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कर और भाव सब निवृत्त होजाते हैं. इस बातको समझनेवाले मनुष्य अच्छी तरहसे समझ सकेंगे कि श्वेताम्बसेंने जो 'औपशामिकादिभव्यत्वाभावाच्चान्यत्रः' इत्यादि एक ही बन रख है यही लाजिम है, और श्रीउमास्वातिमहाराजका किया हुआ भी ऐसा ही सूत्र होना चाहिये. इस सूत्र में पंचमी विभकिस निर्देश है और वही युक्त है. सबब कि औपशमिकादिभव्यत्व के अभावसे मोक्ष होता है, तो उसको हेतु मानना और उससे मोक्ष होना योग्य होगा. लोकन यदि 'भव्यत्वानां च ऐसा करके षष्ठीविभक्ति माने और उनके विप्रमोक्षको मोक्ष माने को
औषशमिकादिकभाव मोक्षके समकालीन बन जायमा. और वह तो किसी भी तरहसे इष्ट नहीं होगा. इस स्थानमें शंका जरूर होगी कि औपशमिकादिके और भव्यत्वके अभावकी क्या जरूरत है , क्योंकि ज्ञानावरणादिक तो बानमालिकों रोकनेवाले होनेसे उनका अभाव होना जरूरी है. लेकिन औपशामिकादिक और भन्यत्व किसको सेकनेवाले हैं कि जिसः से उनका अभाव मोक्षका साधन माना जाय?, इसके समाधान में समझनेका यह है कि औपशमिकादिभाव कर्मके उपशमक्षयोपशमादिसे होते हैं, और मोक्ष होनेके वक्त बो जीव-सर्वन प्रतिबंधकसे मुक्त हैं, इससे मुक्तजीवोंको से वाधिक ही मार होता है. और उनमें भी दानादिककी जो कि को साबले भी होने वाले है की-माति नहीं होती
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