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से जीव और अजीव इन दोनोंकोही तत्व या द्रव्य तरीके दिखाये है, तो क्या स्थानांग आदिमें ही अन्यत्र कहे हुए आश्रवादिको वहां तत्व नहीं माना हैं ? अवश्य माना है. इसी तरह इधर भी पुण्य और पाप की विवक्षा पृथक् तस्म तरीके नहीं की है, किन्तु श्रीमान्ने पुण्य और पापको तत्त्व अवश्य माने हैं. अतः यह शास्त्र सात तव काही प्रतिपादन करता है इससे श्वेतांबरोंका नहीं है, ऐसा कहना अकलमंदी का काम नहीं है, परस्पर विभक्त सात ही तय है. पुण्य और पाप आश्रवकी भीतर है, आश्रवादि जीवाजीवके मिश्रित है, स्वतंत्र पुण्यादिका तरह भेदरूप नहीं है. इसी तरह आलोचनादि प्रायश्चित्त भी नौ ही दिखाये याने श्वेतांबरोंने माना हुआ परांचित नामक प्रायश्चित्त इसमें नहीं दिखाया. इससे यह ग्रंथ श्वेतांबरोंका नहीं है ऐसा कहना भी भोलापन ही है, क्योंकि छेदनामक प्रायश्चित्तम छेद और मूलकी एकही प्रायश्चित तरीके विवक्षा होसकती है. अतः छेद और मूलकी विवक्षा न की. कारण यह है कि साघपनके पर्याय में कुछ अंश काटा जाय उसको छेद और सब पर्याय काटा जाय उसको मूलप्रायश्चित कहते हैं, अर्थात् दोनों प्रायश्चित्तों में छेद होनेसे छेदतरीके मानने में कोई हरजा नहीं है. इसी तरह अनवस्थाप्यप्रायश्चित्तमें अमुक समय तक महाव्रतका आरोम नहीं करना यह तत्व है, और परिहारका भी यही तत्व है. उपस्थापवादका अर्थ स्थिति करना होता है. ऐसे ही पारां चिकका अर्थ भी प्रायश्चित्तका दीर्घकाल से पार करके
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