SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२३) इस सूत्रका सारा ही चौथा अध्याय श्वेतांबरोंकी मान्यता मुजबका है, और दिगंबरों की मान्यतासे खिलाफ है. तबही तो दिगंबराचार्य श्रीमान् अमृतचंदजीने इसी तत्वार्थस्त्रपस्से "तत्त्वार्थसार" नामक जो ग्रंथ बनाया है. उसमें और और अध्यायोंपर तो अच्छीतरहसे खुलासा और विस्तृत बयान दिया है, लेकिन उनको इस अध्यायके लिये तो बहुत ही संक्षेप करना पड़ा। .. (४) पांचवें अध्यायमें द्रव्य कहनेके समय श्रीमान्ने "द्रव्याणि च जीवाश्च' कहकर धर्मास्तिकायादि चार अजीव और पांचवां जीव इन पांचोंको द्रव्य कहा है. दिगंबरोंके हिसाबसे कालभी एक नियमित द्रव्य है, किन्तु श्वेतांबरोंके हिसाबसे काल अनियमित द्रव्य है, और यही बात श्रीमानउमास्वातिवाचकजीनेभी इधर पांचको नियमित द्रव्य है ऐसा दिखाकर कालको अनियमितद्रव्य दिखानेके लिये आगे पर "कालश्चत्येके" ऐसा कहा, याने कितनेक आचार्य कालको भी द्रव्य मानते हैं, ऐसा कहकर कालका अनियमितपना स्पष्ट दिखाया है. यदि यह ग्रंथ दिगंबरआनायका होता तो इधर कालका स्पष्टरूपसे नियमितद्रव्यपना दिखाते. दिगंबरोंने "कालश्च" ऐसा सूत्र रखा है, किन्तु यह साफ २ समझमें आसकता है कि यदि ग्रंथकार कालको नियमित द्रव्य गिनते तो फिर "कालश्च" ऐसा अलग सूत्र अलग स्थानों थीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy