐसा जो सूत्र है उसमें 'अतः' वा 'इत:' कुछ भी नहीं है, और इसी तरहसे दूसरे भी दर्शनकारोंने शेषकी जगह पर 'अतः' वा 'इतः' नहीं लगाया है. सबब मालूम होता है कि यह सूत्र दिगम्बरोंने कल्पित बनाकर घुसेड दिया है. __- (२२) दिगम्बरोंने अध्याय छ?में सूत्र ऐसा माना है कि शुभः पुण्यस्याशुभ: पापस्य' याने शुभयोग पुण्यका आश्रव है और अशुभयोग पापका आश्रव है श्वेताम्बर लोग इस Cain Education International For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) जगह पर 'शुभः पुण्यस्य' और 'अशुभः पापस्य' ऐसा करके दोनों सूत्र अलग अलग मानते हैं. अब इस स्थानमें श्वेताम्बरोंका कहना है कि यदि ये सूत्र दोनों अलग नहीं होते तो प्रथम तो इधर समुच्चय करनेवाला शब्द चाहिये था. इतना ही नहीं, लेकिन ऐसा सूत्र पुण्यापुण्यका एकत्र करना होता तबतो 'शुभाशुभौ पुण्यपापयोः' यही कहना लाजिम था. सूत्रकार जहां कहीं समुच्चय कहते हैं वहां पर बहुत्वैश्व १.९ 'औपशमिकक्षायिको भावौ मिश्रश्च' (२-१) 'औदयिकपारिणामिको च ( २-१) 'सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च' (२.५) 'विग्रहवती च.' (२-२८ ) 'मिश्राश्चैकश:'( २.३२ ) 'मव्याघाति चाहारकं' (२-४९) 'तारकाच' (४.१२). सर्वार्थसिद्धौ च' (४.१९, ४-३२) 'परत्वापरत्वे च.' (५.२२), 'अणका स्कन्धाश्च' (५-२५) 'पारिणामिको च' ( ५३७ ) विसंवादनं च० ( ६-२२ ) 'द्भावने च० (६-२५): 'चोत्तरस्वर (६-२६ ) 'स्त्यानगृद्धयश्च' (७.७:) 'बिकल्पाश्चैकश: (७.९) 'तीर्थकरत्वं च' (७-१९ ) '०मन्तरायस्य च' (७-१४) 'क्षयाच्च केवलं': १०-१ ) 'परिणामाच्च' (१०-६) शिखाबच्च' (१०-७) ये सूत्र स्पष्ट तरहसे उदाहरण हैं के समुच्चय दिखाने के लिये चशब्द लगाया जाता है. . इन सभी सूत्रोंमें मुख्यत्वे सिर्फ उन्हीं सत्रोंमें कहा हुआ समुच्चय है और उस समुच्चयको दिखलाने के लिये सूत्रकारने स्पष्ट For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) समुच्चयवाचक ऐसे 'च' का प्रयोग किया है. और ये चकारवाले सभीसूत्र प्रायः दिगम्बरोंकी मंजूर भी है, जब आचार्य महाराजकी दिगम्बरोंके हिसाब से ही ऊपर दिये हुए सूत्रोंसे शैली सिद्ध होती है तो फिर इधर समुच्चायक ऐसे 'च' शब्दका प्रयोग न करें और दोनों एकत्र रक्खें यह कैसे बने ? इससे निर्णीत होता है कि हमारे माने अनुसार पुण्य और पापके लिए श्रीमान्मास्वातिवाचकजीने सूत्र अलग अलग हीं किये थे और इन दिगम्बरोंनें घोटाला कर दिया है । ( २३ ) नवमें अध्यायमें ध्यानके लक्षण के सूत्र में दिगंबरलोग 'उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमामुहूर्त्तात' ऐसा अखंड मानते हैं. जब श्वेताम्बर लोग 'उत्तम' इत्यादिकको एक 'सूत्र मानके 'आमुहूर्तात्' यह सूत्र अलग लेते हैं, अब इस स्थान में या तो दिगम्बरोंनें दो सूत्रोंका एक सूत्र बना दिया या श्वेताम्बराने एकसूत्रके दो सूत्र कर दिये हैं, यह सोचनेका है. असल में इसमें एक सूत्र हो या दो सूत्र हों इससे भावार्थका फर्क नहीं है. तथापि एकका दो करना या दो सूत्रका एक संत्र कर देना यह भवभय रहितपनका तो जरूर सूचक इधर अपने उस बात से मतलब नहीं है, लेकिन सूत्र दो थे और एक हुआ या एकही था उसके दो कर दिये. यद्यपि इस बासका निर्णय करना मुश्किल है, तथापि अशक्य तो नहीं है. क्योंकि सूत्रकार महाराजने अनेक स्थानों पर अनेक पदार्थों For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) की स्थिति दिखाई है. जैसे तीसरे अध्यायमें नारकोंकी स्थिति दिखाई है, वैसेही मनुष्य और तिर्यचकी भी स्थिति दिखाई है, ऐसे ही ज्ञानावरणीयादिकौकी भी स्थिति आमे दिखाई है, लेकिन किसी भी स्थानमें स्वरूप या भेद दिखानेके साथ स्थिति नहीं दिखाई है, तो इधर सूत्रकार अपनी शैली पलटावे इसका कोई भी विशेष सबब न होकर यही मानना वास्तविक होगा कि श्रीमानउमास्वातिजीमहाराजने स्वरूपदर्शक और स्थितिदर्शक सूत्र अलग ही किये थे, और किसी पंडितमन्य दिगम्बरने अपनी कल्पना चलाकर इकट्ठा करके एकही सूत्र कर दिया है। --- ( २४ ) इसी नवमें अध्यायमें दिगम्बरोंने 'आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्य' 'शुक्ले चाये पूर्वविदः' और 'परे केवलिनः' ऐसे तीन सूत्र माने हैं, और श्वेताम्बरोंने 'आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य' 'उपशान्त - क्षीणकषाययोश्च' 'शुक्ले चाये' 'पूर्वविदः' 'परे केवलिनः' ईस तरहसे पांच सूत्र माने हैं. अब इधर यही सोचनेका है कि क्या श्वेताम्बरोंने सूत्र बढा दिये हैं या दिगम्बरोंने कम कर दि हैं ? असल में तो इसका खुलासा सूत्रकार महाराज की सकते हैं कि अमुकने मेरी कृतिमसे सूत्र कम कर अमुकने मेरी कृतिमें सूत्र बढाये हैं. लेकिन अब अपनी अक्कलसे भी इसका कुछ निश्चय करा For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) तो यह बात दोनोंने दिखाई है कि आर्त्तध्यान नामक ध्यान अविरत देशविरत और प्रमत्तसंयतको होता है और रौद्रध्याननामक ध्यान देशाविरत और अविरतको होता है. और यह बात दोनोंही फिरकेवाले अपने अपने तत्त्वार्थसूत्र में दर्ज करते हैं, तो फिर धर्मध्यान किस गुणस्थानवालेकों होता है इसका निर्देश क्यों नहीं करना ? सबब साफ होजाता है कि असल में धर्मध्यान के विषय में अप्रमत्तसंयतका निर्देश सूत्रकारने किया था, जिसको दिगम्बरोंने उडा दिया है. 2 . यह बात तो धर्मध्यानके लक्षणवाले सूत्रके विभागके विषय में हुई, आगे के लिये यह सोचनेका है कि अविरतआदिको तो ध्यान दिखाये, लेकिन उससे आगे बढे हुए उपशान्त-कषाय, क्षीणकषायका कौन ध्यान होवे ? उसका तो जिक्र इधर है नहीं इसी सबब से मानना होगा कि सूत्रकारने 'उपशान्तक्षीणकषाययोश्च' यह सूत्र जरूर बनाया है. एक बात और भी गौर करने के काबिल है कि वाचकजीमहाराजने आर्त्तरौद्र के स्वामी दिखानेके वक्त अविरतादिको दिखाके गुणस्थानके हिसाब से स्वामी दिखाया तो फिर अप्रमत्त मात्रको धर्मध्यानके अधिकारी दिखावे और शेषउपशान्तादिकको न दिखावे यह कैसे हो ? L सूत्रकारने यह सूत्र इधर जरूर बनाया है इसका एक और भी पूर्णतः सबूत है. वह यह है कि यदि इधर यह 'उपशान्त : For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७९ ) . . . क्षीणकषाययोश्च सूत्र नहीं होता तो 'शुक्ले चा०' इस सूत्रमें चकार धरनेकी क्या जरूरत थी? इतनाही नहीं, लेकिन हरएक ध्यानके अधिकारमें पेश्तर उसका भेद दिखाकर बादही उस ध्यानके मालिक दिखाये जाते हैं. जैसा खुद इधरही आतध्यान, रौद्रध्यानमें भेद दिखाकर बाद में ध्याता दिखाया. ऐसा दोनों फिरकेका सूत्रपाठ कह रहा है, तो फिर इधर शुक्लध्यानके भेदोंको दिखाये बिना ही कौन कौन किस किस भेदके ध्यानेवाले हैं यह दिखाने की क्या जरूरत थी ? इससे विवश होकर मानना पडेगा कि धर्मध्यानको ध्यानेवाली कोई व्यक्तिका इधर पेश्तरके सूत्र में निर्देश था. और वे व्यक्तियां दूसरे ध्यानको भी ध्यानेवाली है, वे दूसरी कोई नहीं, किन्तु उपशान्तमोह और क्षीणमोह ये दोनों हैं. याने मतलब यह हुआ कि कितनेक उपशान्तक्षीणमोहवाले धर्मध्यानवाले होते हैं और कितनेक शुक्लध्यानवाले भी होते हैं. और इसी बातका दिखानेके लिये 'शुक्ले चाये' इस सूत्र में सूत्रकारने समुच्चयवाचक 'च' का प्रयोग किया है. इधर चकारका प्रयोग तो दोनों भी मंजूर करते हैं. कभी दिगम्बरोंकी तरफसे ऐसा कहाँ जाय कि इधर समुच्चयवाचक चकार है लेकिन इससे उपशान्तक्षीणमोहका समुच्चय नहीं करना है, किन्तु पेश्तरं कहा हुआं धर्मध्यान और आगे दिखाएंगे ऐसे. शुक्लध्यानके भेदद्वय ये सब पूर्वके जानकारको होते हैं. इस अर्थको दिखानेके लिए For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८० ) कारका प्रयोग है. ऐसा अर्थ करनेसे न तो चकार बेकाम होगा और न भेद कहने के पेश्तर ध्याता दिखाया उसकी हर्ज होगा. इस तरहसे दिगम्बरोंका कथन होवे तो यह कथन सम्फ गलत है. सबब कि उन्होंके कथनानुसार अर्थ करें तो अप्रमत्तसे लगाकर क्षीणमोह तक के जीवोंको कौन ध्यान होगा? इसका तो खुलासा रह गया । यह बात तो दिगम्बरों को भी मंजूर ही है कि सब कोई अप्रमत्तसे लगाकर उपशान्तक्षीणमोहवाले जीव पूर्वसम्बन्धी श्रुतका ज्ञान पानेवाले होते हैं, ऐसा नियम नहीं है. इतनाही नहीं, लेकिन दिगम्बरलोग वर्त्तमानकाल में भगवानका कहा हुआ कोई भी सूत्र नहीं है ऐसा मानते हैं, तो क्या सूत्रच्युच्छेद माना तबसे लगाकर लगातार पांचवें आरेकी समाप्ति तक के त्यागी मुनियोंको भी ये दिगम्बर लोग अतरौद्र ध्यानवाले मानेंगे ? मेरा खयाल है कि ये लोग कभी यह बात मंजूर नहीं करेंगे, तब जबरन मानना होगा कि दिगं वने 'उपशान्तक्षीणकषाययोव' यह सूत्र उड़ा दिया है. अब यह सोचनेका है कि 'शुक्ले चाद्ये' और 'पूर्वविद्रः' ये दोनों अलग अलग सूत्र होंगे कि एक ही सूत्र होगा इस विषय में असल निर्णय तो सूत्रकार महाराज ही कह सक्ते हैं, यह बात हैं, लेकिन असल हकीकतको सोचनेसे अपने भी निर्णय कर सकते हैं. अव्वल तो यह सोचना चाहिये कि दो सूत्र अलम करनेसे क्या अर्थ होता है ? और क्या अर्थ '. : + For Personal & Private Use Only k Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१ ) . होता है ? सोचने से मालूम हो जायगा कि यदि इधर एक ही सूत्र रखा जाय तो ऐसा अर्थ होगा कि उपशान्तमोह और क्षीणमोहको धर्मध्यान होता है और यदि वे उपशान्तमोह और क्षीणमोह पूर्वश्रुतको धारण करनेवाले होवें तो उन्होंको शुक्लध्यानके आदिके दो ध्यान होते हैं, याने उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय जीव भी पूर्वके श्रुतके धारण करनेवाले न हों तो उनको न शुक्लध्यान होवे. इधर यह बात तो दोनों फिरकेवालोंको मान्य ही है कि शुक्लध्यानके पेश्तर दो भेदका ध्यान होने बाद ही केवलज्ञान होता है. याने ध्यानान्तरिकामें ही केवलज्ञान होना दोनों मंजूर करते हैं. यह भी बात दोनों मंजूर ही करते हैं कि सामान्यसे अष्टप्रवचनमाताको जाननेवाले त्यागी भी केवलज्ञानको पा सक्ते हैं. अब इन बातोंको समझनेवाले फ़ौरन निश्चय कर सकेंगे कि ये सूत्र अलग ही होने चाहिये. याने दोनों सूत्र अलग करनेसे ऐसा अर्थ होगा कि उपशान्तमोह और क्षीण मोहको धर्मध्यान भी होता है और अन्तिमभागमें शुक्लध्यानके भी आदिके दो भेद होते हैं, और यदि पूर्वश्रुतके धारण करनेवाले और भी याने उपशान्तमोह और क्षीणमोहके सिवाय के अप्रमत्तसंयतादि होवें उनको भी शुक्लध्यानके आदि के दो भेद हो सकते हैं. अब इस तरहसे अर्थ होने में किसी भी तरहका मन्तव्य का विरोध न होगा. इस सबसे मानना चाहिये कि इन दोनों सूत्रोंको श्रीमान्उमा For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२) स्वातिवाचकजीने अलगही बनाये हैं, और जब ऐसा निश्चय होगा तो जरूर मानना होगा कि-दिगम्बगेंने ही घोटाला करके इन दोनों सूत्रोंकों इकट्ठा करके एकही सूत्र बना दिया है: भाग्य है जगज्जीवोंका कि इन दिगम्बरोंने भगवानके भाषित सूत्र मंजूर नहीं रखे हैं. अन्यथा एक दोसौ श्लोकके तत्वार्थसूत्र में इतना घोटाला दिगम्बरोंने कर दिया है तो फिर वे लोग सूत्रको मंजूर करते तब तो बडे बडे सूत्रोंमें क्या क्या घोटाला नहीं कर देते ? __(२५) दसवें अध्यायमें श्वेताम्बरलोग 'मोहक्षया ज्ञानदर्शनावरणांतरायक्षयाच्च केवलं' 'बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां' और 'कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः' इस तरहसे तीन सूत्र मानते हैं. तव दिगम्बरलोग 'मोहक्षयाज् ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच कैवलं' 'बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः' इस तरहसे दो सूत्र मानते हैं. अब वास्तवमें इधर तीन सूत्र हैं कि दो सूत्र हैं इसका निर्णय करना जरूरी है. यद्यपि इधर दो सूत्र माने या तीन सूत्र माने, लेकिन एक भी बातका इन दोनों फिरकों में फर्क नहीं है जितनी बाबत श्वेताम्बर मानते हैं उतनी ही दिगम्बर मानते हैं, लेकिन श्वेताम्बरोंके हिसाबसे यह रिवाज है कि सूत्रभेद करे, या सूत्र और अक्षर भेद नहीं करते भी अर्थको भेद करे तो प्रायश्चित्तापत्ति कम नहीं है. अस्तु. लेकिन इधर भेद किसकी तरफसे हुआ ? तीन सूत्र For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) करनेवालेकी तरफसे यह भेद हुआ है कि दो सूत्र करनेवाले दिगम्बरों की तरफसे यह भेद हुआ है।, दिगम्बरोंके हिसाबसे सोचें तब तो समग्र कर्मका विनाश होवे उसीमें बन्धहेतुका अभाव और निर्जरा ये दोनों कारण होते हैं. याने मोह ज्ञानावरण दर्शनावरण और अंतरायके क्षयके कारणमें बन्धहेतुका अभाव और निर्जरा समाविष्ट नहीं किये हैं, क्योंकि दिगम्बरोंने 'बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां' इस वाक्यको न तो स्वतन्त्र सूत्रके रूपमें रखा है और न 'मोहक्षयात.' इत्यादिसूत्र में लगाया है. याने समग्रकर्मके क्षयरूप मोक्षको प्रतिपादन करनेवाले सूत्रमें मिला दिया है. यदि ऐसी शंका होगी कि जैसे दिगबरोंके हिसाबसे बंधहेतुके अभावादि कारण मोक्षके साथ लगेंगे और मोहक्षयादिके साथ नहीं लगेंगे, वैसेही श्वेताम्बरोंके हिसाबसे भी बन्धुहेतुके अभावादि कारण केवल मोहक्षयादिके साथ ही लगेंगे, लेकिन मोक्षके साथ नहीं लगेंगें. परन्तु यह शंका करना लाजिम नहीं है. कारण कि असल में तो दोनों ही -फिरकेवाले यह मंजूर करते ही हैं कि संसारकी असली जड चारघातिकर्म और उसमें भी असल में मोहनीयकर्म ही है, और मोहनीयादिकके क्षयमें बन्धहेतुका अभाव और निर्जरारूप कारण दिखानेकी जरूरत है, दूसरी बात यह भी है कि किसी भी कर्मकी स्थिति बांधना होवे तो उसमें मोहनीयकी ही जरूरत है, और मोहनीयका अभाव होजानेसे किसी भी For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) कर्मका स्थितिबन्ध होता ही नहीं है. इससे मोहादिकका क्षय होने बाद वेदनीयादि अघाति के क्षयमें कुछ वैसे हेतुकी जरूरत नहीं रहेगी. इतना होने पर भी श्वेताम्बरों की मान्यता के अनुसार तो मोहादिक्षयमें और कृत्स्नकर्मके क्षयमें दोनोंमें भी बन्धहेतुका अभाव और निर्जरा यह हेतु हो सकेगा. सबंब कि' बन्धहेत्वभावο' "यह अलग सूत्र बीच में रक्खा है. और अलग बीच में सूत्र होनेसे देहली दीपक आदि न्यायसे दोनों ओर लगेगा याने मोहादिक्षय से केवलज्ञान होता है, लेकिन मोहादिका क्षय तो बन्धके हेतुओंका अभाव होनेसे और निर्जरा होनेसे ही होता है, यह भी अर्थ होगा. . दोनों फिरकेवालोंको यह बात तो मंजुर ही है कि केवलज्ञान पानेवालेको दशवें गुणठाणेसे पेश्तर ही मोहका बन्ध नाश पाता है और दशवें गुणठाणमें सत्ता में रहा हुआ भी मोहनीय कर्म नाश पा जाता है, इसी तरहसे दशमें गुणस्थानकी आखिर होते ज्ञानावरणादिके बन्धकी दशाका भी अंत होता है, और बारहवें गुणस्थान में शेष सत्ता में रहे हुए ज्ञानावरणादिघातिकर्म की सत्ता भी निर्मूल होती है. इससे मोहादिक्षय में ही यह लगाना लाजिम है. समग्रकर्मक्षयरूप मोक्ष के लिये तो केवलज्ञान होने बाद सातवेदनीयसे शेष अघातिया घातिकर्म के बन्धका कोई सबबही नहीं है, और वेदनीय आयु नाम और गोत्रकी निर्जरा हुई है. लोकं इससे घाति अघाति दोनोंके साथ बन्ध • For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५) हेतुका अभाव और निर्जरारूप हेतुको लगा सकेंगे लकिन कैवल्यहोनेमें जितने प्रतिबन्धक हैं उन सबका बन्धहेतुका अभाव और उन कमोंका निर्जरण केवलज्ञानके पूर्व अनन्तर कालमें रहता है. समप्रकर्मका अभावरूप मोक्ष होनेमें समग्रकर्मके बन्धहेतुका अभाव तो और और गुणस्थानके काल में है और समप्रकर्मका निर्जरण भी और और गुणस्थानकोंमें हैं. याने मोक्ष होनेके अनंन्तर पश्चात्कालमें न तो समग्रकर्मके बन्धहेतु थे, और न समग्रकीकी निर्जरा भी अनन्तर पश्चात्कालमें होती है. इसीसे श्वेताम्बर लोग इस 'बन्धहेत्वभाव.' सूत्रको दोनों में याने केवलज्ञानके कारण मोहादिकके क्षयमें और सकलकर्म मोक्षमें लग सकने पर भी लगाते नहीं हैं सिर्फ पेश्तर सूत्र में कहे हुए केवल. ज्ञान के कारणरूप मोहादिकके क्षयमें ही हेतुपनसे लगाते हैं. और यही युक्तियुक्त होनेसे मोक्षके सूत्रमें उसको शामिल करना यह दिगम्बरोंका भवभयनिरपेक्षतासे भरा हुआ अन्याय है। ... (२६ ) दशवें अध्याय में मोक्षके लक्षणके बाद दिगम्बरों ने सूत्र ऐसे माने हैं कि 'औपशमिकादिभव्यत्वानां च' 'अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः' याने इन दोनों भागके दो सूत्र माने हैं. वेताम्बरोंने इस स्थानमें 'औपशामकादिभव्यत्वाभावाच्चान्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः' ऐसा एकही सूत्र माना है. इस स्थानमें भी यही सोचनेका है कि दिगम्बरोंने असलके एकसूत्रके दो सत्र किने या For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) श्वेताम्बरोंने दो सूत्र अलग अलग थे उनको मिलाकर एक करं दिया ?, अकलमंद आदमी समझ सकता है