________________
( २२ ) है. अतः चारोंही देवलोककी दो देवलोक तरीके गिनती करने में कोई आपत्ति नहीं हो सक्ती क्योंकि.स्पर्शादि३ विषयके ६देवलोक और मनके विषयमें ४ देवलोक मानकर ४ विषयमें १० देवलोक मानना ग्रंथकारकेही हिसाबसे होगा. ". इसी तरह स्थिीतके विषयमें भी माहेन्द्रदेवलोकसे आगे ७ सागसेपमकी स्थिति पेश्तर नो साधिक दिखलाई, बाद तीन, सात, नौ, सतरा, तेग और पंद्रह सागरोपम एक एक देवलोकमें बढाकर अन्तमें आरणाच्युतकी २२ सागरोपमकी स्थिति लानेका श्रीमान्उमास्वातिवाचकजीने ही कहा है. अब श्वेतांबरोंके हिसाबसे ५-६-७.८ के चार और ९-१०-१११२. के दो, यों करके ६. भाग बराबर होजावेंगे, क्योंकि खुद शास्त्रकारनेही आगेके सूत्रों आरणाच्युतावं' ऐसा कहकर आरण और अत्युतको एकही गिननेका फर्माया है. दुसरी बात यह है कि जैसा आरणाच्युतका निर्देश देवलोकके क्रम सूत्र में एकविभक्तिसे है वैसाही आणत और प्राणतका निर्देश भी एक ही विभक्तिसे है, इससे इन चारों दोदोको एक एक देवलोक. सरीखे गिन सक्ते हैं. अतः श्वेतांबरोंकी १२ देवलोककी मान्यता मुताबिक वो यह ठीक बैठता है, किन्तु दिगंबरोंको १६ देवलोक माननेसे हाथ पैर लगाना पडते हैं. इससे कबूल करना ही पडेगा कि यह तत्वार्थसूत्र श्वेतांबरों की मान्यतावाले आचार्यनेही बनाया है.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org