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________________ ( १४ ) तव माने हैं और इससूत्रमें जीवादि सात तत्वोंका ही प्रतिपादन है अर्थात् श्वेतांबर लोग पुण्य और पाप तत्र साथ ही रखकर जीवादि नवको तत्र मानते हैं, किन्तु इससूत्रमें तो जीवादि सात तत्वहीका निरूपण करके पुण्य और पाप को तत्रकी कोटि में लिया ही नहीं है. इसी प्रकार प्रायश्चित्तके विषय में भी जब श्वेतांबरों के शास्त्र आलोचनासे लेकर पारांचिततक के दस प्रायश्चित्त दिखाते हैं. तब इसी सूत्र में आलोचनासे लेकर अनवस्थाप्य तकके नौ प्रायश्चित्त ही दिखाये हैं, अतः ऐसी स्थितिमें यह शास्त्र किसी भी तरहसे श्वेतांबरीय कदापि नहीं हो सक्ता ! इधर इसविषयमें श्वेतांबरोंका कहना है कि श्रीउमास्वातिवाचकजीने " शुभः पुण्यस्य" और "अशुभः पापस्य " इन दोनों सूत्रोंसे पुण्य और पापतचको दिखाकर पुण्य और पापको तत्व ही माना है, इतना ही नहीं, किन्तु " सम्यक्त्व हास्यरतिपुंवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यं" और "शेष "पाप" ऐसा कहकर पुण्य और पापके फल भी स्वतंत्र दिखाये हैं. तो फिर श्रीमान्ने पुण्य और पापको तत्वही नहीं माना, ऐसा कैसे कहा जाय ? अलबत्ता इतना जरूर है कि श्रीमानने जैसी जीवादिकी स्वतंत्र तरीके तत्त्वमें गिन्ती की, वैसी पुष्प और पापतत्वकी नहीं की, किन्तु इसमें विवक्षा ही मुख्य है, क्योंकि श्वेतांवरशास्त्र ठाणांग, पनवणा, अनुयोगद्वार आदिमें सामान्य ? For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org * Jain Education International •
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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