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उसका अभ्यन्तरतपमें त्याग क्यों कहा? और यदि उपधि याने उपकरण महाव्रतका घातकारक है तो फिर तप क्या ? क्या परिग्रहविरमणादिको तप मान सक्ते हैं ? .
(२०) यह शास्त्रकार यदि श्वेतांबरी नहीं होते तो 'पुलाकबकुशकुशीलनिग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः' ऐसा सूत्र नहीं करते, क्योंकि बकुशमें उपकरणबकुश वही कहाजाता है कि जो उपकरणका ममत्व याने धोना रंगना करे और आकांक्षा व लोभ उपकरणमें रक्खे. जब इसको तो निग्रन्थ मान लिया तो फिर दिगंबर होवे वही साधु होवे यह बात कहां रहेगी ।..
२१) फिर भी ये सूत्रकार महाराज साधुके विचारमें लिंगका विकल्प कहते हैं. अब दिगंबरों के हिसाबसे तो पुरुष ही साधु होता है, तो वेदरूपलिंगके हिसाबसे भी विकल्प नहीं रहता है. द्रव्यलिंग भी दिगंबरों के हिसाबसे भावलिंगकी तरह नियत है तो फिर वेषरूपलिंगकी अपेक्षासे भी विकल्प कहां रहेगा? याने इस ग्रन्थके हिसाबसे वेदरूप या वेषरूपलिंगमें एकही प्रकार नहीं माना है, किन्तु विकल्प माना है, तो इससे स्पष्ट होजाता है कि ये ग्रन्थकार श्वेतांबरी ही हैं. ख्याल रखना के सिद्धमहाराजकी तरह इधर पूर्वभावप्रज्ञापना नहीं है, किन्तु वर्तमानभावकी ही प्ररूपणा है,
(२२) अखीरमें सिद्धमहाराजके विषयमें भी शास्त्रकार लिंगका विकल्प दिखाते हैं तो वहां भी द्रव्यलिंगका अनेका
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