कि इधर असल अलग अलग सूत्र होगा ही नहीं. और यह सोचना जरूरी है कि सूत्रकार 'अन्यत्र' शब्द करके जो अपवाद बताते हैं वह एकसूत्र होता है तभी होता है अलग २ सूत्र होते तब तो एक नकारसे ही अपवाद दिखा सकते थे. सूत्रकारकी शैली - भी यही है. देखिये ( ३३७ ) 'भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोअन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः' इस तीसरे अध्याय के सूत्रमें भरतादिकक्षेत्रोंका कर्मभूमिपनका विधान करते देवकुरु आदिमी महाविदेहांतर्गत होनेसे कर्मभूमि हो जाते थे, इससे इधर 'अन्यत्र ' ऐसा कहकर देवकुरुआदिको वर्जित किया है. इसी तरह से इधर भी साफ समझने का हैं, याने औपशमिकादिकभावका सर्वथा अभाव कह देने में केवलसम्यक्त्वज्ञानादिकका अभाव भी होजाता था इससे सूत्रकारमहाराजने 'अन्यत्र केवल' इत्यादि कहकर उन सम्यक्त्वादिकका जो अभाव होता था वह रोक दिया यह रिवाज इधर तत्त्वार्थकार महाराजने ही रक्खा है, ऐसा नहीं है, किन्तु वैयाकरणाचार्योंने भी यही रिवाज रखा है. और इसीसे ही उन वैयाकरणाचार्योंने 'संप्रदानाच्चान्यत्रणादयः' इत्यादि सूत्र इकट्ठे ही किये हैं, याने इन दोनों भागों को अलग अलग करके दो सूत्र बनाना यह उचित ही नहीं है: कितनेक तो इतना तक कहनेवाले मिलेंगे कि जब For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेशरके सूत्रसे औपशमिकादिक सर्वभावका निषेध होगया तो पीछे दूसरे सूत्र में 'अन्यत्र' आदि कहनेसे क्या होगा ? याने देवदत्तका मरण होजाने बाद उसके मारनेवालेको मार दें तो क्या देवदत्त जिन्दा हो जायगा ? देवदत्तके जिन्दा रहते हो. मारनेवाला मारा जाय तो देवदत्त बच सक्ता है. इसी तरहसे इधर भी आद्यसूत्रसे औपशमिकादिकभावोंका निषेध कर दिया तो फिर दूसरे 'अन्यत्र.' इस सूत्रसे क्या होगा ? यांने न तो ऐसे स्थान में दो सूत्र करनेका इन आचार्यभगवानका नियम है, और अन्यआचार्य भी ऐसे अलग सूत्र नहीं करते हैं. और निषेध करके फिर दूसरे सूत्रसे अन्यत्र कहकर रुकनेकी योग्यता भी नहीं है. इससे इधर दो सूत्र अलग करना लाजिम ही नहीं था अब ये सूत्र अलग करने योग्य नहीं थे इतनाही नहीं, लोकिन अलग करने में दिगम्बरोंको कितना हरज होता है वह देखिये. दिगम्बरोंने 'औपशमिकादिभव्यत्वानां च ऐसा सूत्र बनाया है इस सूत्रमें षष्ठीका अन्वय कहां करना उसका पता ही नहीं है. यदि कहा जाय कि इसके पेश्तरके 'कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्ष: इस सूत्र में विप्रमोक्ष शब्द है उस की अनुवृत्ति करेंगे और उससे यह अर्थ होगा कि औपशमि कादिक भावोंका भी विप्रमोक्ष होजाना उसका नाम मोक्ष है. लेकिन यह कहना नियमसे विरुद्ध है, क्योंकि विप्रमोक्ष शब्द जो हे वह कृत्स्नकर्मके साथ समाससे लगा हुआ है, और For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८ ) समस्तपदकी अनुवृत्ति नहीं हो सकती है. क्योंकि 'सनियोगः शिष्टानां सहैव प्रवृत्तिः सहैव निवृत्तिः' याने एकपदसे कहे हुए पदार्थकी साथही प्रवृत्ति होती है. और साथही निवृत्ति होती है, तो इधर अकेले विप्रमोक्षपदका अनुवर्तन कैसे होगा ? एक बात और भी सोचने की है कि कर्मका नाश करने के लिये प्रयत्न किया गया था और उससे सकलकर्मका विप्रमोक्ष हुआ, इस तरहसे क्या औपशमिकादिकभावोंके नाशके लिये प्रयत्न करनेका है ?; कहना होगा कि औपशमिकादिक जो भाव हैं वह कर्मोंकी तरह हेय और प्रयत्न करके क्षय करने योग्य नहीं है. तो फिर इधर विप्रमोक्षशब्दकी अनुवृत्ति कैसे होगी ?.. ... दसरा यह भी है कि जब भव्यशब्दके आगे स्वरूपकों सचित करनेवाला त्वप्रत्यय तुमने लगाया तो फिर बहुवचन कैसे लगाया ? याने 'भव्यत्व' ही कहना लाजिम था. साथमें यह भी सोचनेका है कि औपशमिकादिभावोंका सर्वथा विच्छेद लेना होवे तभी 'अन्यत्र' कहकर अपवादकी जरूरत है. कितनेक भावोंका व्युच्छेद कहना होवे तो 'अन्यत्र' करके अपवाद दिखानेकी जरूरत ही नहीं है याने मतलब यह है कि जब तक संसारसमुद्रमे पार न पाये और मोक्ष न हुआ तब तक औपशमिकादिक पांच भाव जो दूसरे अध्यायमें कहे हैं उन्होंका यथायोग्यतासे सद्भाव होता है. लेकिन मोक्ष होनेके वक्त उन पांचोंमेंसे सिर्फ केवलसम्यक्त्वादिक ही भाव रह For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर और भाव सब निवृत्त होजाते हैं. इस बातको समझनेवाले मनुष्य अच्छी तरहसे समझ सकेंगे कि श्वेताम्बसेंने जो 'औपशामिकादिभव्यत्वाभावाच्चान्यत्रः' इत्यादि एक ही बन रख है यही लाजिम है, और श्रीउमास्वातिमहाराजका किया हुआ भी ऐसा ही सूत्र होना चाहिये. इस सूत्र में पंचमी विभकिस निर्देश है और वही युक्त है. सबब कि औपशमिकादिभव्यत्व के अभावसे मोक्ष होता है, तो उसको हेतु मानना और उससे मोक्ष होना योग्य होगा. लोकन यदि 'भव्यत्वानां च ऐसा करके षष्ठीविभक्ति माने और उनके विप्रमोक्षको मोक्ष माने को औषशमिकादिकभाव मोक्षके समकालीन बन जायमा. और वह तो किसी भी तरहसे इष्ट नहीं होगा. इस स्थानमें शंका जरूर होगी कि औपशमिकादिके और भव्यत्वके अभावकी क्या जरूरत है , क्योंकि ज्ञानावरणादिक तो बानमालिकों रोकनेवाले होनेसे उनका अभाव होना जरूरी है. लेकिन औपशामिकादिक और भन्यत्व किसको सेकनेवाले हैं कि जिसः से उनका अभाव मोक्षका साधन माना जाय?, इसके समाधान में समझनेका यह है कि औपशमिकादिभाव कर्मके उपशमक्षयोपशमादिसे होते हैं, और मोक्ष होनेके वक्त बो जीव-सर्वन प्रतिबंधकसे मुक्त हैं, इससे मुक्तजीवोंको से वाधिक ही मार होता है. और उनमें भी दानादिककी जो कि को साबले भी होने वाले है की-माति नहीं होती For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ९० ) इससे केवलसम्यक्त्वादिकके सिवाय सब औपमिकादिकका अभाव होना वह मोक्षका सबब दिखाया. इधर भव्यत्वका अभाव दिखाया उसका सबब यह है कि भव्यत्व जो है वह कारणदशा याने मोक्षपानेकी योग्यताका नाम है, और मोक्षरूप कार्य जब होगया तो अब कारणदशा न रही इससे उस भव्यत्वकाभाव कहना ही होगा जगत्में भी वृक्ष या स्कन्धके वक्त अंकुरदशा नहीं रहती है. उसी तरहसे इधर भी मोक्षके वक्त भन्यत्व न रहे यह स्वाभाविक है. और इसीसे ही इधर भव्यत्वपनका अभाव भी मोक्षका हेतु माना है. जीवपणरूप पारिणामिकमाव ठहरनेका होनेसे भव्यत्वका अभाव स्पष्टशब्दसे दिखाया, यह तो स्वाभाविक ही है। ... (२७) दशवें अध्यायमें ही पूर्वप्रयोगादसंगत्वा.' इत्यादि सूत्रके आगे दिगम्बरोंने 'आविद्धकुलालचक्रवद् व्यपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च' ऐसा सूत्र माना है. श्वेताम्बर लोग इस सूत्रको मंजूर नहीं करते हैं. श्वेताम्बरोंका कथन ऐसा है कि आचार्यमहाराज सरीखे संग्रहकार अपने बनाये हुए सूत्र में दृष्टान्तका सूत्र बनावें यह असंभक्ति ही है. यदि दृष्टान्त देना और दृष्टान्तसे पदार्थकी सिद्धि करनी इष्ट होती तो पेश्तर प्रमाणके अधिकारमें हेतुदृष्टान्तादि कहते, उपमान और आगमप्रमाणका भी स्वरूप कहकर दृष्टान्तके साथ निरूपण करते. कुछ नहीं तो धर्मास्तिकायादिकके निरूपण For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९१) में तो दृष्टान्तादि जरूर दिखाते. लोकन् किसी भी स्थानमें दृष्टान्त दिखाया नहीं है. तो इधर अत्यन्तसुगमस्थानमें दृष्टान्त दिखाना यह सूत्रकारमहाराजको कैस उचित होवे ? इधर अक्षपादादि सूत्रकार भी अपने किये हुए सूत्रोंमें इस तरहसे दृष्टान्त नहीं दिखाते हैं तो फिर इधर संग्रहकार होकर दृष्टान्त दिखाने के लिए सूत्र कहें यह कैसे संभवित हो सकता है ? यद्यपि दूसरे सूत्रकार दृष्टान्तबलसे याने बहियाप्तिसे पदार्थकी सिद्धिको माननेवाले होनेसे दृष्टान्तका सूत्र कहभी सक्त हैं, तथापि वे लोग सूत्ररचनाके वक्त दृष्टान्तको मुख्य पद नहीं देते हैं, तो फिर जैनाचार्य जो अन्तयाप्तिसे ही याने अन्यथाऽनुपपत्तिसे ही साध्यकी सिद्धि मानने वाले होकर ऐसे लघुग्रन्थमें दृष्टान्तादिकको डालें यह कैसे संभवित हो सकता है ?, मान लिया जाय कि मोक्षकी स्थिति अत्यन्त उपादेय होनेसे उसकी सिद्धिके लिये दृष्टान्तादि जरूर जताना चाहिये तो फिर 'पूर्वप्रयोगा' इत्यादिसूत्र में ही दृष्टान्त कह देना लाजिम होवे, याने 'कुलालवक्रवत्पूर्वप्रयोगादलाबुवदसंगत्वादेरण्डवीजवदन्धच्छेदादग्निशिखांवत्तथागतिपरिणामाच्च तद्गतिः' ऐसा ही कहना लाजिम था. क्योंकि दृष्टान्तका सूत्र अलग करनेसे सभी हेतु अर्थान्तरसे दुबारा कहना पड़ा है. संग्रहके हिसाबसे बार बार वत्प्रत्यय और बार बार पंचमीका कथन करके हेतुका प्रयोग दिखानेका भी For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . नहीं था, किन्तु 'पूर्वप्रयोगासंमत्वबंधच्छेदतथागतिपरिणाश्वकालाब्वेरण्डाग्निशिखावद्' इतना ही कहना लाजिम था. 'क्योंकि यथासंख्यपनसे हेतुदृष्टान्तोका समन्वय और सोपस्कार ही सूत्र होनेके नियमसे यथार्थ व्याख्या हो जाती. - इस स्थानमें श्वेताम्बरोंके हिसाबसे 'पूर्वप्रयोगादित्यादि मैं हरएक पद पर पंचमीका प्रयोग क्यों किया गया है ? यह 'भी सोचनेका ही है. वे श्वेताम्बरलोग उस सूत्र में आखिरमें "तगतिः ऐसा पद मानते हैं. और उसकी हयाती होनेकी 'जरूरत यों मानते हैं कि आगेके याने चतुर्थसूत्रमें 'गच्छत्यालोकान्तात्' इस स्थानमें गतिका अधिकार आगया है और पर भी गति ही पूर्वप्रयोगादिकसे सिद्ध करनी है तो फिर 'तनतिः' यह पद लेनेकी कुछ जरूरत नहीं थी. लेकिन इधर जी तहतिः' पद सूत्रकारने लिया है इसका मायना यह है कि सिद्धमहाराजकी कर्मक्षय होनेसे अचिन्त्यपनसे गति होती है, और उस गतिके सघवको अपन नहीं जान सकते हैं तथापि यह समाधान श्रद्धानुसारि सज्जनोंके लिये ही उपयोगी होगा, लेकिन तर्कानुसारियों के लिये सबब दिखानेकी जरूरत है ऐसा मानकर यह सूत्र बनाया है. और इधर तानुसारीके लिये हेतु दिखानेको सभी हेतु अलग अलग दिखाये हैं. क्योंकि कोई किस हेतुसे समझे और कोई किस हेतुसे समझे, इसीसे ही तो एकहतुके प्रयोग पर दूसरे आदि हेतु करने पर भी दूषण For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९३ ) . नहीं होता है, अन्यथा एकहेतुसे साध्यकी सिद्धि होने पर अन्यहेतुओंका प्रयोग करना न्यायशास्त्र से विरुद्ध है, असल में तो यह गति अचिन्त्यस्वभावकी स्थितिसे ही है, अन्यथा अधोलौकिकग्रामोंसे सिद्धि पानेवाले में और ऊर्ध्वलोकमें सिद्धि पानेबाले में पूर्व प्रयोगादिका तारतम्य मानना होगा, जो कि किसी तरहसे इष्ट नहीं है. इसी कारण से तो पेश्तर के सूत्र में 'गच्छति' ऐसा प्रयोग रक्खा है, और इधर 'तद्गतिः यह अलग पद रक्खा है इतनाही नहीं, बल्कि पेश्तरके सूत्र में 'आलोकान्तात्, ऐसा पद लगाकर सूत्रकारने सिद्धमहाराजकी गतिका विषय शास्त्रकी अपेक्षासे वहां ही खतम किया है, अन्यथा चौथा - सूत्र अलग नहीं करते. दोनों सूत्र एकत्र करके 'तदनन्तरमाको कान्तादूर्ध्वं पूर्वप्रयोगादिम्यो गतिः' इतना ही कहना बस होता, और दाखला भी देना होता तो 'चक्रादिवत्, इतना ज्यादा लगा देते. लेकिन सूत्रकारमहाराजने अधिकारिभेद से अलग अलग सूत्र किये हैं. इसी तरहसे प्रथमाध्यायमें भी सूत्रकारमहाराजने 'निर्देशस्वामित्व ० ' सूत्र और 'सत्संख्या ' ० ये सूत्र अलग २ किये और श्रद्धानुसारि व तर्कानुसारिको ऐसा करके ही समझाये हैं, याने इधर तर्कानुसारिके लिये अलग सूत्र किया और गतिकी सिद्धि की, इससे 'तङ्गतिः' पद धरनेकी जरूरत है. ऐसा भी नहीं कहना कि जब तर्कानुसारियोंके लिये सिद्धमहाराजकी गतिकी सिद्धि के लिये हेतुकी जरूरत श्री तो For Personal & Private Use Only " Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९४) हेतु दिखा दिये, लोकन 'तद्गतिः' इस पदसे क्या फायदा है ? इसका समाधान यह है कि पहिले 'गच्छति' ऐसा पद धरा है वह तो यथावस्थितस्वरूप व्याख्यानके लिये है और सिद्धोंकी गति सुनने बाद शंका होवेके उन सिद्धमहाराजको न तो कोई सिद्धक्षेत्रमें लेजानेवाला है, और न कोई कर्मका उदय है, न इधरसे फेंकनेवाला या भेजनेवाला है, तो फिर उनकी गति किस सबबसे होती है ? ऐसी शंकाके समाधान के लिये इन हेतुओंका कथन करना और 'तद्गतिः' यह पद कहना लाजिम ही है. ऐसी भी शंका नहीं करना कि जब तर्कानुसारियोंके लिये हेतुओंका कहना और 'तद्गति' पद धरना लाजिम है तो फिर उनके लिये ही दृष्टान्त कहना क्यों जरूरी न होगा ? क्योंकि 'सकषायत्वात् ' सूत्र में जैसे हेतु कहने पर भी दृष्टान्त . नहीं लिया इसी तरह इधर भी दृष्टान्त नहीं लिया है. - (२८) दशवें ही अध्यायमें दिगम्बरलोग 'आविद्धकुलालचक्रवदित्यादि' सूत्रके बाद 'धर्मास्तिकायाभावात्' ऐसा सूत्र मानते हैं. यह सूत्र दिगम्बरोंने किस रीतिसे डाल दिया इसका पता नहीं है सबब कि पेश्तरके 'पूर्वप्रयोगा०' और 'आविद्धकुलालचक्र०' इत्यादि इन दो सूत्रोंसे सिद्धमहाराज की लोकान्त तक ऊर्ध्वगति होनेका हेतु और दृष्टान्त दिखायाहै. और उस गतिमें यदि हेतु लिया जाय तब तो यही कहना होवे कि 'तावद्धर्मास्तिकायात्' याने लोकान्त तक ही धर्मा For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९५ ) स्तिकाय है. इससे सिद्धमहाराजकी गति लोकान्त तक ही ऊर्ध्वम होवे. लेकिन इधर तो दिगम्बरोंने सूत्र उलटा धर दिया है याने हेतुमें कहा कि धर्मास्तिकायका अभाव है. तो क्या धर्मास्तिकायके अभावसे सिद्धोंकी ऊर्ध्वमें लोकान्त तक 'गति होती है ऐसा मानते हैं ? कभी ऐसा मानना नहीं होगा. आगे ही पांचवें अध्यायमें साफ २ कहा है कि 'गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः' याने जीव और पुद्गलोंकी गतिमें धर्मास्तिकाय ही सहारा देता है और उन दोनोंकी स्थितिमें अधर्मास्तिकाय सहारा देता है. जब यह बात निश्चित है तो फिर धर्मास्तिकायके अभावसे सिद्धोंकी गति है ऐसा कैसे कह सकेंगे? कभी मान लिया जाय कि संसारीजीवोंकी गतिमें धर्मास्तिकाय कारण है. परन्तु सिद्धमहाराजकी गतिके लिये धर्मास्तिकायको हेतु माननेकी जरूरत नहीं है. लेकिन ऐसा कोई भी फिरकेवाला मानता नहीं है. यदि ऐसा मान लिया जाय और इसीसे ही सिद्धमहाराजकी गतिमें धर्मास्तिकायके अभावको हेतु मान लिया जाय तो पेश्तर तो. खुद सरकारने कही हुई लोकान्ततककी ऊर्ध्व गति ही नहीं रहेगी. सबब वह है कि लोकान्त तकके सर्व स्थानमें धर्मास्तिकाय व्याप्त ही है. सूत्रकारमहाराजनें भी 'लोकाकाशेवगाह' 'धर्माधर्मयोः कृत्स्ने' .यह कहकर समग्रलोकमें धर्मास्तिकायका होना मंजूर किया है. तो फिर लोकान्त तक भी मुक्तोंकी गति कैसे होगी? For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस सब झंझटसे छूटने के लिये एक ही रास्ता है और वह यहे है कि धर्मास्तिकायका अभावरूप हेतु सिद्धमहाराजकी गतिमें नहीं रखना. क्योंकि धर्मास्तिकायका अमाव तो सर्वअलोकमें है और धर्मास्तिकायके अभावसे सिद्धमहाराजकी गति मानें तो उन्होंकी गति मब अलोकमें होवे, और अलोकाकांशका अन्त ही नहीं है. जिससे सिद्धमहाराजकी हरदम गति होती ही रहे. इस हेतुसे सिद्धमहाराजकी गतिमें धर्मास्तिकायके अभावको कारण नहीं माननाही लाजिम है, किन्तु लोकान्तसे आगे धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे लोकान्तसे आगे सिद्धमहाराजोंकी गति नहीं है, ऐसा दिखानेके लिये यह सूत्र है. याने धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे सिद्धकी आगे गति नहीं होती है. यद्यपि इस तरहसे दिगम्बरोंका मानना लाजिम हो जावे, लेकिन सूत्र इस बातको अनुकूल नहीं गिनता है, क्योंकि इससूत्रमें सिद्धमहाराजकी गतिका अधिकार है किन्तु अलोकमें सिद्धगतिके अभावको सूचित करनेवाला शब्द भी नहीं है. कमी श्वेताम्बरोंने 'तद्गतिः' ऐसा पद 'पूर्वप्रयोगा' सूत्र में रक्खा है और उधर 'सद्' शब्द जैसा सर्वनाम है और मिन मिन्न विभक्तिसे ही और २ अर्थको देता है. उसी तरहसे 'तद्' शब्द अव्यय भी है और अव्ययसे आगे आई हुई सब विभक्तियां उड जाती हैं, लेकिन वे उडी हुई विभक्तियां अपने अर्थको दिखाती हैं इससे अर्थ करने में 'तद्' शब्दको अव्यय ले लें तो. सिद्धोंका अधिकार तो आ For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९७ ) जायगा. लेकिन गति होनेकी ही बात रहेगी यनि गति नहीं होनेकी तो बात किसी भी तरहसे रह सके ऐसी नहीं है. इस सबबसे साफ सबूत होता है कि किसी दिगम्बरने अपनी अकलकी न्यूनतासे पूर्णतया सोचे बिना ही यह सूत्र इधर बढा दिया है, श्वेताम्बरलोग तो इस सूत्रको मंजूर नहीं करते हैं. उपर्युक्त २८ मुद्दोंको सोचनेवाले मनुष्यों को साफ साफ मालूम हो जायगा कि दिगम्बरोंने अपनी बदद्यानतसे या अकलकी न्यूनतासे एक छोटेसे ही तत्वार्थसूत्र में कमबेशीपना करके स्वच्छन्दताका राज्य जमाया है. जिस तरहसे इन दिगम्बरोंने असली सूत्रोंको उडाकर तथा नये सूत्रोंको डालकर सूत्रमय ग्रन्थमें घोटाला, किया है उसी तरहसे इन दिगम्बरोंने श्रीमान्उमास्वातिकाचकजीमहाराजके बनाये हुए इस तत्त्वार्थग्रंथके सूत्रोंको भी स्थान: स्थान पर न्यूनाधिक करके पूरा घोटाला कर दिया है. यह बात वाचकोंको आगेके लेखसे साफ मालूम हो जावेगी। इस तत्त्वार्थ सरीखे एक दो सौ श्लोकके ग्रन्थमें दिगम्बरोंने सूत्रोंका सर्वथा बढाना और घटाना कितना जबरदस्त कर दिया है। यह बात उपर्युक्त भागसे साबित कर दी है. अब इन्हीं दिगम्बरोंने इसी तत्त्वार्थमें कौन २ सूत्रोंके पाठमें न्यूनान धिकता की है, यह दिखलाया जाता है, यद्यपि इन्होंने के स्थानमें 'व' और 'त' के स्थानमें 'द' अपायके स्थानमें बवाल For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९८ ) और औपपातिकके स्थान में औपपादिक आदि की माफिक करके पलटा किया है, लेकिन उस बातको व्यंजनभेद करना यह जैनमजहब के हिसाब से बडा दोष होने पर भी गौण करके इधर तो जिधर व्यंजनभेद और अर्थभेद दोनों होवे वैसा ही स्थान दिखाकर समालोचना की जायगी । का १ प्रथम अध्याय में इन लोगोंने 'द्विविधोऽसूत्रपाठीं वधिः,' ऐसा सूत्र नहीं माना, इसी ही कारणसे विपर्यास उन्होंने 'भवप्रत्ययो नारकदेवानां', ऐसे सूत्रके * स्थान में 'भवप्रत्ययोsवधिर्देवनारकाणां', ऐसा माना है. याने पेश्तर अवधि के भेदको दिखानेवाला सूत्र न मानकर इधर अवधिज्ञानका अधिकार न होनेसे अवधिका अधिकार दिखानेको अवधिशब्द दाखिल किया. यद्यपि अवधि के अधिकारको दिखानेका सूत्र न करके इधर अवधि - शब्द कहने से अवधिका अधिकार आजायगा. लेकिन आगेके सूत्रमें अवधि अधिकारको सूचित करनेके लिए अवधिशब्द कहांसे आयेगा ? दो भेदको दिखानेवाला सूत्र मान लिया तब तो एक भेद भवप्रत्ययका दिखाया, बादमें दूसरा सरे सत्र से दिखाना होनेसे अवधिशब्दकी जरूरत दूसरे में होगी. लेकिन अधिकारसे ही अवधिशब्द आ जायगा. यद्यर्षि अवधिप्रदकी अनुषृत्ति इधर सूत्रमें आ For Personal & Private Use Only : Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९९ ) सकती है, लेकिन सूत्रकार महाराजकी शैली ऐसी है कि अनु. वृत्ति करने के लिये प्रयत्न करना. जैसे दूसरे अध्यायमें औपशमिकके भेदकी संख्यामें सभ्यत्व और चारित्र कहे और पीछे उनको क्षायिकके भेदमें भी लेना था तो वहां पर अनुवृत्तिदिखानेके लिये चशब्दको दाखिल किया. इधर पेश्तरके अध्यायमें ही 'मतिः स्मृतिः०, इस सूत्र में मतिका निरूपण करने पर भी आगे मतिज्ञान लेना था तो 'तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं' ऐसा सूत्र कहकर तत्शब्दको दाखिल किया. इसी. तरहसे सारे तत्त्वार्थमें अधिकार और अनुवृत्ति के लिये चशब्द या ततशब्द दाखिल किये हैं तो फिर इधर इस सूत्रमें दाखल किया हुआ अवधिशब्द आगे 'यथोक्त०' सूत्र में किस तरह जायगा? यह तो अवधि शब्द इधर घुसेडनेका विचार हुआ, लेकिन इन्होंने 'नारकदेवानां', ऐसा जो पाठ इस सत्र में था वो भी पलटा दिया और 'देवनारकाणां' ऐसा पाठ कर दिया. सूत्रकारमहाराजने अधोलोक, तिर्यग्लोक और ऊलोक वैसा क्रम रक्खा है. और इसीसे ही स्थान निरूपणमें पेश्तर नास्की, पीछे मनुष्य तिर्यच और पीछे देवका निरूपण किया है. और आयुके कारणमें भी नारकादिक अनुक्रम रक्खा है. आबुकी प्रकृतियोंकों दिखाने में भी पेश्तरः नारककी ही आयुप्रकृति दिखाई है, तो इधर 'नारकदेवानां' ऐसा पद रखना यही सूत्रकारको अभिमत होना चाहिये. For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) (२) इसी सूत्रके आगेके सूत्रमें श्वेताम्बर 'यथाक्त निमित्तः ऐसा पाठ मानते हैं. तब दिगम्बर लोग 'क्षयोपशम. निमित्तः' ऐसा मानते हैं. ___ श्वेताम्बरोंका कहना है कि आगे दूसरे अध्यायमें क्षायो पशमिकके भेदोंमें अवधिज्ञानको गिनायेंगे इससे इधर 'यथोक्त. निमित्त' ही शन्द कहना ठीक है. क्योंकि यहां पर तो अपने अपने कर्मके क्षयोपशमसे मतिज्ञानादिककी उत्पत्ति इस प्रकरण में निश्चित होती है. किन्तु इधर क्षयोपशमशब्द कहने से किसका क्षयोपशम लेना यह निश्चित नहीं होगा. क्योंकि मतिज्ञानादिज्ञान और चक्षुदर्शनादि दर्शन और दूसरे भी अज्ञानादिक क्षायोपशमिक भावके हैं. और वे भी अपने अपने आवारककर्मके क्षयोपश्मसे होते हैं, तो फिर इधर किसका क्षयोपशम लेना ?, यह संदिग्धही होगा. याने क्षयोपशमकी साथ इतना जरूर. कहना होगा कि 'स्वावारकक्षयोपशमनिमित्तः' ऐसा अवधिमनुष्य तियंचको होता है, इंधर ऐसी शंका जरूर होगी कि कर्मकी प्रकृत्तिके क्षयोपशमका अधिकार अभी तक कहा ही नहीं है, तो फिर इधर 'यथोक्तनिमित्तः' ऐसा कैसे कह सके ? लेकिन ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये. इसका सबब यह है कि अव्वल तो शास्त्रकारमहाराजने. जैनशास्त्रके आधारसे ही ग्रन्थ किया है, इससे शास्त्रका अधिकार लेकर 'यथोक्तनिमित्तः' ऐसा कह सकते हैं.. व्याकरणशास्त्रादिककी तरह स्वतन्त्र For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) संज्ञादि विधान करके शास्त्र नहीं बनाया है, किन्तु जैनशास्त्रका एक भाग संगृहीत किया है. इसीसे ही तो ज्ञानादि कर्मादि लोकादि औपशमिकादि अनेक पदार्थोंके इधर स्वरूप नहीं कहे हैं. दिगम्बरोंका यदि ऐसा कहना होवे कि शास्त्र में कहे हुए बयानको खयालमें रखकर ही शास्त्रकारने 'क्षयोपशमनिमित्तः ' ऐसा कहा है. लेकिन जब शास्त्रकी अपेक्षासे इधर कहना तब तो 'यथोक्तनिमित्तः' यही कहना ठीक होगा. क्योंकि लाघव भी इसमें है और क्षयोपशमशब्द आपेक्षिक होने से अवधिज्ञानावरणको कहे बिना कैसे क्षयोपशमकी व्याख्या होगी ?. ( ३ ) इसी ही अध्यायमें मतिश्रुतज्ञानके विषयका जो सूत्र मतिश्रुतयोर्निबन्धः सर्वद्रव्येष्व सर्व पर्यायेषु' ऐसा था. उसमेंसे दिगम्बरोंने आदिका सर्वशब्द निकाल दिया और 'मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु' ऐसा पाठ किया. इस स्थान में असल मत्तिश्रुतज्ञान से सभी द्रव्य जाने जाते हैं. यह बात तो दोनों को भी मंजूर है, तो फिर सर्वशब्द निकालने की क्या जरूरत थी ?, दिगम्बरोंका कभी ऐसा कथन होवे कि 'द्रव्येषु' इतना कहने से ही सर्वद्रव्य आजायेंगे इससे 'द्रव्येषु' या 'सर्वद्रव्येषु' दोनों में से कुछ भी कहे उसमें हर्ज नहीं है. लोकन यदि ऐसा ही होवे तो फिर केवलज्ञानके विषयको For Personal & Private Use Only 1 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२) दिखानेवाले सूत्रमें 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु' क्यों कहना ? जब उधर सर्वद्रव्य और सर्वपर्यायका विषय दिखानेके लिये वहां पर सर्वशब्दको लेनेकी जरूरत है तो फिर इधर सर्वशब्दको क्यों छोड देना ?, कभी मतिश्रुतका विषय सब द्रव्य है. ऐसा नहीं मानेंगे तो इधर सर्वशब्दकी जरूरत नहीं रहती है तो यह मानना भी व्यर्थ है. सबब कि ऐसा मानने में छबस्थको मृषावादकी और परिग्रहकी विरति संपूर्ण नहीं होगी. क्योंकि मृषावाद और परिग्रह सब द्रव्य विषय है, इससे इधर सर्वशब्द जरूर रहना चाहिये. (४) दूसरे अध्यायमें क्षायोपशमिक अट्ठारह भेद दिखाते श्वेताम्बर 'ज्ञानाज्ञानदर्शनदानादिलब्धयः०' ऐसा पाठ मानते हैं. तब दिगम्बर लोग 'ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयः०' ऐसा पाठ मानते हैं. अब इधर इतनी बात तो साफ है कि दोनों फिरकेवाले आमौषधिआदि अनेक लब्धियां मानते हैं. याने अकेली दानादि पांच ही लब्धियां नहीं है. जब ऐसा है तो फिर सिर्फ लब्धिशब्द कहनेसे दानादिककी ही लब्धि लेना यह नियम कैसे होगा ? सारे तत्वार्थसूत्र में किसी भी स्थानमें इन दानादिकको लब्धि तरीके नहीं दिखाये हैं तो फिर इधर लब्धि कहनेसे दानादिक पांच ही लेना यह निश्चय कैसे होगा? और जब ऐसा निश्चय ही नहीं होगा तो फिर लब्धि शब्दके साथ पंचशब्द कैसे लगाया जायगा ? यह शंका इधर For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरूर होगी कि पेश्तरके सूत्रमें क्षायिकके नवभेद दिखाते दानादिक पांच स्पष्ट दिखाये हैं. तो इधर “दानादि' इतना ही नहीं कहते 'दानादिलब्धयः ऐसा श्वेताम्बरोंने क्यों कहा, लेकिन ऐसी शंका नहीं करना. सबब कि क्षायोपशमिकभावक दानादिक पांच प्रवृत्ति में आते हैं और जगतमें व्यवहार में भी आते हैं, इससे उसका लब्धि तरीके व्यवहार होता है और क्षायिकभावसे होनेवाले दानादिक प्रवृत्तिरूप ही होवे वैसा नहीं है, इसी सबबसे पश्तर दानादिकके साथ लब्धिशब्द नहीं लगाया और इधर क्षायोपशमिकभेदमें ही दानादिकके साथ लब्धिशब्द लगाया है यह समझ लेवें. .... . (५) दूसरे अध्यायमें ही औदयिकके इक्कीसभेदों में श्वेताम्बरोंने 'मिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धत्व'. ऐसा पाठ माना है. तब दिगम्बरोंने 'मिध्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्ध.' ऐसा पाठ माना है. याने श्वेताम्बरोंने 'त्व' प्रत्यय मानकर असंयतत्व और असिद्धत्व माना है. दिगम्बरोंने त्यप्रत्यय नहीं लिया है, इससे असंयत और असिद्धको औदयिक मानना होगा, लेकिन वह लाजिम नहीं होगा, क्योंकि असंयत और आसिद्ध ऐसे तो जीव आयेंगे, और जीव तो औदयिकभावसे नहीं है. यदि भावप्रधान निर्देश मानके इधर असंयतत्व और असिद्धत्वको लेना है तो पीछे 'त्व' प्रत्यय ही कहना क्या पुरा था , और त्वप्रत्यय था उसको क्यों उड़ा दिया शास्त्र For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) कारने इसी ही अध्याय में भव्यत्व०' में त्वप्रत्यय लिया है और दश अध्यायमें भी 'भव्यत्व' कहा ही है, याने शास. कार त्वप्रत्ययको स्पष्टपणेसे कहते ही हैं तो पीछे इधर क्यों न कहेंवे ? दूसरे अध्यायके पारिणामिकभावको दिखानेवाले सूत्र में श्वेताम्बरों 'जीवभव्याभव्यत्वादीनि च ऐसा सूत्र मानके आदिशब्दसे असंख्यातादिप्रदेशादि लेते हैं जब दिगबरलोग 'जीवभव्याभव्यत्वानि च' ऐसा मानते हैं, यद्यपि दिगंबरलोग भी भव्यत्वादिककी तरह असंख्यप्रदेशत्वादि मी पारिणामिग है ऐसा तो मानते हैं, लोकन इधर आदिशब्दका होना नहीं मंजूर करते हैं, इधर कभी ऐसी शंका होवे के यदि इघर आदिशब्दसे और भेद लेने हैं तो पीछे वे स्पष्ट ही क्यों नहीं कहे ? सूत्रकारने उद्देशकी वक्त भी क्यों नहीं किये, कहते समय पारिणामिकके तीन ही भेद क्यों लिए? लेकिन यह शंका नहीं करनी, शंका नहीं करनेका सबब यह है के असंख्यप्रदेशादिकभाव पारिणामिक होने पर भी असाधारण नहीं है, इससे स्पष्टशब्दसे नहीं दिखाये, और भेदकी गिनतीमें भी नहीं लिये. लोकन उनके लिये इधर सूचना भी नहीं करना यह कैसे ठीक होगा ? अंतमें से जीवके लिये जीवत्व अनादिपारिणामिक है उसी तरहसे अजीवका अज़ीवत्व भी पारिणामिक भाव अनादि है, उसको भी दिखाने के लिये आदिशब्दकी जरूरत थी.. . (६) इसी दूसरे अध्यायमें श्वेताम्बर 'पृथिव्यवनस्पतयः For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थावराः' और 'तेजोवायू द्वीन्द्रियादग्रश्च त्रसा: इस तरहले अस और स्थावरका विभाग करके पृथ्वीकाय, अपकाया और वनस्पतिकाय इन तीनको स्थावर और तेउकाय, वायुकाय और पेइंद्रियआदिको स मानते हैं और इसीसे ही आगे इन्द्रियके सूत्र में 'वाय्वन्तानामेक ऐसा सूत्र मानते हैं। याने पृथ्वी कायसे लगाकर वायुकाय तकके जीवोंको एक ही स्पर्शनेन्द्रिय है, ऐसा श्वेताम्बरोंका मन्तव्य है, जब दिगम्बर लोग 'पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावरा" . 'द्वीन्द्रित्यादयसमा और 'वनस्पत्यन्तानामेकं ऐसे क्रमसे तीन सूत्र उसके स्थानमें मानते हैं. असल में इन दोनों में इन्द्रियके विषयमें तो मन्तव्य भेद नहीं है, लेकिन त्रससंज्ञा कितनी कायको होवे और स्थावरसंज्ञा कितनी कायको होवे इसमें दोनोंका मतभेद हो जायगा. व्याकरणके हिसाबसे सोचनेसे साफ मालम होता है कि 'स्थानशीलाः स्थावराः' याने स्थिर ही रहे उसका नाम स्थावर अब पृथिवीकाय अपकाय और वनस्पतिकाय स्थिर रहनेवाले हैं, इससे इन तीनको ही स्थावर कहना अनुचित न होगा. इनमें यबपि नदीआदिके प्रवाहादि दिखनेसे यह मालम होगा कि अपकायको स्थावर. कैसे कहा जाय ऐसीशंका होगी. लेकिन स्थल के नीचेपनसे जलका.गमन है, किन्तु स्वभावसे गमन नहीं है. और दूसरे कारणों से गमन होके इस स्थावरपर नहीं मिटता है. लेकिन अनिकाय और वायुकायका को For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६ ) अपने स्वभाव ही से चलमरूप गमन होता है. इससे उनको क्र्स कहने में क्या हर्ज है? ऐसा नहीं कहना कि सुखदुःखकी इच्छासे ही हीलचाल करे उसीका ही नाम त्रस कहा जाय. क्योंकि ऐसा कहने से तो त्रसरेणुशब्द से क्या लेना ? त्रसरेणु तो उसी ही जड पदार्थका नाम है जो बारीक होकर पूर्वापर वायु आदि के कारण से पश्चिम पूर्व की ओर धसे. यह सब कहनेका मतलब यह है कि अनिकाय और वायुकायको त्रसमें ले 'सक्ते हैं. अलवतः इनको गतिके कारण से त्रस कहेंगे, परंतु सुखदुःखके कारण से हलचल नहीं होनेसे लब्धिसे स्थावर कहना होगा. याने जैसे बेइन्द्रियादिक लब्धिसे त्रस हैं ऐसे ये लब्धिसे त्रस नहीं हैं, और इसी कारणसे तो त्रसकायके सूत्र में 'तस्वार्थकार महाराजने 'तेजोवायू' यों समास अलग करके इन दोनोंका अलग स्वरूप दिखाया है. क्योंकि ऐसा कुछ अभिप्राय न होता तो 'तेजोवायुद्वीन्द्रियादयस्त्रसाः' ऐसा सूत्र करते, जिससे अलग विभक्ति भी नहीं रखनी होती और चकारको भी बढ़ाना नहीं पडता. ऐसा नहीं कहना कि श्वेताम्बरोंके किसी शास्त्रमें तेजो और वायुको त्रस तरीके नहीं गिने हैं. किन्तु स्थानांग भगवतीजी पण्णवणादिशास्त्रोंमें पृथ्व्यादिक पांचोंको ही स्थावर गिने हैं. ऐसा नहीं कहने का यह सबब है कि जीवाभिगम और आचारांगआदिमें तेज और वायुको स्थावरमें नहीं गिनते त्रसमें गिने भी हैं. तच्वसे तो तेजःकाय For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और वायुकाय गतिसे त्रस हैं और लब्धिसे स्थावर हैं. इससे इन दोनोंको त्रस और स्थावरमें गिने हैं. लेकिन इधर तर्कानुसारियोंके तर्कका खयाल करके दोनों बात दिखाना शास्त्रकारके हिसाबसे लाजिम है.. . (७) सूत्र २०में दिगम्बरलोगोंने स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः' ऐसा सूत्र माना है. और श्वेताम्बरोंने स्पर्शस्सगन्धरूपशब्दास्तेषामर्थः' ऐसा माना है, इसमें तीन बातका फरक है. १ वर्ण लेना कि रूप लेना २ तद् लेना कि तेषां लेना और ३ अर्थ लेना कि अर्थाः लेना. यद्यपि इनमेंसे किसी भी तरहसे लेने पर तात्विक मन्तव्यका फर्क नहीं होगा. लेकिन असल क्या होना चाहिये यह सोचनेका है. खयाल करनेका है कि पांचवें अध्यायमें 'नित्यावस्थितान्यरूपीणि' और 'रूपिशः पुद्गला:' लेना है, परंतु वर्ण नहीं लेना है, इन सूत्रोंको दोनों मंजूर करते हैं. और वहां रूपशब्दसे दृश्यमानता ही लेनी है, तो फिर इधर रूपशब्दको पलटानेकी क्या जरूरत है ?, वहां भी रूपशब्दसे ही उपलक्षणसे स्पर्शादिक भी लेकर धर्मास्तिकासादिकमें रूपरसगंधस्पर्श और शब्दमेंसे कुछ भी नहीं है यही कहनेका है. यदि रूपशब्द इधर न लेवें तो गन्धादिकका अभाव उपसणसे कैसे लेंगे ? रूपशन्दसे वहां पर पांचवें अध्यायमें मूविता लेना होवे और इधर वर्णशब्दसे शुङ्गादि लेना हो तो यह बात अलग है. परन्तु इयर इन्द्रियों का विषय कहना है For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) और सबही मजहब वाले वक्षुका विषय वर्ण नहीं मानते हैं, किंतु रूपही मानते हैं, तो फिर इधर विषयके स्थामें रूपही कहना मुनासिब है. और पुद्गलके स्थान में ही वर्ण शब्द लाजिम है, लोकिन 'तदर्था:' पद जो किया है वह ठीक नहीं है. इसका असल तो यह कारण है कि इधर अर्थशब्दको समास कर लेनेसे आगे के 'सूत्रमें 'भुतमनिन्द्रियस्य' के स्थान में अर्थशब्दकी अनुवृत्ति नहीं होगी और इधर 'अर्था' पद रक्खा तो वहां 'अर्थ:' ऐसा एकवचनान्तं पद लगाना कैसे होगा ? दूसरी बात यह भी है कि पेस्तरके सूत्र में 'श्रोत्राणि' ऐसा बहुवचनान्त सूत्र है. उसका सम्बन्ध 'तेषां' ऐसे बहुवचन बिना कैसे लगाना १ यदि सम्बन्ध ही नहीं लगाना है तो फिर तद्शब्दका प्रयोजन ही क्या है ? तीसरी बात यह है कि 'अर्था' ऐसा बहुवचन रखने से हरएक इन्द्रियमें हरएक विषयकी प्राप्ति हो जायगी.. इससे एकवचन करने से एक २ इन्द्रियका एक एक ही विषय सम्बद्ध होगा. इससे साफ होगा कि 'तेषामर्थः' ऐसा ही पद रखना लाजिम होगा. , (८) सूत्र २९ में दिगम्बरोंने 'एकसमयाऽविग्रहा' ऐसा -सूत्र माना है, और श्वेताम्बरोंने 'एकसमयोऽविग्रहः' ऐसा सूत्र माना है. दिगम्बरोंके हिसाब से यह सूत्र अविग्रहानामकी गतिका स्वरूप दिखाने के लिये है. अविग्रहा नामकी गति जो सूत्र २१ में कही गई है उसका इधर स्वरूप है याने वहां सूत्र For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०९ ) ? में 'अविग्रहा जीवस्य' ऐसा ही सिर्फ कहा था. याने अविग्रहा का वक्त नहीं दिखाया था, वह वक्त इधर दिखाया. लोकन श्वेताम्बराके हिसाब से यह सूत्र अविग्रहागतिका वक्त दिखाने वाला होने के साथ विग्रहगतिमें भी आद्य समयकी गतिको अविग्रहापन दिखानेके लिये है, और इसीसे ही गतिमें जितने समय लगे उनमेंसे एकसमयको कम करके बाकी के समय विग्रह तरीके गिन सक्ते हैं. नियम भी यहीं है कि चाहे जितने ही समयकी वक्रगति हो, लेकिन आद्यसमय में तो ऋजुगति ही होगी. इस स्थान में अकलमन्द आदमी समझ सकते हैं कि यदि शास्त्रकारको अविग्रहांका वक्त ही कहना था तब तो 'अविग्रहा जीवस्यैकसमया,' ऐसा 'एकसमयाऽविग्रहा जीवस्य' ऐसा या 'जीवस्यैकसमयाऽविग्रहा, ऐसा या 'अविग्रहा जीवस्यै सैकसमया' ऐसा पाठ करते. लेकिन 'विग्रहवती च संसारिणः प्राकू चतुर्भ्यः,' ऐसा विग्रहगतिका अधिकार शुरू करके बीचमें अविग्रहका अधिकार नहीं लेते. इतना ही नहीं, किन्तु 'एक हौ त्रीन्वाडनाहारकः' ऐसा विग्रहके अनाहारकपनका टाइम दिखानेवाले सूत्र के बीच में कभी भी नहीं डालते इससे साफ है कि किसी दिगम्बरने अपनी अकल लगाकर गतिके साथ लगाने के लिये इस सूत्र में 'एकसमयाऽविग्रहा' ऐसा कर दिया है । " i (१०) सूत्र ३० में दिगम्बरोंके सतसे 'एकं द्वौ त्रीन्वाऽ नाहारकः' ऐसा पाठ है. तब श्वेताम्बरों के मतसे 'एक द्वौ वा For Personal & Private Use Only 1 3. