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समस्तपदकी अनुवृत्ति नहीं हो सकती है. क्योंकि 'सनियोगः शिष्टानां सहैव प्रवृत्तिः सहैव निवृत्तिः' याने एकपदसे कहे हुए पदार्थकी साथही प्रवृत्ति होती है. और साथही निवृत्ति होती है, तो इधर अकेले विप्रमोक्षपदका अनुवर्तन कैसे होगा ? एक बात और भी सोचने की है कि कर्मका नाश करने के लिये प्रयत्न किया गया था और उससे सकलकर्मका विप्रमोक्ष हुआ, इस तरहसे क्या औपशमिकादिकभावोंके नाशके लिये प्रयत्न करनेका है ?; कहना होगा कि औपशमिकादिक जो भाव हैं वह कर्मोंकी तरह हेय और प्रयत्न करके क्षय करने योग्य नहीं है. तो फिर इधर विप्रमोक्षशब्दकी अनुवृत्ति कैसे होगी ?.. ... दसरा यह भी है कि जब भव्यशब्दके आगे स्वरूपकों सचित करनेवाला त्वप्रत्यय तुमने लगाया तो फिर बहुवचन कैसे लगाया ? याने 'भव्यत्व' ही कहना लाजिम था. साथमें यह भी सोचनेका है कि औपशमिकादिभावोंका सर्वथा विच्छेद लेना होवे तभी 'अन्यत्र' कहकर अपवादकी जरूरत है. कितनेक भावोंका व्युच्छेद कहना होवे तो 'अन्यत्र' करके अपवाद दिखानेकी जरूरत ही नहीं है याने मतलब यह है कि जब तक संसारसमुद्रमे पार न पाये और मोक्ष न हुआ तब तक औपशमिकादिक पांच भाव जो दूसरे अध्यायमें कहे हैं उन्होंका यथायोग्यतासे सद्भाव होता है. लेकिन मोक्ष होनेके वक्त उन पांचोंमेंसे सिर्फ केवलसम्यक्त्वादिक ही भाव रह
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