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________________ ( ३४ ) धरते ? यदि श्रीमान् के हिसाब से काल यह नियमितद्रव्य होता तो पेश्वरस ही द्रव्य के साथ मिला देके 'द्रव्याणि जीवकालौ च' ऐसा या 'द्रव्याणि जीवाः कालश्व' ऐसा सूत्र करते और अलग अलग सूत्र करने की जरूरतही नहीं थी. अतः माननाही होगा कि इसशास्त्र बनानेवाल आचार्य श्वेतांबर ही थे । ( ५ ) दिगंबरलोग कालके भी अणु मानते हैं और उसका प्रमाण लोकाकाशके याने धर्माधर्मास्तिकाय के प्रदेश जितना असंख्यात मानते हैं. यदि श्रीमान् उमास्वातिजी दिगंबर संप्रदायके होते तो जैसा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीव और पुद्गल के प्रदेश गिनानेके लिये "असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मयो." इत्यादि सूत्र बनाये, वैसाही कालके अणुओंकी संख्या भी बताने के लिए सूत्र बनवाते, या 'धर्माधर्म कालानां ' ऐसा कह देते किन्तु किसी भी स्थानमें कालके अणुकी सत्ता या संख्या नहीं दिखाई. इससे भी स्पष्ट जाहिर होता है कि इस ग्रंथ के कर्ता श्री उमास्वातिजी दिगंबर आम्नायके नहीं, किन्तु तांबरआनायके ही है । • + ** (६) दिगंबरोंके हिसाब से भी सामायिक और पौषधमैं साधका त्याग तो जरूर ही मानना पड़ेगा. और उनके हिसाब वस्त्रादिकमी सावध हैं, तो फिर सामायिक, पौषधवालको सैस्तारोपक्रमण याने प्रमार्जन प्रत्युप्रेक्षण क्रिया किया बिना संथारा पर बैठना यह अतिचार है सो कैसे होगा ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org *
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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