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०) नाहारकः' ऐसा पाठ है इधर सोचनेका यह है कि जब पेश्तरके सूत्रमें 'प्राक् चतुर्व्यः' कहकर तीन ही समय तक विग्रहका होना माना है, और उसमें एकसमयको विग्रह तरीके माननेका ही नहीं है, तो फिर तीन समय अनाहारके कहांस होंगे ? और तीनसमयकी गतिमें तीनों ही समय अनाहारके मानोंगे तब तो एकसमयका अविग्रह कहां रहेगा? और ऋजुगतिमें भी अनाहारकपना मानना होगा. इससे 'एक द्वा वाऽनाहारकः' ऐसा कहना ही लाजिम होगा. ऐसी शंका नहीं करना कि विग्रहगति पांच समय तक की होती है. क्योंकि जो अधोलोकके कोणमेंसे ऊर्ध्वलोकके कोण में उत्पन्न होगा उसको पांच ही समय होंगे. आद्यसमयमें विदिशासे दिशामें आवेगा. दूसरे समयमें सनाडौँम आवेगा. तीसरे समयमें ऊर्ध्वलोकमें जायगा और चौथे समयमें दिशा में जाकर पांचवें समयमें विदिशामें जायगा. जब इस तरहसे पांचसमयकी गति होकर चार वक्र होते हैं, तो फिर इधर तीन वक्र ही क्यों कहे ? ऐसी शंका नहीं करनेका सबब यह है कि ऐसा संभव होने पर बहुतायतसे 'ऐसी गति नहीं होती है. और इसीसबबसे भगवतीसूत्रमें भी चार समयकी गतिका ही अधिकार लिया है: चारसमयकी गतिमें आद्यान्तसमयोंमें अनाहारक न होनेसे दो ही समय 'अनाहारपना रहता है, और इसीसे ही इधर एक या दो समय ही अनाहारकपनका लिया है. टीकाकारसिद्धसेनसरिजीमहा For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) राज यहां पर वाशब्द की व्याख्या में उपलक्षणसे पांचसमयकी गति और तीनसमयका अनाहारपना दिखाते हैं. लोकन तीनसमयकी या चारसमयकी गति लेना और तनिसमयका अनाहारकपना लेना यह तो साफ ही अयोग्य हैं, सूत्रकार श्रीउमास्वातिर्जाने भी 'प्राक् चतुर्भ्यः' ऐसा कहकर तीनों ही विग्रह इधर लिये हैं और विग्रह जितने होवें उतने ही अनाहारपन लेना होता तब तो 'अनाहारविग्रहवती ० ' या ' विग्रहवदनाद्वारा०' ऐसा एक ही सूत्र कर देते. अलग अलग विग्रह और अनाहारका सूत्र करनेकी कुछ भी जरूर नहीं थी, परन्तु अन्तका विग्रह अनाहार में नहीं लेना है जिससे सूत्र अलग करना ही जरूरी था । ( ११ ) सूत्र ३१ में दिगम्बरलोग संमूर्च्छनगर्भेपपादाज्जन्म' ऐसा सूत्र मानते हैं. पेश्तर तो दिगम्बरोंनें उपपादशब्द उपपातके स्थान में धरा है. इधर ही नहीं, लेकिन आगे भी जहां जहां पर औपपातिक या उपपातशब्द आता है वहां वहां पर भी इन्होंने 'त' के स्थान में 'द' कर दिया है लेकिन यह उनका रिवाज अपनी परिभाषाको दिखानेके लिये ही है उनके रिवाज से तो गतिशब्द के स्थान में भी 'गदि' शब्द कर देवें तो ताज्जुब नहीं, अस्तु लेकिन इधर 'उपपादात्' करके पंचमीका एकवचन कैसे लगाया ? इधर गर्भ, संमूच्छिम और उपपात इन तीन तरह से जन्म दिखानेका है तो पीछे एकवचन She For Personal & Private Use Only + Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( ११२ ) कैसे रखा ? सूत्रकार महाराज तो स्थान स्थान पर एकस्थान में एकवचन दोके स्थानमें द्विवचन और बहुतके स्थान में बहुवचन स्पष्टपनेसे कहते ही हैं. इधर एकवचनका प्रयोग सिर्फ दिगी कल्पनाका ही फल है. ऐसा नहीं कहना कि 'उपपाता' ऐसा बहुवचन रखनेसे 'जन्म' के स्थान में भी बहुवचन रखना होगा. ऐसा नहीं कहनेका सबब यह है कि उद्देश्यस्थान में बहुवचन होने पर भी विधेयके स्थान में तो 'तत्त्व' 'न्यासः' 'ज्ञानं' आदिस्थानोंमें दोनोंके पाठोंमें ऐसे एकवचन साफ ही है । ( १२ ) सूत्र ३३ में दिगम्बरों के मतसे 'जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः' ऐसा पाठ है, तब श्वेताम्बरोंके मत से 'जराखण्डपोटजाना गर्मः ऐसा कट है, अम्बल तो इधर व्याकरणके नियम के अन्त या आदिमें लगा हुआ पद सबको लग सकता है, तो पीछे जरायु और अण्डकी साथ जनिधातुका बना हुआ 'ज' लेगानेकी क्या जरूरत थी ? याने आगेके 'ज' से दोनोंका सम्बन्ध हो जायगा. ऐसा नहीं कहनेका होगा कि इधर तो कृदन्त है. क्योंकि दोनों पद पेश्तर रहें तब भी आगेका जनिधातुसे प्रत्यय आकर ज बननेमें हर्ज नहीं होगा. आश्चर्य की बात तो यह है कि जरायु और अण्डके आगे ती जनधातु से बना हुआ 'ज' लगाया, और पोतके आगे ती वह भी नहीं लगाया. पोतशब्दका अर्थ पोतज हो जायमा For Personal & Private Use Only • Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) ऐसा नहीं है पोतजका अर्थ यह है कि वखकी तरह साफप नसे जन्म पावे. न तो जिसके चारों ओर जरायु होवे, और न जो अण्ड से जन्म पावे, वैसे हाथी के बच्चे आदिकी तरह जन्म पाने: वालेको पोतज कहा जाता है. पोतशब्दका अर्थ बच्चा कहा जाय तो क्या जरायुसे होनेवाले और अण्डसे होनेवाले छोटे होवें वे बच्चे नहीं कहे जायेंगें ? जब वे भी पोत याने बच्चे कहे जायँ तो फिर पोतशब्द कहना ही व्यर्थ है, और तीसरी तरहका जन्म तो रह ही जायगा, इससे लाघव के हिसाब से और यथास्थितपदार्थ के निरूपण में 'जराखण्डपोतजानां ऐसा ही पाठ कहना लाजिम है । 1 ( १३ ) सूत्र ३४ में दिगम्बर 'देवनारकाणामुपपादः ऐसा सूत्र मानते हैं, और श्वेताम्बर 'नारकदेवानामुपप्रातः' ऐसा सूत्र मानते हैं. इसमें नारकोंको प्रथम कहनेका कारण प्रथमः अध्याय के 'भवप्रत्ययो ०? इस सूत्र की तरह और उपवाद व उपपात के लिये इसी ही अध्याय के ३१ वें संमूर्च्छनगर्भोपपादा सूत्र की तरहसे समझना । ( १४ ) सूत्र ३७ में दिगम्बर लोग 'परं परं सूक्ष्मं' ऐसा सूत्र मानते हैं, और श्वेताम्बर 'तेषां परं परं सूक्ष्मं' ऐसा सूत्र मानते हैं. दोनोंके भी मत से इस सूत्र के पेश्तर 'औदारिकः शरीराणि'' यह सूत्र है, अब इधर दोनोंके ही हिसाब से निर्धारण:को दिखाने के लिषे विभक्ति तो चाहियेगी । शाखकार महाराज · For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) तो जहां भी षष्ठी सप्तमी विभक्तिवाला पद करने की जरूर देखते हैं वहां पर स्पष्ट वह कह देते हैं, जैसे "तद्विशेषः ' 'तद्योनयः' इस तरह इधर भी निर्धारण के लिये 'तेषां' पद लेना ही होगा, और 'तेषां' ऐसा पद लेंगे तभी तो उन औदारिकादिशरीरों में आगे आगेका शरीर बारीक याने अल्पस्थान में रहनेवाला ऐसा अर्थ होगा. अन्यथा पेश्तरके सूत्रमें रहा हुआ 'शरीराणि' पदका इधर लगना कैसे होगा ? (१५) सूत्र ४२ में दिगम्बरोंने 'तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः' ऐसा पाठ माना है, और श्वेताम्बरांन 'तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्या चतुर्भ्यः' ऐसा पाठ माना है. यद्यपि प्रथमाध्यायमें ऐसा ज्ञानके विकल्पों को दिखानेवाला सप्तमीवाला सूत्र हैं, लेकिन वहां तो दोनोंके सूत्रपाठ समान है, याने दोनों सप्तम्यन्त ही मानते हैं. इधर दोनोंमें परस्पर पाठभेद है इधर सोचनेका यह है कि वहां पर तो ज्ञान गुण था और गुणी आत्मा था. गुण होवे वह गुणीमें रहे, और शास्त्रकार ने भी 'द्रव्याश्रया निर्गुणाः गुणाः' ऐसा स्पष्ट कहा भी है. इससे वहां पर प्रथमाध्यायमें तो सप्तमी से निर्देश करना लाजिमी है, लेकिन जिस जगह शरीर और शरीरिका सम्बन्ध दिखाना है वहां पर सप्तमी धरना कैसे मुनासिब होगा ? दूसरा यह भी सोचनेका है कि शरीरमें जीव है कि जीवमें शरीर है ? यदि कहा जाय कि शरीर अकेलाभी पीछे ठहरता है और देखने For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) आदिके व्यवहार में भी शरीर ही आता है, इससे शरीर में जीवका रहना योग्य गिना जाय, तो फिर एकजीव में चार तक शरीर हो सकता है, यह कहना कैसे बनेगा १, इससे साफ है कि स्वस्वामिभावको दिखानेवाली षष्ठी विभक्ति ही इधर चाहिये । * : ( १६ ) इसी अध्याय के सूत्र ४६ में दिगम्बर 'औपपादिकं वैक्रियं' ऐसा पाठ मानते हैं. और श्वेताम्बर 'वैक्रियमोपपातिकं ' ऐसा पाठ मानते हैं. इधर दिगम्बरोंका कहना है कि औपपा दिक और औपपातिकके लिये तो ठीक ही है कि हमने त के स्थान में द कर दिया, लेकिन 'वैक्रिय' शब्दका स्थान तो तुमनें ही पलटाया है. हमारा यह कहना इससे लाजिम होगा कि सूत्रकारमहाराजने औदारिकशरीर के विषय में 'गर्भसंमूर्च्छनज़माद्यं' कहकर शरीरका आखिर में कथन किया, आगे आहारकके अधिकार में भी 'शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं' जो सूत्र. है वहां पर भी आहारकका नाम पीछे ही कहा है. इससे साफ मालूम होता है कि इधर भी सूत्रकारमहाराजने तो 'औपपादिकं वैक्रियं' ऐसा ही कहा था, लेकिन श्वेताम्बरोंने इनको पलट कर 'वैकियमोपपातिकं' ऐसा बना दिया. इस स्थान में श्वेताम्बरोंका कथन यह है कि सूत्रकारमहाराजने 'वैक्रियमीपपातिकं' ऐसा ही सूत्र बनाया है. हमने कुछ भी पलटाया नहीं है, और युक्तियुक्त भी यही पाठक्रम है. इसका सबब यह है कि औदारिक और आहारकशरीरके सूत्र स्वतंत्र हैं, For Personal & Private Use Only - Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६) काने उनमेंसे किसीकी अनुवृत्ति आगेके सूत्र में करनेकी नहीं है, लेकिन इधर तो वैक्रियशब्दकी अनुवृत्ति आगेके 'लब्धिप्रत्पर्य च' इस -सूत्रमें करमेकी है, और सूत्रकारकी शैली ऐसी है कि विधयकी अनुवृत्ति विधेय शब्दको आखिरमें कहना और आगे ततशब्दसे परामर्श करना. जैसे 'वनिसर्गादधिगमाद्वा' । तत्प्रमाणे 'स आश्रवः । स बन्धः' इन सब सूत्रोंमें जब पेश्तरके सूत्रोंका सम्यग्दर्शन ज्ञान योग और कर्म स्वीकार रूप विधेयकी अनुवृत्ति करनी थी तो उसको आखिर में कथन करके पीछे के सूत्रमें तत्शब्द लिया, इसी तरहसे इधर भी 'वैक्रिय' को विधेयमें रक्खें तो 'लब्धिप्रत्ययं चं' वहां पर अनुवृत्ति लानेके लिये अंत्यमें उच्चारणरूप प्रयत्न करना पड़े. इससे इधर वैक्रियका उद्देश्यपना अंत्योचारणसे रख दिया. जिससे आगे अनुवृत्ति चली आवे, ऐसा नहीं करे तो 'लब्धिप्रत्ययं च' और 'तैजसमपि' इन दोनों ही सूत्रोंमें विपर्यास करना होवे. ... (१७) सूत्र ४९ में दिगम्बर आहारकशरीरके अधिकारमें प्रमत्तसंयतस्यैव' ऐसा मानते हैं. तब श्वेताम्बर 6 चतुदेशपूर्वधरस्यैव' ऐसा पाठ मानते हैं, दोनों मजहबवाले यह बात तो मंजूर कस्ते ही हैं कि यह आहारकशरीर चौदहपूर्वको धारण करनेवाले ही करते हैं, और आहारक करते वक्त आहारफार करनेवाले प्रमत्त ही संयत होते हैं. जब ऐसा For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनोंका भी मन्तव्य है तो फिर यह उलटपलट क्यों हुई ? दिगम्बर और श्वेताम्बर सब ही ऐसा मानते ही हैं कि सत्र प्रमत्तसंयत आहारकशरीरको नहीं करते हैं. जब सब प्रमत्त, साधु आहारक न कर सके तो पीछे 'प्रमत्तसंयतस्यैव' ऐसा कहना फिजूल ही है. दिगम्बरोंकी ओरसे कभी ऐसा कहा जाय कि 'प्रमत्तसंयतस्यैव' यह कहनेकी मतलब यह है कि अप्रमत्तसंयत होवे वे आहारकवाले न होवे, ऐसा कभी दिगम्बरोंका कहना होवे तो वह भी फिजूल है. सबब कि अप्रमत्तः गुणठाणा आहारकशरीरवालेको भी होता है. यदि कहा जाय कि आहारकशरीर जिस वक्त बनावे उस वक्त अप्रमत्तपना नहीं होता है, किंतु आहारकशरीर बनजाने के बाद अप्रमत्तपना हो सकता है, तो इधर यह बात जरूर सोचनेकी है कि क्या अप्रमसपना हुआ उस वक्त उसके आहारकशरीरको आहारकशरीर नहीं गिना है?, गिना है तो फिर 'प्रमत्तसंयतस्यैव' याने प्रमत्तसंयतकोही आहारकशरीर होता है यह कहना कैसे लाजिम होगा? याने न तो सब प्रमत्तको आहारक होता है और न सब आहारकशरीरवाले प्रमत्तही होते हैं. लेकिन पूर्वधरपने में तो नियम ही है कि जो चतुर्दशपूर्वको धारणकरनेवाला हो वही आहारक करता है. अब साफ होगया कि श्वेताम्बरों का माना हुआ 'चतुर्दशपूर्वधरस्यैव' यही पाठ सत्य है, और 'प्रमत्तसंपतस्यैव' ऐसा दिगम्बरोंका कहा हुआ पाठ असत्य और कल्पित है। For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) (१८) तीसरे अध्याय में प्रथमसूत्र में दिगम्बर लोग 'रत्नशर्करावा लुकायंकधूमतमोम हातमः प्रभा भूमयो घनाम्बुवाता - काशप्रतिष्ठाः सप्ताघोऽधः' इतनाही पाठ मानते हैं, और तर लोग इसके आगे ' पृथुतराः' इतना ज्यादा मानते हैं. दोनोंके मतसे एक एक पृथ्वीसे आगे आगेकी पृथ्वी चौडी है तो पीछे इधर ' पृथुतरा: ' पद नहीं मानना यह दिगम्बरोंको लाजिम नहीं है, और यदि 'पृथुतरा: ' नहीं लेवे तो ' अधोऽधः ' की जरूरतही क्या थी ?, कभी ऐसा कहा जाय कि पृथ्वीका अनुक्रम दिखानेके लिये ' अधोऽधः ' कहने की जरूरत है तो यह कहना भी फिजूलही है. क्योंकि घनाम्बुवताकाशप्रतिष्ठाः ' कहने से ही ' अधोऽधः ' का भावार्थ आजाता है, तो इससे स्पष्ट है कि सूत्रकारने 'अधोऽधः ' ये पद कहे थे, और उससे नीचेकी पृथ्वी ज्यादा ज्यादा विस्तारवाली यह सिद्ध करने की जरूर होगी, इससे पृथुतराः पद सूत्रकारने कहाही हैं. " ( ( १९ ) तीसरे अध्यायके दूसरे सूत्रमें दिगम्बर ' तासु त्रिंशत् पंचविंशतिपंचदशदशत्रिपं चोने कनर कशतसहस्राणि पंच चैव यथाक्रमं ' ऐसा सूत्र मानते हैं. तब श्वेतांबर तासु नरका: ' इतनाही सूत्र मानते हैं. अकलमंद आदमी इस सूत्रको देखतेही कह सकेंगा कि यह सूत्रकी कृतिही श्रीउमास्वातिवाचकजीकी नहीं है, किन्तु दिगम्बरोंने ही घुसेड २ कर मूत्र For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११९ ) बिगाड़ दिया है. क्योंकि अब्बल तो संग्रहकारकके वचनमें इतना विस्तार ही असंगत है. और यदि सूत्रकारमहाराजकी ही कृति होती तो ऊपर और नीच हजार योजन जो हरएक पृथ्वी में वर्जनेका है वह बात क्यों नहीं कहते ? दूसरा यह भी है कि लक्षशब्दको छोडकर शतसहस्र जैसा बडा शब्द क्यों डालें ? यदि नारकके लिये नरकावासकी संख्या कहें तो फिर सौधर्मादिकदेवलोक में विमानोंकी संख्या और भवनपतिआदिके भवनकी संख्या सूर्यचन्द्रका प्रमाण आदि क्यों न कहें ? तच्चार्थकार जैसे अक्कलमंद आचार्य क्या ऐसा नहीं कह सक्ते हैं के जिससे विधेयपद मुख्य होवे और पंचकी संख्याको भी अलग न करना पडे, ऐसा नहीं कहना के ऐसा हो सकता ही नहीं देखिये इस तरह से होवे के " तासु त्रिंश: स्पंचविंशतिपंचदशदशत्रिपंचो ने कलक्ष पंचनरका: ? ? अकलमंद सोच सक्ते हैं के यह चैवशब्द ही कह रहा है के यह दिगंबरों का कर्तुत है, और यथाक्रमं ' यह शब्द भी बिन जरूरी है, यदि समानसंख्या होनेपर भी यथाक्रमं शब्दकी जरूरत होवे तो तेष्वेके ' त्यादि जो नरककी स्थितिवाला सूत्र है वहां 'यथाक्रमं ' शब्द क्यों नहीं ?, सूत्रकार महाराजकी ( २-१ ) सूत्र जो भावोंका उद्देशरूप है वहाँ या ' पंचनव० ' ऐसा कर्म के भेदों का उद्देशरूप सूत्र है वहांही यथाक्रम शब्द लगाते है और, इधर वैसा उद्देश और निर्देश अलग है ही नहीं, ऐसी अवस्था में 6 For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) , यथाक्रमं शब्द लगादेना यह भवभयकी रहितता दिखानेकी साथ घुसेडने वाले की बालिशताही दिखाता है. इससे साफ होगया के यह दिगंबरोंका कल्पितही सूत्र है. दिमंत्ररोंने यह कल्पितः बनाया है और श्वेतांबरोंने माना हुवा सूत्र व्याजबी है, इसकी स्पष्ट सबुत मोजूद है, वो यह है के दोनुं मजहबवाले आगेका सूत्र ६ ट्ठा इस तरहसे मानते हैं 'तेष्वेकत्रिसप्तदश सप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्त्वानां परा स्थितिः ' इस तरहका सूत्र: जब दोनुके मतसे मंजूर है तो पीछे उभर ' तेषु ' शब्द से किसकी अनुवृत्ति करेंगे. श्वेतांबरोंने तो 'तासु नारकाः' ऐसा सूत्र मान लिया है, इससे उनको तो सातोही भूमिमें रहे हुके सातही तरह की नरको अनुक्रमसे आयुष्य आ जायगा, लेकिन दिगंबरोंने तो लक्खो नरकावास लिये इससे सात स्थितिओंका संबंध कहां दिखाएंगे, इतना ही नहीं, किन्तु छ नरकके नरका-: वास तो एकसमास से कहे है और सप्तमीका नरकावा सभी अलम कहा है, इससे भी सात स्थितिओंका सम्बन्ध कैसे लगाया जायगा १, इधर इतना सोचना जरूरी है कि सूत्रकारकी शैली है कि समासके अलमपनेसे स्थितिका सम्बन्ध अलग रखते हैं. और इसीतरहसे देवताओंके अधिकारमें आनताणत, आरअच्युत और विजयादिकको एकसमास में कहे और स्थिति में नवमे दशवेंमें और ग्यारहवें बारहवें में दो दो सागरोपम बढाये: हैं. और विजयादिमें एकही बढाया, इस रीति से इधर भी समझ For Personal & Private Use Only . Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२१) लेंगे तो दिगंबरोंकी चालाकी समझ सकेंगे. इससे यह छ। का समास करना और सातवींका नरकाबास अलग रखना, यह आगे कहने में आयगी उस स्थितिके सम्बन्ध से विरुद्ध ही है। सबसे ज्यादा तो यह है कि 'नरकाः' यो परमानामा ऐसा कोई भी पद इधर स्वतंत्र नहीं है कि जिसका सम्बन्ला तेषु इस पदके साथ किया जाय. श्वेताम्बर तो 'तासु नरंकार ऐसा सूत्र मानते हैं, इससे 'तेषु' के स्थान में स्वतंत्र नरकमब्द लगा कर सातका सम्बन्ध कर सकेंगे.... . . . : ... . (२०) इसी अध्यायके तीसरे सूत्र में श्वेताम्बरोंकी मान्यः तासे 'नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रिया ऐसा सूत्रपाठ है. जब दिगम्बरों के मतसे. 'नारका नित्याशुभतर० पाठ माना है. अब इस स्थानमें सोचिए कि फेरखर दूसरे पत्रों नरकानासका सूत्र बनाया है तो इधर नारकइस पद सम्बन्ध कैसे लमाया ?-याने दिनम्बरों के हिसाबले भी "तेपुर या तत्र' ऐसा कोई पद होना जरूरी काः इससे मालूम होत है कि श्वेताम्बरोंका जो दूसरा सूत्र तासु नरकाः' ऐसा था। उसमें किसीने टिप्पणकी तरहसे नरकाबासकी संख्या लिखी हुई होगी, वह इन दिगम्बराने मूलसूत्रम मिला दी और नरकावासकी संख्याको मिलादेमेसे नस्का:' कह पद कला फाजल हुआ उसको इधर तीसरे सत्र में मिलाया ऐसा न कहना कि- इसमें क्या हर्ज है । क्योंकि असल पो For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२) इधर 'नरकाः' पद श्वेताम्बरों के हिसाबसे दूसरे सूत्रमें 'तासु' पदकी साथ लगा हुआ था, और इधर नरकावासकी संख्या बीचमें डालकर जो ' नारकाः ' पद डाला है वह असमद्ध हो गया है. इसके लिये 'तेषु' या 'तत्र' पद लगानेकी जरूरत है. इसके आगेके सूत्र में भी तेष्वेक०' इत्यादि सूत्रकी जगह पर भी 'तेषु' यह पद सामान्यभूमिभेदसे नारकोंकों नहीं लग सकेगा. क्योंकि बीच में नरकावासका सूत्र आकर अब 'नरकाः' सामान्यनारकोंका वाचक हो जायगा. बादमें 'तेषु' कहकर भूमिभेदसे नारकोंकी स्थिति बताना असंबद्ध होगा. इससे साफ मालूम होता है कि दिगम्बरोंने अपनी कल्पनासे ही नरकावासका भार इधर डालदिया और 'नारकाः' शब्द सम्बन्ध लगाये बिनाही इधर तीसरे सूत्रमें डाल दिया है. ". (२१) इसी तीसरे अध्यायमें सूत्रदशवेमें दिगम्बर लोग भरतहमवतहरिविदहरम्यकहरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि' ऐसा सूत्रपाठ मानते हैं. तब श्वेताम्बर लोग 'तत्र भरतहेम. वत' इत्यादि सूत्र पाठ मानते हैं. अब इस जगह पर दिगम्बरोंने 'तत्र' शब्द उड़ा दिया, लेकिन ये भरतादिक्षेत्रोंका स्थान कहाँ मानेगे, क्योंकि तिर्यग्लोकमें सब द्वीपसमुद्रको दिखाकर उनका आकार आदि दिखाये, बादमें ९ वें सूत्र में "तत्' शब्दसे सब द्वीपसमुद्रका परामर्श करके बीचमें जन्द्वीप दिखाया है, अब इस जम्बूद्वीपमें इन भरतादिकको For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२३) दिखानेके लिये परामर्श करनेवाले पदकी जरूरत थी. लेकिन इन दिगम्बरोंने वह परामर्श करनेवाला पद उड़ा दिया. कभी ऐसा कहा जाय कि पेश्तर जंबूद्वीपका अधिकार होनेसे उसकी अनुवृत्ति हो जायगी, और अन्वय लगानेके लिये सप्तमी लगाकर तत्र ऐसा ले लेंगे. यह कहना व्यर्थही है, क्योंकि अव्वल तो सूत्रकारकी यह शैली ही नहीं है, और ऐसा ही मान लें तो इधर तो सप्तम्यन्तका कोई भी सूचक पद नहीं है, लेकिन आगेके सूत्रमें 'तद्विभाजिनः' इस सूत्र में परामर्श करनेकी कोई जरूरत नहीं थी. इससे साफ है कि इधर 'तत्र' पद होना ही चाहिये. दिगम्बरोंकी ओरसे कभी ऐसा कहा जाय कि ये भरतादिक क्षेत्र अकेले जम्बूद्वीपमेंही नहीं लेने हैं. किन्तु धातकीखंड और पुष्करार्धमें भी येही भरतादिक. क्षेत्र लेने हैं, इससे इधर 'तत्र' शब्द लेनेकी जरूरत नहीं है. लेकिन यह कहनाभी व्यर्थ है. इसका सबब यह है कि आगे 'द्विर्धातकीखंडे' 'पुष्करार्धे च' ऐसा कहकर वहां पर तो भरतादिकका द्विगुणपना लेना है, इससे यह सूत्र तो जम्बूद्वीपके लिये ही रहेगा, और इधर 'तत्र' ऐसा पद ज़रूर चाहियेगा. दिगम्बरोंके हिसाबसेभी तो यह सूत्र जंबूद्वीपादि तीनस्थानके लिये रह सकता ही नहीं है. सबब कि इन लोगोंने जो मंत्र बढाये हैं उसमें सब अधिकार जम्बूद्वीपका ही लिया है. यावत. भरतको १९० में भागमें लिया है, वह जम्बूद्वीपके सिवाय नहीं For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) है. इससे इधर तत्र शब्द जरूर ही लेना पडेगा. ( २२ ) इसी अध्यायके सूत्र ३६ में दिगम्बरलोग 'आर्या म्लेच्छाश्च' ऐसा पाठ मानते हैं, जब श्वेताम्बर 'आर्या क्लिशच' ऐसा पाठ मानते हैं. दिगम्बरोंने इधर स्पष्टता के लियेही 'स्लिशथ' के स्थान में 'म्लेच्छाथ' ऐसा कर दिया है. लेकिन इधर अव्वल यह शोचनेका है के म्लेच्छ और आर्य शब्द परस्पर विपरीत है, लेकिन आर्यशब्द निरुक्तिसे हुवा है और म्लेच्छशब्द म्लेच्छधातुसेही बना है, इससे धातुसे बना हुवा शब्दको प्रधान पद दिया जाय यही यथार्थ है और जब धातुसेद्दी होने वाला म्लेच्छशब्द लेंगे तो कर्त्ता में किपू प्रत्यय लगाके ग्लिश ऐसाही शब्द बनाना होगा, और इसकी यह मतलब होगा कि अव्यक्त भाषा बोलने वाले ग्लिश होते है, और जो वैसे नहीं है वे आर्य है, इससे यह भी साफ होगा कि इधर ब्राह्मीलिवि और अर्धमागधी भाषाका जहां जहां प्रचार नहीं वे ग्लिश कहे जाय, और जिहां उनोका प्रचार होगया वे आर्य है. इस हेतुसे इधर ग्लिशशब्दही कहना लाजिम गिना गया है. 4. ( २३ ) सूत्र ३८ में 'परापरे' ऐसा उत्कृष्ट और जघन्य ऐसी मनुष्य व तिर्यचकी स्थिति दिखानेका सूत्र था. वहां इन दिगम्बरौने 'परावरे' ऐसा कर दिया है, क्योंकि शाखकार तो जहां पर भी जघन्यस्थितिका अधिकार लेते हैं वहां : For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) जघन्यस्थितिको अपरा स्थिति कहते हैं. देखिए चौथे अध्यायमें देवताओंकी जघन्यस्थिति में अपरा पल्योपम' (३३) 'तदष्टभागोऽपरा' ऐसे ही 'अध्यायआठवेंमें भी 'अपरा द्वादशमुहूर्ता' (१८ ) इन सूत्रों को देखनेसे मालूम होता है कि सूत्रकार जघन्यस्थितिको अपरा ही कहते हैं. दूसरी यह भी बात साफ है कि जहां पर उत्कृष्टस्थिति दिखानेकी होती है वहां 'परा' शब्दसे ही व्यवहार करते हैं. जैसा इसी तीसरे. अध्यायमें मनुष्यतिर्यचकी उत्कृष्टस्थितिमें उत्कृष्टस्थिति दिखाने में इसी सूत्रमें 'परा' का व्यवहार किया है. इसी तरहसे नारकोंकी उत्कृष्टस्थितिका सूत्र जो नं. ६ का है, उसमें पराशब्दसे ही उत्कृष्टस्थिति कही है. अध्यायचौथेमें 'परा पल्योपममधिकं च' ( ३९) दिगम्बरों के हिसाबसे भी उत्कृष्टस्थितिमें परापदका ही प्रयोग मान्य है, तो फिर उत्कृष्ट से प्रतिपक्ष ऐसी जघन्यस्थिति दिखानेमें 'अपरा' ऐसाही पदका प्रयोग होवे. लेकिन दिगम्बरोंने अपनी आदत मुजब कुछ भी फर्क डालना चाहिये ऐसा सोच कर इधरं 'प' के स्थानमें 'व' करके 'परावरे' ऐसा कर डाला है.. ( २४ ) सूत्र नं. ३९ में श्वेताम्बरलोग "तिर्यग्योनीना च' ऐसा पाठ मानते है. इस स्थानमें 'तिर्यग्योनीना' के पाठकी जगह पर दिगम्बरोंने 'तिर्यग्यौनिजानां च ऐसा टेंदा पाठ क्यों किया ?, क्या तिर्यग्योनिशब्दसे तिर्थचोंका बोध 71 - For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) : नहीं होता था ?, यदि दिगम्बरों का यह मानना हो तो वह निहायत अनुचित है, क्योंकि तिर्यग्योनिशब्द से तिर्यंच नहीं लेंगे तो पीछे ' तिर्यग्योनिज ' शब्द ही तियंचोंके लिये कैसे होगा ? असलम सूत्रकारने तो 'तिर्यग्योनि' ऐसा ही शब्द रखा है, देखिए अध्यायचौथेका सूत्र २७ 'औपपादिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः' इधर तिर्यंचोंका लक्षण या संज्ञा करते भी ' तिर्यग्योनि' यही शब्द कहा है. इधर सूत्रकारने ' तिर्यग्योनिजाः' ऐसा दिगम्बरों का फिराया हुआ पाठ न तो सूत्र में दिया है और न दिगम्बरोंने ऐसा माना है. इसी तरह से 'माया तैर्यग्योनस्य' इस सूत्र में तिर्यग्योनिज शब्द तिर्यंचके लिये नही माना है, इधरतो आयु दिखाने में 'तैर्यग्योन' शब्द तद्धितांत है सूत्रकार महाराजने तो तिर्यग्योनिशब्दसेही तिर्यच लिये है, और केवल अपनी आदत से अन्यथा कह कर तिर्यचोंका आयुष्य दिखाया है इससे साफ होता है कि दिगम्बरोंने ही यह पाठ बिगाडा है. (२५) अध्याय चौथे में दिगम्बर 'आदितस्त्रिषु पीततिलेश्या: ' ऐसा सूत्र मानते हैं. तब श्वेताम्बर 'तृतीयः पीतलेश्यः' ऐसा सूत्र मानते हैं, इस विषयकी समालोचना सूत्रकी अधिकता के विषय में होगई है. सबब यह बात वहां ही से समझ लेना उचित है. दूसरा यह है कि यदि सूत्रकारका किया हुआ ऐसा सूत्र होता तो ऐसा अस्तोव्यस्त सूत्र कभी For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७) भी नहीं होता. क्योंकि तीन निकायके देवोंकी लेश्या कहनी होती तो 'पीतान्तलेश्या' इतनाही सूत्र करते, और वैमानिककी लेश्याका तो आगे ही अपवाद है. दूसरा यह भी है कि पीतान्तलेश्याः' ऐसा बहुब हिकी छायावाला पद ही नहीं रखते. किन्तु पीतान्ता लेश्याः' ऐसा साफ कहते, तीसरा यह भी है कि 'आदितः' ऐसे तम्प्रत्ययांतकी क्या जरूरत है. 'आदित्रिके' इतना कहते, या 'त्रिषु' इतना ही कहत ऐसा नहीं कहना कि आगे कर्मस्थितिके अधिकारमें सूत्रकारमहाराजने ही 'आदितस्तिसृणां ऐसा सूत्र करके कहा है,जिससे इधर आदितः। कहना क्या बुरा है ?, ऐसा न कहनेका सबब यह है कि वहां पेश्तरका सूत्र अन्तरायकर्मकी दानादि उत्तर प्रकृतिको कहता है. और वहां पर 'आदितः' पद न लगाया होता तो दानादितीनप्रकृतिकी स्थिति हो जाती. लेकिन ज्ञानावरणीयादि तीन मूलप्रकृतिका तो प्रसंग ही नहीं था, सबब वहां पर आदिताः ऐसा पद देने की जरूरत थी. अचल तो आदिशब्दकी ही इधर जरूरत नहीं थी. क्योंकि आगे वैमानिकके अपवाद शिवाय भी प्रथमोपस्थित तीनही भेद आ सकते थे. ....... . (२६) चौथ अध्यायके ४थे सूत्रमें दिगम्बर लोग 'त्रायविंशत् ऐसा पाठ त्रायस्त्रिंशदेवताके. लिये . मानते. हैं और जबरलोग 'त्रायविंश' ऐसा पाठ मानते हैं, तैंतीस देवता विस होते हैं वैसेको 'बायस्त्रिंश' नामके देव कहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) वैसी जगह यह नाम होनेसे उ प्रत्यय आने की जरूरत है यह बात व्याकरण के जानकारोंसे छिपी हुई नहीं है. # (२७) इसी तरहसे इन दिगम्बरोंने पारिषद्य नामको ताओंके लिये 'परिषद्' ऐसा पद कहा है, यह भी शोचनीय हैं. ( २८ ) इस चौथे अध्याय के १९ वे सूत्र में तो दिगम्ब बड़ा ही जुल्म कर दिया है, श्वेताम्बरलोग इस सूत्र का पाठ 'धर्मेशान सनत्कुमार माहेन्द्रब्रह्मलोकलान्तकमहा शुक्र महा वान्ताणतरारष्ट्रा च्यूत्रयोर्नवसु देवेयकेषु विजयन्तसन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धे च' इस तरहसे मानते हैं. दिगम्बर लोग इस सूत्र ब्रह्मके जागे ब्रह्मोत्तर लान्तद(क) के आगे कापिष्ट और शुक्र फिर महाशुक्र के आगे शतार, इस तरहसे चार देवलोक ज्यादह मानते हैं असल में यह सूत्र वेताम्बराचार्यका किया हुआ था, इससे इधर कल्पोपपन बारह ही देवलोक गिनाये थे. लेकिन दिगम्बरोंने अपनी मान्यता जब सोलह कल्पापपत्र देवलोक बना दिये, ये देवलोक असल आचार्यक पाठन नहीं थे इसका सबूत इसी अध्यागमें दिगम्बरोंकी मान्यता मुजब भी साफ साफ है. देखिए, पेश्तर तो दे ओके भेद दिखाये हैं, जिसमें ही 'दशाष्टपंचद्वादविकल्पाः उपनयन्ताः' इस सूत्र से कल्पोपपाके नार और बैंक विमानसे पैकरके ती 'प्रोगू विययः ल्वा For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२९) . . . २३ वां सूत्र दिगम्बरोंने भी माना है, इससे स्पष्ट है, तो फिर खुद सूत्रकारने ही बारह भेदका उद्देश किया तो पीछे निर्देशमें सोलहभेद कहांसे कहा जाय ?, दूसरा यह भी है कि ई लोक तकके देवता तो कायसे मैथुनसेवाके प्रविचारवाले हैं और आगे स्पर्श रूप शब्द और मनसे प्रविचार करने वाले हैं। यद्यपि इधर श्वेताम्बरलोग तो दो दोमें स्पादिकका प्रविचार मानते हैं. और सूत्रकारने भी 'द्वयोर्द्वयोः' ऐसा कहकर ३-४ में स्पर्श५-६ में रूप७ ८ में शब्द९-१०-११-१२ में मन, इस तरहसे प्रविचारके लिये स्थिति मानीही हैं. यहां दिगम्बरके हिसाक्से पेश्तर स्पर्शके विषय में तो दो देवलोक रहेंगे, बाद रूप शब्द और मन इन तीनों में भी चार चार देवलोक लेने होंगे. सूत्रकारको यह कैसे इष्ट होवे ?, क्यों कि एकमें दो और तीनमें चार चार देवलोक लेना होवे और कुछ भी संख्याका निर्देश न करे,दिगम्बरोंके हिसाबसे तो सूत्रकारको 'द्विचतुश्चतुर्द्विकेषु' ऐसा कहना ज़रूरी था. ऐसी शंका नहीं करना चाहिये कि आखिरके मनःप्रबिचारमें तो वैसा चार देवलोक तो श्वेतांबरोंको. लेनाही है तो मनके विषयकी तरह. इधर तीनमें भी चार चार देवलोक मानना क्या बुरा है? वह शंका नहीं करनेका सबब यह है कि सूत्रकारमहाराजने ही आणतप्राणत' को और 'आरण अच्युत को इकडे गिने हैं. और इसीसे ही खुद सूत्रकारनेही 'आणतप्राणतयोः' और 'आरणाच्युतयों, ऐसा अलग अलग और एकत्र समास कर दिखाया है. इतनाही For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) नहीं, किन्तु आरणाच्युताx०' इस ३२ वें सूत्रमें खुद आचार्यमहाराजने ही आरणाच्युतका इकट्ठापना दिखाया है इससे आनत और प्राणतको आरण और अच्युतको तो दो गिनना सूत्रकारके वचनसे है. लेकिन रूप और शब्दके विषय में चार २ देवलोक लेना यह तो सूत्रकारके द्वयोर्द्वयोः वचनोंसे खिलाफ ही है. आगे पर और सोचनेका जरूरी है कि दिगम्बरोंके हिसाबसे माहेन्द्रदेवलोककी स्थितिके सूत्र के बाद 'त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपंचदशभिरधिकानि तु' इस स्थितिके सूत्रमें ७-३=१०, ७-७=१४, ७-९=१६, ७-११-१८, ७-१३-२०, ७-१५=२२ इस तरहसे छ ही देवलोककी स्थिति दिखाई है, और आगेके सूत्रमें अवेयकादिकी स्थिति दिखाई है. इधर श्वेताम्बरोंके हिसाबसे सूत्रके आदिमें 'विशेष' शब्द माहेन्द्र की स्थिति के लिये है.. बाद ५-६-७-८ ये चार देवलोक स्वतंत्र और ९-१० का एक बाद ११-१२ का एक, इस तरहसे छः स्थान हो जाते हैं, लेकिन दिगम्बरोंके हिसाबसे तो इधर स्थितिके क्रमको देवलोककी संख्याके साथ मिलानका रास्ता ही नहीं है. इन सब सबबोंसें साफ हो जाता है कि दिगम्बरोंने अपनी मन्त. व्यता घुसेडकर इस सूत्रको साफ बिगाड दिया है. - (२९) सूत्र २८ वें दिगम्बरोंने स्थितिरसुरनागसुव. वर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्योपमार्धहीनमिताः' ऐसा सूत्र माना है. अकलमन्द आदमी इस सूत्रको देखतेही कह सकते For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१ ) , हैं कि यह सूत्र साफ झूठा है. क्योंकि असल तो इधर श्वेताम्बरोंके हिसाब से तो आगेसे स्थितिका और भवनबासिका अधिकार चला आता है. लेकिन दिगम्बरोंने ये ' स्थितिः ' और 'भवनेषु' वाले सूत्र नहीं माने हैं तो इधर शेषशब्दसे किसको लेना उसका ही पता नहीं है. दक्षिण और उत्तरके इन्द्रोंका वैमानिक में तो आयुष्यभेद सूत्रसे दिखाया और इधर नहीं दिखाया. इधर पांचका उद्देश्य है और विधेयमें सिर्फ तीन ही हैं. और मान लिया जाय कि दोके शिवायको अर्धअर्धहीन कहना तो इसके लिये अव्वल तो अर्धशब्दको दो बार कहना चाहिये, लेकिन यह तो कहा ही नहीं. इतना ही नहीं, लेकिन इधर ' मिता: ' शब्दस्थितिकी साथ लगाना यह भी अयोग्य है. और 'मिताः ' का विशेष्य ही कोई नहीं कहा है. अक्कलमन्द प्रक्षेप भी करता तो 'अर्धविहीन पन्योपमा ' ऐसा सीधा सूत्र बनाता, असल में वो 'मिताः' शब्द ही फिजूल है. क्योंकि इधर किसी भी स्थिति के सूत्र में 'मिता : ' शब्द न तो लगाया है और न लगानेकी आवश्यकता है. दक्षिण और उत्तरके नागकुमारादिककी स्थिति में भी इधर फर्क नहीं दिखाया है. इन सबवोंसे साफ हो जाता है कि. दिगम्बरोंने इधर भी सूत्रोंका पूरा घोटाला कर दिया है । (३०) इसी चौथे अध्याय के सूत्र २९ में दिगम्बर लोक 'सौधर्मेशानयोः सागरोपमे अधिके' ऐसा पाठ मानते हैं. यह For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) " पाठ भी सूत्रकारकी शैलसे विरुद्ध है, अव्वल तो यह सोचिये कि दोनों देवलोक में स्थिति अलग २ दिखाते हैं या एक ही स्थिति दिखाते हैं ? यदि मान लिया के अलग अलग स्थिति दिखाने की है याने सौधर्म देवलोककी अलग और ईशानदेवलोककी भी अलग दिखानी है. तो दोनुंका समुच्चय करनेके लिए 'चकार' दाखल करना ही चाहिये, सूत्रकार हरेक स्थान पर समुच्चय के स्थान में चकार लगाते ही है. यदि कहा जायके दोनों देवलोककी स्थिति साथही कहनी है तो पीछे ' अधिके ' ऐसा कह नहीं सक्ते हैं, किन्तु ' साधिके ऐसा ही कहना होगा, दुसरी बात यह भी है के आगेही " स्थितिप्रभाव०' इस सूत्र में साफ साफ कहा है के हरेक देवलोक पेस्वर पेस्तस्के देवलोककी अपेक्षा से ज्यादा स्थिति लेनी, तो इधर प्रथम और दुसरे देवलोक में स्थिति सरखी कैसे होवे । इसी तरह से आगे सूत्र ३३ में भी