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(१८) तीसरे अध्याय में प्रथमसूत्र में दिगम्बर लोग 'रत्नशर्करावा लुकायंकधूमतमोम हातमः प्रभा भूमयो घनाम्बुवाता - काशप्रतिष्ठाः सप्ताघोऽधः' इतनाही पाठ मानते हैं, और तर लोग इसके आगे ' पृथुतराः' इतना ज्यादा मानते हैं. दोनोंके मतसे एक एक पृथ्वीसे आगे आगेकी पृथ्वी चौडी है तो पीछे इधर ' पृथुतरा: ' पद नहीं मानना यह दिगम्बरोंको लाजिम नहीं है, और यदि 'पृथुतरा: ' नहीं लेवे तो ' अधोऽधः ' की जरूरतही क्या थी ?, कभी ऐसा कहा जाय कि पृथ्वीका अनुक्रम दिखानेके लिये ' अधोऽधः ' कहने की जरूरत है तो यह कहना भी फिजूलही है. क्योंकि घनाम्बुवताकाशप्रतिष्ठाः ' कहने से ही ' अधोऽधः ' का भावार्थ आजाता है, तो इससे स्पष्ट है कि सूत्रकारने 'अधोऽधः ' ये पद कहे थे, और उससे नीचेकी पृथ्वी ज्यादा ज्यादा विस्तारवाली यह सिद्ध करने की जरूर होगी, इससे पृथुतराः पद सूत्रकारने कहाही हैं.
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( १९ ) तीसरे अध्यायके दूसरे सूत्रमें दिगम्बर ' तासु त्रिंशत् पंचविंशतिपंचदशदशत्रिपं चोने कनर कशतसहस्राणि पंच चैव यथाक्रमं ' ऐसा सूत्र मानते हैं. तब श्वेतांबर तासु नरका: ' इतनाही सूत्र मानते हैं. अकलमंद आदमी इस सूत्रको देखतेही कह सकेंगा कि यह सूत्रकी कृतिही श्रीउमास्वातिवाचकजीकी नहीं है, किन्तु दिगम्बरोंने ही घुसेड २ कर मूत्र
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