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कहांसे होंगे ? यदि मनमाने परिषह मानना हैं तो फिर केवली महाराज में बावीस ही परिषह मान लेने में क्या हर्ज थी ? तटस्थमनुष्यकों तो यह स्पष्ट मालूम हो जायगा कि आचार्यमाहाराजने जिनेश्वरको ग्यारह ही परिषह माने हैं अतः शास्त्रकार श्रीमान् उमास्वातिवाचकजी महाराज श्वेतांबर पक्षके ही आचार्य थे, न कि दिगंबरपक्ष ।
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(१७) जिस तरह 'एकादश जिने' यह सूत्र इन ग्रन्थकारमहाराज के श्वेतांबर पनेको साबित करता है उसी तरह महाव्रतोंकी भावना में भी 'आलोकितपानभोजनः' अर्थात् अन्न पानीको देखकर लेना, यह भी श्वेतांबरोंकी ही मान्यतानुसार हो सक्ता है, क्योंकि पात्र के बिना लाना और देखना कैसे हो सके? और बिना पात्रके देखने में तो जमीन पर अन्न पानी गिरपडता है कि जिससे अहिंसाकी पालना भी नहीं हो सक्ती ।
(१८) शास्त्रकार महाराज यदि दिगंबर होते तो तपस्या के अधिकारमें दिगंबरोंके हिसाब से भी 'विविक्तशय्यासन' नहीं कहते, क्योंकि उन दिगंबरोंके हिसाब से शय्या और आसन रखनेका कहाँ हैं कि जिसके लिये विविक्तस्थान में ये दो करनेका नाम तप कहें ।
V(१९) फिर भी बाह्य और अभ्यंतर उपधिका याने उपकरणादिक और कषायका त्याग करना अभ्यन्तरतपस्या कही इधर यदि उपकरणादिक रखनेका ही नहीं है तो फिर
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