दिगम्बरोंने 'अपरा पल्योपममधिकं ऐसा चकार लगाये बिना ही पाठ माना है, तो उससे अपरा याने जघन्यस्थितिमें भी दोनुं देवलोक में फरक नहीं रहेगा. और फरक नहीं रहने से 'स्थिति०' आदि सूत्र झूठी हो जायगा, यदि वहां जघन्यस्थिति में प्रथम देवलोक में एक प्रल्योपम और दूसरे देवलोक में पल्योपम अधिक स्थिति माननी हो, तो वहां मी चकार लगाना ही चाहिये, area aa स्वर “सौधर्मादिषु यथाक्रमं ' ऐसा अधिकार क्षेत्र माना है, , For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३३) और 'सागरोपमे' 'अधिके च' ऐसे अलग अलग सूत्र माने है. जिससे न तो उनको अधिक स्थिति लेने में हरज है, और न 'सौधर्मेशानयोः' ऐसा माननेकी जरुर है, इसी तरहसे 'स्थितिः' ऐसा अधिकारसूत्र स्थितिवाचक माना है, और आगे भवनपतिमें दक्षिण और उत्तरइन्द्रों की स्थितिके लिए और शेष वहांके देवोकी स्थितिके लिए स्थितिका अलग अलग सूत्र दिखाया है इससे साफ हो जायगा के श्वेताम्बरोका ही पाठ सच्चा है, __(३१) इसी अध्यायमें सूत्र ३० में दिगम्बरलोक 'सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त' ऐसा पाठ मानते है. अब इस स्थानमें अवल तो अधिकार सूत्र माना होता तो 'सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः' ऐसा नहीं कहना पडता, और कहने परभी दोनों देवलोककी स्थिति सरखी हो जाती है. और इसीसे ही 'स्थितिप्रभाव.' यह सूत्र विरुद्ध हो जाता है. इधर दुसरा भी विरोध आयगा. वो विरोध यह है के सौधर्म और ईशानदेवलोककी जघन्य स्थिति दिखा करके शास्त्रकार महाराज फरमागे के 'परतः परतः पूर्वी पूर्वाऽनन्तरा' याने दुसरे देवलोकसे आगे पेस्तर पेस्तर देवलोककी उत्कृष्ट स्थिति होवे वो आगे आगे देवलोकमें जघन्यस्थिति समजनी. अब इधर तिसरा और चौथा देवलोककी एक सरखी मान ली तो पीछे चौथादेवलोकमें जघन्यस्थिति कहां से लायेंगे ?, तिसरा और चौथा देवलोककी स्थिति सरखी होनेसे इधर ही तीसरे देवलोक में For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) निश्चय नहीं होगा. सबब के प्रथम दूसरे देवलेोककी स्थिति एक सरखी बताई है. दुसरे देवलोक की कोई अलग उत्कृष्ट स्थिति दिखाई नहीं है के जिसको इधर तीसरे देवलाक में जघन्यस्थिति के रूप में माने. यदि मान लिया जाय कि इधर उत्कृष्टस्थिति के सूत्र में 'सौधर्मेशानयोः सागरोपमे अधिके' ऐसा कहा है, लेकिन जघन्यस्थितिके सूत्र में 'सौधर्मेशानयो:' ऐसा पद देकर जघन्यस्थिति नहीं कही है. इससे वहां पर जघन्यस्थिति ' अपरा पल्योपममधिकं ' इस सूत्र से सिर्फ सौधर्मदेवलोककी जघन्यस्थिति मानेंगे. अव्वल तो इधर सौधर्म ईशान दो देवलोक लेना इसका आपको निश्चय होना ही कठिन हैं. सबब कि आपने 'सौधर्मादिषु यथाक्रमं ' यह अधिकार सूत्र तो नहीं माना है. दूसरा इधर एक या दो देवलोक लेना उसके लिये कोई पद नहीं हैं इतना होने पर भी यह विरोध हो जायगा कि ईशानदेवलोक में आपको जघन्यस्थिति कौन माननी यह मुश्किल हो जायगा सबब कि सौधर्मदेवलोककी उत्कृष्ट स्थिति दो या साधिक दो सागरोपम है, और वहीं इशान में जघन्यस्थिति माननी होगी. इसका मतलब यह हो जायगा कि ईशान में जघन्यस्थिति दो सागरोपम या साधिक दो सागरोपम माननी होगी. इससे यह बडा हर्ज होगा कि यदि इधर ही दूसरे देवलोकसे पेश्तरकी उत्कृष्टस्थितिका जघन्यस्थितिपणा दिखाना होता तो आगे नरकके * For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५) सूत्रमें 'द्वितीयादिषु' ऐसा पद कहा है, वही पद इधर कहनेकी जरूरत होती. याने ऐसा सूत्र कहना होता कि 'द्वितीयादिषु परतः परतः पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा' 'नारकाणां च' लेकिन ऐसा सूत्र नहीं कहा, यही स्पष्ट दिखा रहा है कि सूत्रकार: महाराजको यह जघन्यस्थितिका सूत्र देवलोकमें दूसरे आदिसे लगाना नहीं हैं. इससे साफ हो गया कि दिगम्बरोंका माना हुआ पाठ असल आचार्यजीका बनाया हुआ नहीं है. इससे यह भी साफ होगया कि आगे भी 'सागरोपमे' 'अधिके च' यह सूत्र तीसरे चौथे देवलोककी जघन्यस्थितिके थे. व भी दिगम्बरोंने उड़ा दिए हैं. इस स्थानमें यह शंका जरूर होगी कि यदि ‘सौधर्मादिषु यथाक्रम' ऐसा अधिकार सूत्र ही श्वेताम्बरोंने माना है तो फिर 'सप्त सनत्कुमारे ऐसा सूत्र बनानेकी क्या जरूरत थी ?, क्योंकि पेश्तर दो देवलोककी स्थिति आगई है, इससे यह तीसरी स्थिति तीसरा देवलोककी है, यह स्पष्ट मालुम होजाता है. लेकिन यह शंका योग्य नहीं है. सबब यह है कि आगेके सूत्रमें 'विशेष' अधिकस्थिति चौथे माहेन्द्रदेवलोकमें दिखानी है तो वहां पर चौथा देवः लोक और अधिक सातमागरोपमकी स्थिति ये दोनों बातें स्पष्ट मालूम होजाय, इसीसे इधर यह सूत्र जरूरी है, दूसरा यह भी कारण है कि तीसरा चौथा देवलोक एक बलयमें होने से कोई मनुष्य दोनों देवलोक में साधिकसागरोपमकी स्थिति For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३६) मान ले, इससे भी सनत्कुमारकी स्थिति अलग दिखाने की जरूरत है. इसीतरहसे आगे भी 'आरणाच्युतावं' इस सूत्रों भी देवलोकका नाम लेने की यह जरूरत है, कारण कि आरणाच्युतको एक साथ गिनना और इसी तरहसे आनतप्राणतको भी समसमासवाले होनेसे एक साथ गिनना यह बात स्पष्ट हो जाय. इसी तरहसे प्रतिवेयकमें एकेक सागरोपम बढाने के लिये नत्र अवेयक ऐसा कहा और सारे विजयादिचारमें एकही बढाने के लिये 'विजयादिषु' ऐसा कहा है, और सर्वार्थसिद्धि में अजघन्यानुस्कृष्ट तैतीस सागरोपम स्थिति है यह दिखाने के लिये उसका भी नाम स्पष्ट कहा है, अन्तमें यह सब व्यवस्था अधिकारसूत्र कहनेसे ही हुई है, और चौथे आदि देवलोकोंके नाम भी अधिकार सूत्रकी सत्तासे ही कहने नहीं पडे है. (३२) आगे भी इधर चौथे अध्याय में व्यन्तर और ज्योतिष्कोंके विषय में जघन्य और उत्कृष्टस्थितिमें सूत्रके पाठ भिन्न भिन्न हैं, लेकिन उस विषयमें सूत्रकार महाराजका स्वतंत्र ऐसा कोई वचन नहीं हैं कि जिससे घुसेडने वाले या उडादेनेवालेको पकड सकें. यद्यपि इसी ही सूत्रका भाष्य स्वोपज्ञ होनेसे और इन्हीं आचावेजीके बनाये हुए और और ग्रन्थक आधारसे विपर्यास करनेवालेका निर्णय कर सकते हैं, लेकिन उसमें अभी अन्य ग्रन्थसे उतरना ठीक नहीं गिनकर इस स्थान में संकोच ही ठीक है.. For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३७ ) ( ३३ ) अध्याये पांचवेंमें दिगम्बर लोन 'गतिस्थित्युपः ग्रहो धर्माधर्म योरुपकारः ? ऐसा १७ वें सूत्रमें पाठ मानते तब श्वेताम्बर लोग " ० त्युपग्रहो ० ' ऐसा पाठ मानते हैं. इधर समझना इतना ही है कि हरएकका उपकार अलग - २ है हर एकके दो उपकार न होनेसे 'उपग्रहौ' ऐसा द्विवचन करना मुनासिबही नहीं है. और यदि दोनों के लिये द्विवचन रखना होवे तो 'धर्माधर्मयोः कृत्स्ने' वहां पर भी एकवचनांतही अवमा हकी अनुवृत्तिके लिये कठिनता होगी वहां पर भी 'अवगाहों' : ऐसा ही करना होगा. ( ३४ इसी अध्याय में २८ वें सूत्रमें श्वेताम्बर लोग 'भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषाः ऐसा पाठ मानते हैं, तब दिगम्बर लोग 'भेदसंवाताभ्यां चाक्षुषः? ऐसा मानते हैं अब इस स्थानमें यदि प्रेस या शोधककी गलती न होवे तो कहना चाहिये कि श्वेताम्बरों का माना हुआ डी पाठ योग्य हैं, और दिगम्बरोका पाठ अयोग्य ही है. सबब कि पेश्वर सूत्रकारने 'अगवः स्कनाथ' ऐसा सूत्र करके बहुवचनान्त हीं स्कन्धशब्द रखा है, और दिगम्बरोंने भी ' संघातभेदेभ्यः उत्पद्यन्ते'ऐसा सूत्र: २६ का पाठ माना है. इससे स्कन्धशब्द वहां भी बहुवचनान्तही माना है, तो फिर इधर एकवचनान्त स्कन्ध शब्दकी अनुवृत्ति कहाँसे आयेगी ? और एकवचनान्तले क्या फायदा है ? ऐसा नहीं कहना चाहिये कि जैसे 'मेदावजुः For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) इस सूत्र में अणुशब्द एकवचनान्त कर दिया है. इस तरह से इधर स्कन्धशब्द भी एकवचनांत ही होना उचित है ऐसा नहीं कहनेका अव्वल कारण तो यह है कि वहां पर अणुशब्द अनुवृत्तिसे लानेका नहीं है. और इधर तो स्कन्धशब्दकी अनुषृत्ति लानी है, और स्कन्धशब्द पेश्तर ही बहुवचनान्त है. दूसरा यह भी सबब है कि अणुका स्थान एक ही है, और स्कन्धके स्थानभी तो अनन्तानन्त हैं, इससे भी स्कन्धशब्द एकवचनान्त होना ठीक नहीं है, दूसरा वहां अणुशब्दका शास्त्रकारने स्पष्ट उच्चार एकवचनमें किया है इन सब सबबको सोचनेसे स्पष्ट हो जायगा कि 'चाक्षुषाः' ऐसे श्वेतांबरोंका मानाहुआ असलशब्दको इन दिगंबरोनें पलटाया है. जैसे इन सूत्रोंपर दिगम्बरोंका तत्वार्थसूत्र जो निर्णयसागर - प्रेसकी ओरसे छपाहुआ जैननित्यपाठ संग्रह में है उसके पाठकी अपेक्षा से समीक्षा की हैं, इसी तरहसे दूसरे भी सूत्रोंका विचार उसी ही किताबसे किया है, यदि दिगम्बर भाइयों की मान्यता और तरहकी होवे तो सूचित करें कि जिससे हम असत्याक्षेप से बच जायें. · (३५) इसी ही पांचवें अध्यायके ३७ वें सूत्रका पाठ दिगम्बर लोग ऐसा मानते हैं कि 'बंधेऽधिको पारिणामिकौ चयाने पुद्गलोंका परस्पर बन्ध होनेमें जो अधिकगुण होता है वह पारिणामिक याने दूसरे को पलटा देता है. For Personal & Private Use Only : Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३९ ) इस स्थान पर श्वेताम्बर लोग 'बन्धे समाधिकौ पारिणामिकौ' ऐसा पाठ मानते हैं, इसका अर्थ यह हैं कि पुद्गलोंका परस्पर बंध होने पर समगुणसे भी समगुणका पलटा हो जाता है. याने दशगुण कृष्णपुद्गल के साथ दशगुणश्वेतका बंध होवे या दशगुणरक्त के साथ दशगुणसफेदपुद्गलका बंध होवे तो क्रमसे कापोत और गुलाबी परिणाम हो जाता है. यह बात प्रत्यक्ष से भी गम्य है, तो फिर ऐसी बातको दिग म्बरोंने किस अकलमन्दीसे पलटा दी है, न्यूनगुणकी बाबत में श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनोंमेंसे एकने भी विधान नहीं कहा इसका सबब यह है कि दूसरा जो कमगुण होता है तो वह वो बन्ध पानेवाला दूसरा स्कन्ध आपोआप ज्यादहगुणवाला है. और अधिकगुणवालेका परिणाम हो जाय यह तो सूत्र में साफ कहा ही है. ( ३६ ) सूत्र ३९ में दिगम्बर लोग 'काल' ऐसा सूत्र मानते हैं. तब श्वताम्बर लोग 'कालश्चेत्येके' ऐसा सूत्रपाठ मानते हैं. श्वेताम्बरोंका कथन ऐसा है कि यदि कालद्रव्य स्वाभाविक ही आचार्य श्रीको मान्य होता तो 'द्रव्याणि जीवाश्च' इस स्थान में ही कह देते, आखिर में कालके उपकारका ' वर्त्तना परिणाम: ० ' इत्यादि सूत्र कहा वहां पर भी कहते. और दूसरा यह भी है कि यदि इधर एकीयमत से कालको द्रव्यनहीं बताना होता और दिगम्बरोंकी मन्तव्यतानुसार ही For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयः सातंत्ररीत का कर तो घर चकास्की वस्त ऐसा छोटा थी, और न 'सोऽनन्तसमर्थः ' ऐसा पृथक क्षेत्र करके अनुवृत्तिके लिये सत्शब्दकी जरूरत थी. इससे साफ होता है कि कालको आचार्य महाराजने विकल्पसे द्रव्यतरीके माना है, और ऐसा होने पर 'कालय' ऐसा श्वेतांबरोंके कथनानुसार ही पाठ होना जरूरी है. दिगम्बरोंके हिसाबसे तो सारे लोक के आकाश में कालाकी विद्यमानता है. इससे उनके मत से क्षे जैसा 'धर्माधर्मयोः कृत्स्ने यह सूत्र श्रीउमास्वातिवाचकजीने किया है, उसी तरहसे इस कालद्रव्यके लिये भी अवगाह और प्रदेशमान समग्रलोकमें दिखाना जरूरी था, याने ' लोके तदाकाशमिताः (बा) लोकमिता कालाणवः ' ऐसा या अन्यकिसी तरहसे कहने की जरूरत थी. लेकिन न तो सूत्रकारमहाराज स्वतंत्र कालको द्रव्य मानते हैं, अथवा न तो लोकाकासमें व्याप्ति मानते हैं, और न समग्रलोकाकाश के प्रदेश जितने है इतने कालके अणु मानते हैं.. इससे साफ होता है कि न तो सूत्रकार दिगवर आम्नायके थे, और न उन्होने दिगम्बरकी मान्यता सच्ची मानी है. यह सूत्र कालमेत्येके किसी भी तरहसे माने, परंतु यह सूत्र पूर्णतः श्वेताम्बराकी मान्यता काही है, इससे साफ होता है कि इसके आचार्य श्रकामारोंकी मान्यता वाले थे और ग्रह तथार्थमंत्र भी उन वेताम्बरोंकाही है.. For Personal & Private Use Only मानना होता में · Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) 7 (३७) आगे आयनको प्रतिपादन करनेवाले छडे अध्या बमें दिगम्बर ' तीव्रमन्दाताज्ञातमात्रा किरनपीयविशेषः ऐसा छड्डा सूत्र मानते हैं. और वेताम्बर लोग 'नन्दा ताज्ञात भाववीयधिकरणेभ्यस्वद्विशेषः ' ऐसा सूत्र मानते है. ताम्बका कहना है कि जैसे तीव्रमन्दादि अभ्यन्तर तरहसे वीर्यमी अभ्यन्तर वस्तु है और अधिकरण यह बा वस्तु है और उस अधिकरणके भेदभी आगे दिखानेके हैं तो अधिकरणको आखिर मेंही रखना योग्य है. तृतीया लेके करण लेना या पंचमी से हेतु लेना और विशेषशब्दकी इधर जरुरत है या नहीं यह शोचने के काबिल होने परभी कर्ताकी चर्चा में इतना उपयुक्त नहीं है. इस स्थानमें सबसे ज्यादा ध्यान देनेका तो यह है कि इधर अधिकरण पदं समासमें आगया है इससे गौणका परामर्श होना नहीं मानके आगे सूत्र में 'अधिकरणं जीवाजीवाः' ऐसा कहकर अधिकरणशब्द स्पष्ट लेनकी जरूरत हुई, इसी तरहसे दूसरेस्थानों में समस्तपदोकी अनुवृत्ति करना सूत्रकारको इष्ट नहीं यह बात निश्चित होजाती है । J' ( ३८ ) इसी अध्यायमें सूत्र १३ में दिगम्बरो कषायोदयाची परिणामचारित्रमोहस्य' ऐसा सूत्र हैं. तब श्वेताम्बर लोग 'कषायोदया चीत्रात्मपरिणानवारिवनोदय' ऐसा पाठ मानते हैं श्वेताम्बरांका कहना ऐसा है कि इवर For Personal & Private Use Only • Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२) आत्मशब्द न रक्खें तो किसी मुनिमहाराजको किसी अधम. मनुष्यने कषायोदयसे ताडन तर्जन किया. तो क्या कषायोदयसे मुनिराजके शरीरमें जो पर्यायान्तर हुआ वह मुनिराजको चारित्रमोहको बन्धानेवाला होगा?, मानना ही होगा कि रैराग्यवान् मुनिराजको तो उससे निर्जरा होती है, तो पीछे इधर परिणामकी साथ आत्मशब्द लंगाना जरूरी ही है दोनों फीरके वालेने इसी ग्रंथके दुसरे अध्यायका औपशमिकवाले सूत्र में औदयिक पारिणामिकसे पेश्तर ही जीवस्वतत्व शब्दका कहना माना है, इससे यह भी मानतेही है कि कर्मोदयजन्य परिणाम भी जीव और अजीव दोनों में होता है, इससे इधर आत्मशब्द । होना ही चाहिए. .. (३९) इसी तरहसे सूत्र १४ में दिगम्बर 'बड्वारंभपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः' ऐमा ही सूत्र मानते हैं, तब श्वेतांबर 'बहवारंभपरिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः' ऐसा पाठ मानते हैं. श्वेतांबरोंका मतलब यह है कि जैसे बहुतआरंभादिसे नरकका अविरत ऐसे चक्रवर्तिआदि जीव आयुष्य बांधते हैं, उसी तरहसे तन्दुलमत्स्य कुरुटोत्कुरुट आदिके समान जीवो भी कषायोदयकी तीव्रतासे नरकंके आयुष्यका आश्रव करते हैं, इससे चकारकी जरूरत है, और इसीसे ही. देव, गुरु, धर्मकी आशातना करनेवालेको और मासादिकका तप करके आहार करनेवालेको भी नरकोदिका आयुष्य बांधने का संभव माना जायगा. For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४३) (४०) अध्यायसातवेंमें दिगम्बर लोग ' हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनं ' ऐसा पाठ मानते हैं, तब श्वेतांबर लोग 'हिंसादिष्विहामुत्र चापायावद्यदर्शनं । ऐसा पाठ मानते हैं. इधर तो साफ मालूम होजाता है. कि : इह' और 'अमुत्र'का समुच्चय करनेके लिये चशब्दकी जरूरत है, और सूत्रकारने चकार कहा भी होगा. लेकिन सिर्फ श्वेतांबरोंका सूत्र लेकर किसी भी तरहसे यद्वा तद्वा करके उलट पुलट करने का कार्यही दिगंबरोंने किया मालूम होता है... (४१) जिसतरहसे नबमें सूत्र में जरूरी ऐसा चकार था, लेकिन दिगम्बरोंने उड़ा दिया, इसी तरहसे ग्यारहवें सूत्रः में ' मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च संवेगवैराग्यार्थ. ' ऐसा सूत्र बनाकर अनावश्यक चकारको शरीक कर दीया है.' इधर चकारका कोईभी मूल प्रयोजन नहीं है. और न तो इधर चकार लगानेसे कोई फायदा है. लेकिन दिगम्बरोंने इधर चकार लगा दिया है. (४२) अध्याय सातवेंमें सूत्र ३२ में दिगम्बरोंने 'कंदर्प. ०परिभोगानर्थक्यानि ' ऐसा सूत्र माना है. और श्वेताम्बरोंने 'कंदर्प० गाधिकत्वानि' ऐसा सूत्र माना है. श्वेताम्बरोंका कहना है कि अनर्थदंडके अधिकारमें अनर्थक किसको गिनना? यही समझानेका होता है. और उसी ही शब्दको भीतर केस डालें ?, इससे यह साफ है कि अपने अर्थसे ज्यादा हो वह For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) अतिचाररूप होवे, अन्यथा अधिक होने पर मी अन्यके भी प्रयोजन में आवे उसको अनर्थक कैसे कह सकें १ यानें अनर्थकपन तो तभी होवे कि अपने और दूसरेके भी प्रयोजनमें न आत्रे और अधिकपणा तो अपने कार्यसे ज्यादा हुआ उसको कह सकते हैं, और वही अनर्थदंडका अतिचार बनता है. ( ४३ ) आठवें अध्यायके ६ ट्ठे सूत्रमें दिगम्बर 'मतिश्रुतावधिमनः पर्यय केवलाना' ऐसा सूत्र मानते हैं. तब श्वेताम्बर 'मत्यादीनां' इतना ही सूत्र मानते हैं, श्वेतांबर लोक इसके संबध में कहतेहैं कि मति श्रुत अवधि मनःपर्यव और केवल ये पांचों ज्ञान प्रथम अध्याय