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________________ ( १६ ) उपस्थित होनेका है. याने जिसशास्त्र में दसप्रकारका प्रार श्चित कहा है उसमें और इसमें फर्क नहीं होता है, कितने आचार्य उपस्थापनामें ही अनवस्थाप्य और पाराचिक नि हैं, वो उन दोनोंमें भी उपस्थापनाकी क्रिया दुबारा करने पडती है. इस हिसाब से भी इसमें क्या हर्ज है ? । तत्रकी औ प्रायश्चित्त की विवक्षा अलग रीतिसे करनेमें ग्रंथभेद नह गिना जाताः पाचिकप्रायश्चित्त चतुर्दशपूर्वी कोही होता है किन्तु श्रीमान् उमास्वातिज के समय में चोदह पूर्व विद्यमा नहीं थे. अत: इस हिसाब से भी पारांचिक नहीं गिना हो तब भी क्या ताज्जुब ! / इसीतरहसे कितनेक दिगंबरोंका ऐसा कहना है ि तने लोकान्तिक नौ माने हैं, किन्तु इस तत्त्वार्थमें जे श्वेतांबर्सेका सूत्र पाठ हैं उसमें सिर्फ आठही में गिनायें है. अत पाया जाता है कि इससूत्रको श्वेतांबरोंने बिगाड दिया है किन्तु ऐसा कहनेवालों को सोचना चाहिये कि जब श्वेतांबरों के स्थानांग, भगवतीजी, ज्ञातधर्मकथा आदिमें लोकान्तिक देवके नौभेद स्पष्टतया माने गये हैं तो फिर श्वेतांबर लोग इधर नौभेदके स्थान में आठ भेद क्यों करे ? । असल बात तो यह है कि उमास्वातिजीने ब्रह्मलोकके मध्य में रहनेवाले, रिष्ठवि मानकी विवक्षा नहीं करके सिर्फ कृष्णराजी में और ब्रह्मलोकके सभामके शिवाय यानें अंत में रहनेवालों को ही इधर लोकगे 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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