में दिखा गये हैं. इससे मत्यादि इतनाही कहना काफी ऐसा नहीं कहना कि यदि इधर मति आदिको स्पष्ट नहीं कहते हैं तो फिर 'चक्षुस्चक्षुरधिकेवलानां' ऐसा दर्शनावरण के भेदों में: स्पष्ट निर्देश क्यों मानते हैं?. ऐसा नहीं कहने का कारण यह है कि.. इस ग्रंथ में इसके सिवाय किसी भी स्थानमें चार दर्शन गिनाये ही नहीं है. क्षायिक और क्षायोपशमिकभेदमें कमसे एक और तीन मिलके चार दर्शन गिनाये हैं. लेकिन किसी भी स्थान में चारदर्शनके नाम तो गिनायेही नहीं है. इस सबसे इन चार नामोंको जरूर कहना चाहिये. और मत्यादिज्ञानके नाम तो आगे आगये हैं, सबब नहीं कहना ही लाजिम हैं. दिगंबरों की उलटापालट करने की विचित्रता तो यह है कि यहां स्पष्टताकी जरूरत है और सूत्रकारने स्पष्टता की है वह उड़ा देते हैं और F For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४५) जिधर पुनरुक्तपनसे संकोच किया है वहां स्वयं संकुचितता कर बैठते हैं.. . (४४ ) आठवें अध्यायके १३ वें सूत्रमें दिगम्बरलोग 'दानलाभभोगोपभोगबीर्याणां' ऐसा पाठ मानते हैं. तब श्वेताम्बरलोग 'दानादीनां' इतना ही सूत्र मानते हैं. श्वेताम्बरोंका कहना है कि श्रीमान्ने दूसरे अध्यायके चौथे सूत्र में ही क्षायिकके भेद गिनाते दान लाभ भोग उपभोग और वीर्य ये पांचो ही भेद यथाक्रमसे गिनाये हैं. और सूत्रकारकी पद्धतिसे एकवार कहा हुआ दुबारा कहना उचित भी नहीं है. . . . .. (४५) इसी अध्यायके २०वें सूत्र में दिगम्बर 'शेषाणामन्तर्मुहूर्ताः' ऐसा पाठ मानते हैं. तब श्वेताम्बर 'शेषाणामन्तर्मुहूर्त' ऐसा पाठ मानते हैं। श्वेताम्बरोंका कहना है कि अंतर्मुहूर्त यह शब्द अव्ययीभावसे बना होनेसे नपुंसकलिंगका है. इससे अंतर्मुहूर्त ऐसाही होना चाहिये. और सब शेषकोकी जघन्यस्थिति एक एक अंतर्मुहर्तकी होनेसे अन्तमुहूर्तशब्दसे आगे बहुवचन करना विरुद्ध है. कभी ऐसा कहने में आवे कि एकेक कर्मकी अन्तर्मुहूर्त्तकी जघन्यस्थिति होनेसे सब शेषकर्मोकी अपेक्षासे बहुत अन्तर्मुहूर्त होनेसे अन्तर्मुहूर्तशब्दके आगे बहुवचन धरना मुनासिब है, लेकिन यह कहना व्यर्थ है. इसका सबब यह है कि बहोतकर्मोकी अपेक्षासे :स्थिति में बहुवचन माने तो पेश्तर ज्ञानाचरणादिचारकर्मोकी उत्कृष्ठः For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) स्थिति तीस कोडाकोडी सागरोपम कही है वहां पर 'त्रिंशतः ' ऐसा कहना होगा और नामगोत्रकी स्थिति बीस सागरोपम कोटि दिखाई है तो वहां पर 'विंशती' ऐसा कहना होगा. इसी तरहसे देवताओं की स्थिति में प्रत्येक देवता और देवलो - क्रकी अलग २ स्थिति होने से पल्योपम और सागरोपममें सभी स्थान में बहुबचन रखना होगा. इन सब सबबों से साफ होता है कि 'अंतर्मुहूर्त्त ' ऐसा ही पाठ होना चाहिये. ( ४६ ) नवमें अध्यायके ३० वें सूत्र में दिगम्बर 'आर्त्तममनोज्ञस्य ०' और ३१ में 'विपरीतं मनोज्ञस्य' ऐसा पाठ मानते हैं. तब श्वताम्बर' आर्त्तममनोज्ञानां०' ऐसा पाठ मानते हैं. श्वेताम्बरोंका कहना है कि अनेकतरहके अमनोज्ञ विषय होते हैं और ध्यानका वक्त मुहूर्त्त तकका होनेसे अमनोज्ञविषयोके वियोग में ध्यान होता है. और अनेकविषयों का समूहरूप से भी वियुक्त होने के लिये ध्यान होता है. इससे बहुवचन रखना यही मुनासीब है. ( ४७ ) सूत्र ३३ में दिगम्बर 'निदानं च' ऐसा सूत्र पाठ मानते हैं और श्रुताम्बर निदानं कामोपहतचित्तानां' ऐसा सूत्रपाठ मानते हैं. श्वेताम्बर और दिसम्बर दोनोंही भवान्तरमें भगवानकी सेवाका मिलना, शुभगुरुका योग मिलना, गुरुवचनका श्रवण पाना इत्यादि बातें मिलने की चाहना करते हैं. लेकिन उनको निदान गिनकर आध्यान नहीं गिनते हैं. इससे कौन निदान आर्त्तध्यान गिना जाय ? यह सोचना For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ) चाहिये निर्णय यही होगा कि विषयासक्तिके परिणाम वालेका ही निदान आर्त्तध्यान होगा. ( ४८ ) सूत्र ३६ में दिगम्बर लोग धर्मध्यानके अधिकारीका निर्देश नहीं करते हैं. श्वेताम्बर लोग 'अप्रमत संयतस्थ' ऐसा कहकर धर्मध्यान के अधिकारीका निर्देश करते हैं. ता बरोंका कथन है कि यदि आर्त्त, रौद्र और शुक्लध्यान के अधिकारी भगवान् उमास्वाविजीने दिखाये हैं तो फिर इधर धर्म ध्यान में अधिकारीका निर्देश क्यों नहीं ? उपर्युक्त विचारोंसे श्वेताम्बर और दिगम्बरोंके तत्वार्थ सम्बन्धी कौन २ सूत्रमें फर्क है यह बात सोचने में आ गई, ra इस तस्वार्थ सूत्र के ऊपर एक छोटा भाष्य है जिसको श्वेताम्बर लोग मानते हैं, और दिनचर लोग नहीं मानते हैं. उस भाष्यको श्वेताम्बर लोग सिर्फ मानते ही हैं ऐसा नहीं, किन्तु उस भाष्यको श्रीमान् उमास्वातिवाचकजीने ही बनाया है ऐसा मानते हैं. भाष्य के कर्त्ता की मीमांसा 3 अब सोचने का यह है कि वह भाष्य श्रीमान् उमास्वातिवाचकजीका बनाया हुआ है या नहीं ? यह मान्य स्वर्य श्रीउमास्वातिवाचकजीने ही बनाया है, उस विषय में यद्यपि इसकी वृत्ति बनानेवाले श्रीहरिभद्रसूरिजी और श्रीसिद्ध सेनाचार्यजी तो साफही शब्दों में उस भाष्यको स्वोपज्ञ दिखाते हैं। For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८) E भाष्यका स्वोपज्ञताका विचार.. ... (१) भाष्यकार महाराज खुदही इस सूत्र का स्वकृतपना दिखाते हैं, देखिये संबंधकारिका ३१ ‘नते च मोक्षमार्गाद् हितोपदेशोऽस्ति जगति कृत्स्नेऽस्मिन् । तस्मात् परमिदमेवेति मोक्षमार्ग प्रवक्ष्यामि ॥३१।।' अकलमंद आदमी सोच सकते हैं कि यदि सूत्रकार और भाष्यकार एकही नहीं होते तो प्रवक्ष्यामि । ऐसा अस्मत्शन्दकी साथ होनेवाला क्रियापद नहीं कहते. .. (२) सारे भाष्यको देखनेवाला मनुष्य अच्छीतरहसे देख सक्ता है कि भाष्यमें एकभी जगह पर सूत्रकारके लिये बहुमानका एक वचनभी नहीं आया है. यदि सूत्रकारमहाराजसे भाष्यकार अलग होते तो कभी भी सूत्रकारके बहुमानकी पंक्तियां या विशेषण कहे बिना नहीं रहते। (३) भाष्यकारने किसीभी स्थानमें अवतरणके अधि. कार आदि सूत्रकारसे भिन्नपना नहीं दिखाया है. या वैकल्पिकपनभी नहीं दिखाया है... (४) भाष्यकारने किसीभी स्थानमें सूत्रका दुरुक्तपन या सूक्तपनका विचार नहीं किया है. (५) भाष्यकारमहाराजने किसीभी स्थानमें सूत्रकारने ऐसा कहा है सूत्रकार ऐसा कहते हैं ऐसा कथन नहीं किया है. और व्याख्याका विकल्पभी नहीं दिखाया है... For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४९) (६) भाष्यकारने जहां परभी सूत्रका अवतरण दिया है वहां सूत्रकी साक्षी देने परभी 'उक्तं भवता' आदि सूत्रकार और भाष्यकारका अभेदपना दिखानेवालाही शब्दप्रयोग किया है. देखिये वे ' अत्र भवता' आदि अभेददर्शक स्थानों, जिसके देखने से आप वाचकोंको पूरा निर्णय हो जायगा कि यह भाष्य सूत्रकारमहाराजकाही किया हैक भाष्य ( कलकत्ताकी पुस्तक) पृष्ठ ३९ उक्तं भवता' जीवादीनि तत्त्वानि' याने जीवादि तच्चो आपने दिखाये, सूत्र ४ में जीवादि दिखाये हैं. यदि भाष्यकारमहाराज और सूत्रकारमहाराज अलग होते तो इधर 'उक्तं भवता' ऐसा प्रयोग नहीं होता.. . ख पृष्ठ ४५ में 'उक्तं भवता पंचेंद्रियाणीति' आपने इन्द्रियां पांच हैं ऐसा कहा है . यह सूत्र अ. २ सूत्र १५ · ग पृष्ठ ४५ में ही उक्तं भवता पृथिव्यब्वनस्पतितेजो वायवो द्वीन्द्रियादयश्च नव जीवनिकायाः (अ२ सू.१३-१४) और पंचेन्द्रियाणि ( अ.२ सू १५) चेति, इसको सोचनेसे यह साफ हो जायगा के भाष्य सूत्रकारने ही किया है, और पृथिव्यधनस्पत्यादिका क्रमही स्थावर और त्रसके विषयमें माना है. घ पृष्ठ ४६ 'उक्तं भवता द्विविधा जीवाः समनस्का अमन - स्काश्चेति' (अ. २ सू. ११) For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०) ङ पृष्ठ ६६ ' उक्तं भवता नारका इति गति प्रतीत्य यिको भावः । (अ २ सू ६ गतिकषाय. ) च पृष्ठ ७७ ' उक्तं भवता लोकाकाशेवगाहः (५-१२) 'तदनन्तरमूर्ध्व गच्छत्या लोकान्तादिति' (१०५) इस स्थानमें ज्यादा तो ख्याल यह करनेका है के तीसरे अध्यायमें भाष्यकार ' उक्तं भवता' ऐसा कहते हैं, और वे सूत्र तो बहोत आगे आयेंगे, इस बातको सोचनेसे निर्णय हो जायगा के यह 'उक्तं भवता' का प्रयोग भाष्यकी अपेक्षासे नहीं है, किन्तु पेस्तर सूत्रकी रचना अपनेही की है उसकी अपेक्षासे ही है. छ पृष्ठ ८६ ' उक्तं भवता मानुषस्य स्वभावमार्दवार्जवत्वं च' ... ( अल्पारंभपरिग्रहत्वं स्वभावमादेवार्जवं च मानुषस्य अ. ६ सू. १८) . ज पृष्ठ ९२ 'उक्तं भवता भवप्रत्ययोऽवधि रकदेवानामिति' - (भवप्रत्ययो नारकदेवानां (अ १ सू २२) तथौदयि केष भावेषु देवगतिरिति (२-६ गतिकषायेत्यादि ) केवलिश्रुतसंघधर्मदेवार्णवादो दर्शनमोहस्य ( अ. ६ सू. १४) सरागसंयमादयो देवस्य (सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि च देवस्य ( अ. ६ सू २० ), नारकसंमृच्छिनो नपुंसकानि, न देवाः ( अ. २ सू. ५०-५१) . For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) झ पृष्ठ ९६ ' उक्तं भवता देवाश्चतुर्निकायाः ( ४-१ ) दशा ष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः ( ४-३ ) ञ पृष्ठ १११ ' उक्तं भवता द्विविधा वैमानिका देवाः, कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ( अ. ४ सू १८ ) ट' पृष्ठ ११३ उक्तं भवता जीवस्यौदयिकेषु भावेषु तिर्यग् योनिगतिरिति ( अ. २ सू. ६ ) ( गतिकषायलिंगेत्यादि) तथा स्थितौ तिर्यग्योनीनां चेति (३-१८) आश्रवेषु च माया तैर्यग्योनस्य ( अ. ६ १७ ) इति. ठ पृष्ठ १३४ 'उक्तं भवता संघातभेदेभ्यः स्कन्धाः उत्पद्यन्ते (अ. ५.२६ संघात भेदेभ्य उत्पद्यन्ते ) ड पृष्ठ १३५ 'उक्तं भवता जघन्यगुणवर्जानां स्निग्धानां रूक्षेण रूक्षाणां च स्निग्धेन सह बंधो भवतीति' ( न जघन्यगुणानाम् ५-३३ ) , , ढ पृष्ठ १३६ ' उक्तं भवता द्रव्याणि जीवाश्च ' (५-२ ) ण पृष्ठ १३७ ' उक्तं भवता गुणपर्यायवद् द्रव्यम् (५-३७) त पृष्ठ १३७' उक्तं भवता बन्धे समाधिको पारिणामिको (५-३६) थ पृष्ठ १४३ ' उक्तं भवता सकषायाकषाययोर्योगः साम्परा केर्यापथयो: ' (६५) ( सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः ) द पृष्ठ १४९ 'उक्तं भवता सद्वेद्यस्याश्रवेषु भूतव्रत्यनुकम्पेति' ( ६-१३ ) For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२) ध पृष्ठ- १५४ 'उक्तं भवता हिंसादिभ्यो विरतिव्रतं ' ( हिंसा नृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ७-११) न पृष्ठ १८३ ' उक्तं भवता गुप्त्यादिभिरभ्युपायैः संवरो ___ भवतीति ' (९.२ स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षा०) प पृष्ठ २०७ 'उक्तं भवता पूर्वे शुक्ले ध्याने (शुक्ले चाये.९-३९) - परे शुक्ले ध्याने ( परे केवलिनः ९.४०) फ पृष्ठ २०८ । उक्तं भवता परीषहजयात्तपसोऽनुभावतश्च कर्मनिर्जरा भवतीति' (९-३ तपसा निर्जरा च, ८-२२ . विपाकोऽनुभावः, ८.२४ ततश्च निर्जरा) ब पृष्ठ ३ तत्त्वार्थाथिगमाख्यं बह्वर्थ संग्रहं लघुग्रंथम् । वक्ष्यामि शिष्यहितमिममर्हद्वचनैकदेशस्य ॥ २२ ॥ इन वचनोंसे भी साफ होजाता है के भाष्यकारही सूत्रकार है, यदि दोनों एकही नहीं होते तो ' वक्ष्यामि' ऐसा ग्रंथ करनेके विषयमें नहीं कहते.. 'भ पृष्ठ ५ (तं पुरस्ताल्लक्षणतो विधानतश्च विस्तरेणोपदे क्ष्यामः' इस स्थानमेंभी : उपदेच्यामः' ऐसा प्रयोग मोक्षमार्गके लिए तबही होवे के जब मूलकारही भाष्य कार होवे..... म पृष्ठ ७ 'ताँल्लक्षणतो विधानतश्च पुरस्ताद् विस्तरेणोपदे क्ष्यामः । सूत्रकारही भाष्यकार नहीं होते तो इधर 'वक्ष्यन्ति' ऐसा कहते । For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३) य पृष्ठ १६ भाष्यकार लिखते हैं के 'उक्तं भवता मत्यादीनि ज्ञानानि उद्दिश्य तानि विधानतो लक्षणतश्च पुरस्ताद्विस्तरेण वक्ष्याम इति तदुच्यतामिति । अत्रोच्यते । मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्तेत्यादि, इन पंक्तियोंकों सोचनेवाले अकलमंद तो जरूर मंजुर करेंगे के इस वचनसे सूत्रकार और भाष्यकार एकही व्यक्ति है, क्योंके ऐसा नहीं होता तो भाष्यकारक वचनका दाखला लेके शंका उठानी और पीछे सूत्रसे समाधान करना यह दोनोंके का एक न होवे तो कभी भी बने नहीं: इसी तरहसे पृष्ठ ९ 'अणवः स्कंधाश्च (५.२५) संघातभेदभ्य उत्पद्यन्ते ( ५-२६ ) इति वक्ष्यामः, पृष्ठ १६ नयबादान्तरेण तु यथा मतिश्रुत्तविकल्पजानि भवन्ति तथा र पृष्ठ ३२ चारित्रं नवमेऽध्याये वक्ष्यामः, नयान वक्ष्यामः, पृष्ठ ४८ सकषायत्वा० (२.२ . कायवाङ्मनःप्राणा० . (५-१९ नामप्रत्ययाः० ( ८-२४) इति वक्ष्यामः। पृष्ठ १६६ बन्धं वक्ष्यामः । पृष्ठ १७२ स्थितिबन्धं वक्ष्यामः। पृष्ठ १८० अनुभावबन्धं वक्ष्यामः। For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५४) पृष्ठ १८१ प्रदेशबन्धं वक्ष्यामः । पृष्ठ १८३ संवरं वक्ष्यामः । पृष्ठ १९५ परीषहान् वक्ष्यामः । पृष्ठ २०० इत ऊर्ध्वं यद्वक्ष्यामः । इन सब स्थानों में मूलसूत्रकारके विषयमें तीसरे पुरुषके क्रियापदकी जरूरत थी, लेकिन मूल और भाष्यके रचयिता एकही होनेसे सर्वत्र ‘वक्ष्यामः' ऐसा अस्मत्शन्दके क्रियापदका प्रयोग किया है। ल इन सब प्रमाणोसे ज्यादह बलवत्तर प्रमाण नीचे दिखाते हैं. इस नीचे दिये हुए प्रमाणसे साफ मालूम होजायगा कि तत्त्वार्थके मूलसूत्रकार और भाष्यकार एकही है. इस प्रमाणको ज्यादह बलवत्तर कहनेका मुद्दा यह है कि खुदही भाष्यकार महाराज अपनी स्पष्ट वृत्ति दिखाते हैं. पृष्ठ २३२ वाचकमुख्यस्य० । वाचनया च महा. न्यग्रोधिकाप्रसूतेन० । अर्हद्वचनं सम्यग्गुरु० । इदमुच्चै - गरवाचकेन सत्वानुकम्पया दृब्धं । तत्त्वार्थाधिगमाख्यं स्पष्टमुमास्वातिना ( स्वातितनयेन) शास्त्रम् ॥५॥ ऐसा स्पष्ट प्रमाणमय उल्लेख होने परभी भाष्यकारको नहीं मानना, यह कैसा अभिनिवेशका प्रभाव होगा सो वाचकगण आपही सोचें For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५) 00000000 0000000 सबब 0000000000 30000000 00 भाष्यको उपर्युक्त प्रमाणोंसे वाचकोंको स्पष्ट मालूम होगया नामंजूर होगा कि जिन उमास्वातिवाचकजीने तवार्थकरनेका सूत्र बनाया है, उन्होनेही यह भाष्यभी बनाया है. वाचकको अब यह शंका जरूर होगी कि ऐसा स्पष्ट प्रमाण होते दिगम्बर लोग तत्त्वार्थसूत्र को मंजूर करते हैं, लेकिन भाष्यको क्यों नहीं मंजूर करते हैं ?, परन्तु यह शंका उन्हीं वाचकों को होगी कि जो दिगम्बरोंकी रीतिसे परिचित नहीं हैं. क्योंकि उन लोगोंको असल तो तत्वार्थ ही मानना उचित नहीं है सबब कि इसमें संगमात्रको परिग्रह नहीं कहा है, केवली महाराजको ग्यारह परीषह मानकर केवलीको आहार माना है. बकुशको भी निग्रंथ माना है, लेकिन ये लोग इन मूलसूत्रोंका अर्थ अपने मजहबके अनुकूल ठोक ठाक कर बैठा लेते हैं. लेकिन जब भाष्यको मंजूर करें तब तो अपना कपोलकल्पित अर्थ चले नहीं, इससे इन दिगम्बरोंने भाष्यको नामंजुर ही रक्खा. भाष्यकारमहाराजने तो विवेचन में ऐसा स्पष्ट फर्माया है कि जिससे दिगम्बरोंको अपनी मंतव्यता छोडकर श्वेताम्बरोंकी मन्तव्यता मंजूर करनी ही पडे. देखिये७ ११ का भा. - चेतनावत्सु अचेतनेषु च बाह्याभ्यन्तरेषु द्रव्येषु मूर्छा परिग्रहः For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९-११ का भा -एकादश परिषहाः जिने वेदनीयाश्रयाः संभवन्ति, तद्यथा क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकचर्याशय्या वधरोगतृणस्पर्शमलपरीषहाः ९-४८ का भाष्य-शरीरोपकरणविभूषानुवर्तिन ऋद्धियशस्कामाः सातगौरवाश्रिताः अविविक्तपरिवारा छेदशरलयुक्ता निग्रंथा बकुशाः, लिंगं द्विविध-द्रव्यलिंगं भावलिंगं च, भावलिंगं प्रतीत्य सर्वे पंच निग्रंथा. भावलिंगे भवन्ति, द्रव्यलिंग प्रतीत्य भाज्या: ... लिंग स्त्रीपुनपुंसकानि, प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयस्यावेदः सिध्यति, द्रव्यालगं त्रिविधंस्वलिंगमन्यलिंगं गृहिलिंगमिति,तत्प्रतिमाज्य। सर्वस्तोका नपुंसकलिंगसिद्धाः स्त्रीलिंगसिद्धाः संख्येयगुणाः पुलिंगासिद्धा संख्येयगुणा इति । अहेच्छासनानुष्ठायिनां श्रुतधराणां बालतपस्वि. शैक्ष्यग्लानादीनां च संग्रहोपग्रहानुग्रहकारित्वं प्रवचनवत्सलत्वमिति। अनुज्ञापितपानभोजनमिति । ७-३३ आत्मपरानुग्रहार्थ स्वस्य-द्रव्यजातस्य अन्नपात्र बस्त्रादेः पात्रेऽतिसर्गो दानम् । तत्र बाटो द्वादशकरूपस्योपधेः । . For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५७) ९-४९का भाष्य-बकुशो द्विविधः-उपकरण रकुशः शरीरबकुशश्च, तत्रोपकरणाभिष्वक्तचित्तो विविधविचित्रमहाधनोपकरणपरिग्रहयुक्तो बहुविशेषोपकरणकाक्षायुक्तो नित्यं तत्प्रतीकारसेवी भिक्षुरुपकरण बकुशो भवति । उपर्युक्त वाक्योंको देखकर दिगम्बरोंने भाष्य खुद सूत्रकारने किया होने परभी मंजूर किया नहीं है. यद्यपि दिगम्बरोंने इस भाष्यको मान्य नहीं भाष्यका किया है, लेकिन दिगम्बरों के आचार्योंने इसी अनुकरण भाष्यको देखकर उसके ऊपरसे ही बादमें सर्वाथीसद्धिआदि टीकाएँ बनाई है. svoo.00000००००४ श्रीमान् गणधरमहाराजने और आचार्य कृतिकी महाराजाओंने अनन्तगम और नयके आवश्यकता विचारसे युक्त अंगोंकी रचना की थी, और वह कृति श्रीमानकी वक्त अच्छी तरह विद्यमानभी थी, तो फिर सूत्रकारमहाराजको तत्वार्थ बनानेकी क्या जरूरत थी? श्रीमानने इस शास्त्रमें कही हुई बातों सूत्रों में स्पष्ट उपलब्ध थी और अभी भी उपलब्ध है. देखिये ! सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्गके लिए 'नादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा ण होंति चरणगुणा । ००००००००००००० For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८) चरणाहिंतो मोक्खो मोक्खे सोक्खं अणाबाहं । उत्तरा. अध्य. इसी तरहसे पण्णवणाजी और उत्तराध्ययनमें निसर्गाधिगम सम्यत्वका ब्यान पद १ और उत्तराध्य० की गाथाओं में है, सत्संख्याक्षेत्रादिके लिए संतपयपरूवणा अनुयोगद्वारोमें, ज्ञानका सारा अधिकार नन्दीसूत्रमें, नयका अधिकार अनुयोगद्वारमें, मावोका अधिकार अनुयोगद्वारोमें, जीवोके भेद जीवाभिगम और पण्णवणा, शरीरका अधिकार प्रज्ञापनामें और अनुयोगद्वारमें, नरकका अधिकार जीवाभिगम भगवतीजीआदिमें, भरतादिक्षत्रोंके लिए जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति शेष समस्तद्वीपसमुद्रोके लिए भगवतीजी और अनुयोगद्वार और जीवाभिगम, देवताओंका अधिकार स्थानांग समवायांग भगवती प्रज्ञापना जीवाभिगमादि, काल और सूर्य चंद्रादि भ्रमणआदिके लिए स्थानांग भगवती जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति चंद्रप्रज्ञप्ति सूर्यप्रज्ञप्तिआदि, देवताओंकी स्थितिके लिये प्रज्ञापनाका स्थितिपदआदि, धर्मास्तिकायादिद्रव्योंके लिए अनुयोगद्वारस्थानांगभगवतीआदि,पुद्गलोंके स्कन्धवर्ण शब्दके लिए उत्तराध्ययन प्रज्ञापना भगवती स्थानांगादि, उत्पादादि स्याद्वादके लिए नयापेक्षयुक्त अनुयोगद्वार भगवतीआदि, द्रव्यांदिके लक्षणोंके लिए उत्तराध्ययनादि,आश्रवके लिए स्थानांग भगवतीआदि, ज्ञानावरणादिहेतुओंके लिए श्रीभगवतीजी पंचसंग्रहादिप्रकरण देशसर्वविरति और भावनाके लिए सूगडांग आचारांग उपासकदशादि, अतिचारोंके लिए उपासकदशांगश्राद्धप्रतिक्रमणादि, For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५९ ) कर्मके भेदोके लिए स्थानांग प्रज्ञापना भगवती कर्मप्रकृत्यादि, कर्मोकी स्थिति के लिए स्थानांग समवायांग प्रज्ञापनादि, संवरके लिए उत्तराध्धयन दशवैकालिंक आचारांगादि, परीषहके लिए उत्तराध्ययनभगवत्यादि, तपस्या के लिए उत्तराध्ययन औपपातिक स्थानांग भगवत्यादि, ध्यानके लिए आवश्यकनिर्युक्ति औपपातिक स्थानांगादि, निर्ग्रथोंके स्वरूपके लिए भगवती उत्तराध्ययन स्थानांगादि, मोक्ष के लिए औपपातिक प्रज्ञापनादि, इन सबकी मतलब यह है कि श्रीमान् उमास्वातिवाचकजीने तत्त्वार्थ सूत्र में जो हकीकत कही है वे सूत्रों में अनुपलब्ध नहीं है, तब ऐसा है तो पीछे ऐसा अलग सूत्र करनेकी क्या जरूरत थी ? ऐसा अलग सूत्र बनानेसे तो विद्यार्थिलोग इससे ही संतुष्ट हो जायेंगे और आगे सूत्र देखने का प्रयत्न नहीं करेंगे और ऐसा होनें से सूत्रकारगणधर महाराजकी अवज्ञा होगी. देखते भी हैं कि दिगंबरलोग इसी तन्त्रार्थको मंजुर करते हैं और सब सूत्र सिद्धांतोंको उडा देते हैं. यदि वाचकजी महाराजने यह नहीं बनाया होता तो दिगं बरोंको ऐसा सूत्रापलापका महापाप अंगीकार करने का मौका नहीं भी आता, पूर्वोक्तशंकाके समाधान में पेश्तर तो यही समझ लेना योग्य है कि जैनों में न तो 'पूर्वपूर्वमुनीनां प्रामाण्यं' ऐसा नियम है, और न. 'उत्तरोत्तरमुनीनां प्रामाण्यं' ऐसा नियम हैं, किन्तु पूर्वापर अविरुद्ध स्याद्वादमय पदार्थको मानना यही नियम हैं. इससे श्रद्धालुओं को तो पदार्थ सूत्रमें से मिले या दूसरे ग्रंथोसे मिले For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) उसमें किसीभी तरहकी हरज नहीं है, असलमें सूत्रके अधिकारी होने परभी आद्यसे ही सब कोई सभी सूत्रके अधिकारी नहीं होते हैं. इससे आद्याधिकारियों को फायदा पहोंचाना यह इस ग्रंथका उद्देश्य है. दूसरा मुद्दा यह भी है कि आपके कथनसे भी यह बात तो स्पष्ट है कि इस तत्त्वार्थमें कहे हुए विषय श्रीगणधरप्रणीत. सूत्रोमें है लेकिन विप्रकीर्ण है, तो ऐसे विप्रकीर्णपदार्थको. एकत्र करके कहना यह कमउपयोगी नहीं है. तीसरा मुद्दा यह भी है कि सूत्रोंमें जहां जहां पदार्थों का स्वरूप कहा है वहां बडे बडे विस्तारसे. और सागपूर्णतासे कहा है. और सब विद्यार्थिगण ऐमा बिस्तारयुक्त और सर्वांगपूर्ण तत्व अवधारण करनेको समर्थन होवे, इससे वैसे के लिए ऐसा लघुसंग्रह बनानेकी जरूरत कम नहीं है. चौथा मुद्दा यहभी है कि शास्त्रोंमें जिसरूपसे जीवाद्रिक तचोंका स्वरूप कहा गया है उससे इधर कुछ औरही रूपसे जीवादितत्त्व कहे हैं, याने जैसा इधर सम्प्रदर्शनादिकक्रमसे जीवादि पदार्थ निरूपित हैं वैसा क्रम किसीभी सूत्र में नहीं है. पांचवें मुद्देमें अभ्यासियोंको मुखपाठ करने में लघु सूत्र होने से बड़ी सुभीता रहती है, खुद गणधर महाराजाओंनेभी भगवतीजीआदिसूत्रोके शतकउद्देशकी आदिमें संग्रह दिखाया है. और श्रीसमवायांगजी और नन्दीजीमें आचारांगादिकसूत्रकी संग्रहणी और श्रीपाक्षिकसूत्रमें भी कालिक उत्कालिक सभीकी संग्रहणी कही है, इससे सबका संग्रह यह For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का हानायगा बोटीवारका ससे (१६१) तत्त्वार्थका होना मुनासिबही है, इन सब कारणोंको सोचते स्पष्ट मालूम होजायगा कि वाचकजीमहाराजकी यह रचना अत्यंत आवश्यक है, ऐसी छोटी कृतिसे विद्यार्थियोंको तत्त्वपदार्थों का समझना सहेल होनेसे सूत्रकारका कहा हुवा विस्तृत बयान जानने को तैयार और लायक हो जायंगें. इससे श्रीवाचकजीमहाराजने सूत्रकास्की अवज्ञा नहीं की, किन्तु सूत्रकारमहाराजकी बडीही भक्ति की है. आखिरमें जो आपने कहाकि दिगंबरलोग इसी तत्त्वार्थको मान्य करके सूत्रोंको उडा देते हैं, तो इसमें ऐसाही कहा जायकि आगाढमिथ्यात्वका उदय होजाय और ऐसा करे उसमें श्रीवाचकजीमहाराजका क्या दोष ?, क्या ऐसा तत्वार्थ जैसा ग्रंथ नहीं होता तो वे दिगंबर आगाढमिथ्यात्वी नहीं होते ?, कभी नहीं, तो पीछे इस आगाढमिथ्यात्ववालेका विचारले के वाचकजी पर दोषारोप कैसे किया जायी, इन दिगंबर लोगको तो उत्थापकपन और विपर्यासकारित्व गलेमेंही लगा है. उसमें कोई क्या करेगा?, देखिये ! इन लोगोंने भगवानकी मूर्तिको भी चक्षुहीन कर दी, इतनाही नहीं, बल्के पल्यंकआसनसे बैठने पर किमीभी आदमीका लिंगआदि दृश्य नहीं होता है, तबभी इन दिगंबरोंने पल्यंकासनस्थ भगवत्प्रतिमाको भी हाथके आगे लिंग लगा दिया है, असलमें भगवानका लिंग अदृश्य था, उसकोभी इनोने नहीं सोचा. दिगंबरलोग यह नहीं सोचते हैं कि जब तत्त्वार्थसूत्रको मंजूर करना है तो पीछे श्रीमान् For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थका होना मुनासिबही है, इन सब कारणोंको सोचते स्पष्ट मालूम होजायगा कि वाचकजीमहाराजकी यह रचना अत्यंत आवश्यक है, ऐसी छोटी कृतिसे विद्यार्थियों को तत्त्वपः दार्थों का समझना सहेल होनेसे सूत्रकारका कहा हुवा विस्तृत बयान जानने को तैयार और लायक हो जायंगें. इससे श्रीवाचकजीमहाराजने सूत्रकारकी अवज्ञा नहीं की, किन्तु सूत्रकारमहाराजकी बडीही भक्ति की है. आखिर में जो आपने कहाकि दिगंबरलोग इसी तत्वार्थको मान्य करके सूत्रोंको उडा देते हैं, तो इसमें ऐसाही कहा जायकि आगाढमिथ्यात्वका उदय होजाय और ऐसा करे उसमें श्रीवाचकजीमहाराजका क्या दोष ?, क्या ऐसा तवार्थ जैसा ग्रंथ नहीं होता तो वे दिगंबर आगाढमिथ्यात्वी नहीं होते ?, कभी नहीं, तो पीछे इस आगाढमिथ्यात्ववालेका विचार ले के वाचकजी पर दोषारोप कैसे किया जाय?, इन दिगंबर लोगको तो उत्थापकपन और विपर्यासकारित्व गले ही लगा है. उसमें कोई क्या करेगा?, देखिये ! इन लोगोंने भगवानकी मूर्तिको भी चक्षुहीन कर दी, इतनाही नहीं, बल्के पल्यंकआसनसे बैठने पर किमीभी आदमीका लिंगआदि दृश्य नहीं होता है, तवभी इन दिगंबरोंने पल्यंकासनस्थ भगवत्प्रतिमाको भी हाथके आगे लिंग लगा दिया है, असलमें भगवानका लिंग अदृश्य था, उसकोभी इनोने नहीं सोचा. दिगंबरलोग यह नहीं सोचते हैं कि जब तत्वार्थसूत्रको मंजूर करना है तो पीछे श्रीमान् For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) रचना क्यों की ?, यह तीसरी शंका होगी, चौथी शंका यह भी होगी कि अध्ययनकर्ताओंको मुखपाठ करनेमें और धारण स्मरण में उपयोगी वैसी पद्यबन्ध रचना नहीं करते गद्यबन्ध रचना इधर क्यों की गई ?, इन शंकाओंके समाधान इस तरह से क्रमसर समजने चाहिए, इसको सूत्र कहने का यह सबब मालूम होता कि प्रकरणका कार्य एकेक अंशको व्युत्पादन करनेका होता है, और इस सूत्र में सब विषयोंका प्रतिपादन है. असल तो जैसे जैमिनि आदिने अपने अपने मजहबके दर्शनसूत्र बनाये, इसीतरहसे यह श्रीस्वार्थ भी जैनमजहबका दर्शनसूत्र बनाया है, इसीसी इसको सूत्र कहा जाता है. यही समाधान विभागका नाम अध्याय तरीके रखने में और गद्यबन्धसूत्रकी रचना करने में भी समजना, क्योंकि दूसरे दर्शनशास्त्रभी अध्यायविभागसे और गद्यसूत्र से ही है, ऐसे यह सूत्रभी रचा गया है, इसी तरहसे दूसरे दशर्नशास्त्र ग्रन्थ संस्कृतभाषामें होनेसे ही यह सूत्र भी संस्कृतभाषा ही बनाया गया है. जैनीलोग अकेली प्राकृतभाषाही मान्य करते हैं. यह कहना ही बेसमझका है, क्योंकि जैनोंके स्थानांग और अनुयोगद्वारसूत्रमें ' सकया पकया चेव' इस वाक्यसे संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषा एकसरीखी मानी है. श्रीमान् तीर्थकर महाराजादिकी देशना जिस प्राकृतमें मानी है, वह प्राकृत अभी कही जाती है वैसी संस्कृतजन्य प्राकृत नहीं है, किन्तु अढारतरहकी देशी भाषासे मिश्रित अर्धमागधी प्राकृत.. ● For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) इस भाषा से सभी देशवाले श्रोताओं को धर्मका बोध अच्छीतरहसे हो सकता है. संस्कृतभाषा में देशना देने से कतिपय बिद्वानोंकोही बोध मिळ, लेकिन सामान्य जनता तो श्रीजिनेश्वर भगवान के उपदेश से वंचित रहे, और यदि ऐसा होवे तो पीछे श्रीजिनेश्वरमहाराज जगद्गुरु कैसे बनें ?, देवताकी भाषा भी अर्धमागधी ही है. इसका सबब भी यही है कि आबालगोपालको देवताके आराधन की योग्यता है. और देवताको आराधकका भाव समझने की भी जरूरत है. इतनाही नहीं, किन्तु देवताका वार्तालाप यदि संस्कृतमें ही होवे तो आबालगोपाल के साथ तुष्ट होकर वार्तालाप करना या वरदान देना असंभवितही हो जाय. इससे देवताओंकी भाषा भी आबालगोपालकी समझमें आजाय ऐसी अर्धमागधी मानी गई हैं, लेकिन संस्कृत भाषा से विद्वानोंको समझानेकी जरूर गिनकेही श्रीमान् उमास्वातिवाचकजीने यह सूत्र संस्कृत में ही बनाया है. संस्कृतेतर भाषा ही पूर्वकालमें प्रचलित थी इससे अशोकादिकराजाआदिके प्राचीन लेख भी संस्कृतेतर भाषामें ही है, प्राचीनतम कोईभी शिलालेख संस्कृतभाषामें नहीं हैं, संस्कृतशब्ददी संस्कृतभाषा के असलीपनका इन्कार करता है, क्योंकि कोई भी असली भाषाका संस्कार करके तैयार की हुई भाषाही संस्कृत हो सकती है, और इसीसे ही प्राकृतभाषाको सूगडांगनियुक्तिकार ✓ For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६५) स्वाभाविकभाषा गिन सकते हैं. प्राकृतशब्दका अर्थ भी भाषाका स्वाभाविकपन दिखाता है. इतना होने परभी जमानेके प्रभावसे जब संस्कृतभाषाकी ओर लौकिकविद्वद्गण झुका और लोगोंकी अभिरुचि संस्कृतकी ओर बढी, अंतमें संस्कृतमें ही विद्वत्ता की अपूर्वता गिननमें आई. तब श्रीमान् उमा स्वातिवाचकजीको भी जैनमहत्ताके लिए तत्त्वार्थस्त्र संस्कृतभाषामें करना जरूरी मालूम हुआ। Pos पूर्वतरकालीन जैनसूत्रोंकी रचना दर्शन ज्ञानादि आत्माका स्वरूप है और आश्रवादि विकार हैं. जिससे आश्रवादिसे हट जाना । छाया.... और ज्ञानादिके लियही कटिबद्ध होना इसी उद्देशसे की जाती थी, और इसी सबबसे भव और मोक्षमें भी आखिर उदासीनताही रहती थी, इसी सबबसे तो केवली. महाराजको संकल्प विकल्प रहित मानते थे, लेकिन सांख्य, नैयायिक, मीमांसा, वैशाषक और बौद्ध वगैरहने जब अपने शास्त्र मोक्षके उद्देशसे बनाये और लोगोंकी अभिरुचि भी वैसी हुई तो श्रीमान् उमास्वातिजीको भी उसीतरहसे इसकी रचना करनी आवश्यक मालूग हुई. इसीसे ही श्रीमान्ने 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' ऐसा आदिमें ही भोक्षका उद्देश करके सूत्र बनाया. . ...... ०००००००००००००० Coces0000000000 For Personal & Private Use Only . Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. इसी तरहसे सूत्रकारभगवानने निसर्गअधिगमादि सम्यक्त्वके दश भेद दिखाये थे, तब वाचकजीने शेष आज्ञारुचिआदिभेदोंका अन्तर्भाव निसर्ग और अधिगममें किया, और इनको भेदकी तरहसे नहीं लेते हेतुकी तौरसे लिये. साथमें सूत्रकारों ने सम्यक्त्वको आत्माका स्वरूप माना था,और तत्त्वार्थको श्रद्धाको एक आस्तिक्यरूप-लिंगपनेसे ली थी. लेकिन वाचकजीये, श्रद्धाको लक्षणस्वरूपमें ली है. इसका सबब भी दार्शनिक सिद्धान्त ही है। क्योंके तर्कानुसारियोंके लिये जितना यह लक्षणादिका रास्ता अनुकूल होगा उतना वह नहीं होगा। २ सूत्रकारोंने ज्ञान आत्माका लक्षण है ऐसा करके ज्ञानका बयान किया है, तब वाचकजीने पदार्थके अधिगमके लिये प्रमाणकी जरूरत है, और वह प्रमाण ज्ञानरूप है, इससे ज्ञानके बयानकी जरूरत गिनाई। .. ३ पत्रकारोंने उपक्रमके भेदमें या ज्ञानके दूसरे पक्षसे प्रमाणकी व्याख्या की थी. तब वाचकजीने ज्ञानका स्वरूप ही प्रमाण लेकर व्याख्या की है। ४ सूत्रकारोंने अंगोपांगमें स्मरणादिकके लिये विभाग नहीं किया था, वह इन्होंने मतिज्ञानमें स्मरणादि समावेश करके उसका परोक्षमें अन्तर्भाव स्पष्ट रूपसे दिखा। .. ५ सूत्रकारोंने चक्षु और मनके लिए अमाप्पकारिता पर दबाव नहीं दिया था, तब वाचकजीने स्वतंत्र स्त्र बनाकर For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६७) चक्षु और मनकी अप्राप्यकारिता स्पष्ट कर दी, यह भी दार्शनिकसिद्धान्तके प्रचारके सबबसे ही संभवित है. क्योंकि बौद्धोंका मन्तव्य चक्षु मन और श्रोत्रकी अप्राप्यकारिताका है, और नैयायिकादिकोंका मन्तव्य ऐसा है कि स्पर्शनादिकी तरह चक्षु भी प्राप्यकारी ही है. वाचकजीने तो साफ कह दिया कि, चक्षु और मन ये दोनों ही अप्राप्यकारी हैं, और स्पर्शनादि चार प्राप्यकारी ही है। ६ दूसरे दर्शनकारोंने पिटक और वेदादिके लिए प्रामाणिकताका नाद चलाया था, तब वाचकजीने श्रुतके अधिकारमें आचारांगादिक अंग और तद्व्यतिरिक्त आहेतवचनोंकी प्रामाणिकता प्रतिष्ठित की। - ७ दूसरे दर्शनकारोंने विपर्यास और संशयादिकको मिथ्याज्ञान और अज्ञानशब्दसे पुकारा है, तब वाचकजीने जिसकी धारणा पदार्थोंके लिए यथास्थित नहीं है और सदसत्के जो एकान्तवादी हैं इन सभीका बोध अज्ञान ही है, ऐसा दिखाया है. याने पवित्रमन्तव्यको मान्य करनेवाले मनुष्यके संशय विपर्यासवाले ज्ञानसे भी पवित्रपदार्थको नहीं माननेवालेकी अकल या शास्त्रीयप्रवीणता उन्मार्गकाही वर्धन करानेवाली है, इतना ही नहीं, बल्कि वैसेको किसी पौद्गलिकपदार्थका अतीद्रिय ऐसा विभंगज्ञान भी हो जाय तब भी वह ज्ञान उस महात्माको और उसके उपासकोंको संसारकी ओर गिराने For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) वाला है. यह सब विवरण दर्शनकारों के प्रचारके प्रभावसे ही ज्यादा हुवा है । • ८ सूत्रकारोंने सूत्रकी व्याख्या करते समझे हुए पदार्थक अच्छी तरह से समझाने के लिए नयोंकी जरूरत मानी थी, और इसीसे नयका अधिकार अनुगमके अनन्तर रक्खा था, और 'नत्थि नएहिं विहूणं सुत्तं अत्थो व जिणमए किंची' ऐसा कहके समग्र जिनवचनमें नयकी व्यापकता दिखाई थी, तब वाचकजी ने समग्रपदार्थ के ज्ञान में उन नयोंकी प्रारंभसेही उपयोगिता दिखाके प्रमाणकी तरह नय भी पदार्थअवबोधका मुख्य हेतु है ऐसा दिखाया हैं । મુનિશ્રી નીતિવિજયજી જ્ઞાન ભડાર. For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HEARNERALARIA हूँ तत्त्वजिज्ञासुओंके लिये अपूर्वग्रंथ, 1 श्रीआचारांगसूत्र (द्वितीय श्रुत स्कंध ) श्रीशीलांकाचार्यकृत टीकासहित रु. 2-052 श्रीभगवतीसूत्र ( आचार्य दानशेखर सूरिविहित टीक सहित ) रु. 5-0-0 ते 3 श्रीतत्वार्थसूत्र ( आचार्य हरिभद्र मूरिकृत टीका और स्वोपज्ञ भाध्य ) रु. 6-0-0 4 श्रीतत्त्वार्थसूत्र ( मूल तथा स्वोपज्ञ भाष्य ) रु. 1----0 हैं 5 श्रीपर्युषणादशशतक ( महोपाध्याय श्री धर्मसागरगणि कृत स्वोपज्ञ) रु. 0-10-0 66 पुष्पमाला ( उपदेशमान ) (मलधारी हेमचंद्रसूरिकृत स्वपज्ञ) रु. 6-0-0 7 विशेषावश्यक भाष्य पूर्वार्ध र (श्रीकोट.rकी। रु. 5-0-0 ro o m: Ser ing Jin Shascht D (धर्म रु. 0-3-0 : प्राप्तिस्थान 020320 जैनानंद पुस्तकालय, गोपीपुरा सूरत. *IRECTORS ENCY TRESEARCHROGRAAT HARA बद्धिसाग qyanmandir@koatirth urg For Personal & Private Use Only