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________________ [५] तीसरे अध्यायमें दिगंबर लोग १२ वे सूत्रसे हेमार्जुनत्यादि करके इक्कइस सूत्र "द्विर्धातकी खण्डे" इससूत्रके बीचमें नये मानते हैं. सूत्रकी शैलीको देखनेवाले और अर्थको सोचने वाले तो इधर स्पष्टही समझ सक्ते हैं कि ये सब सूत्र दिगंबरीने नये ही दाखिल कर दिये हैं दर असल में तो यह तत्वार्थसूत्र संग्रहग्रंथ है, इसलिये इसमें विस्तारसे कथन करनाही अनुचित है. और यदि कुछ भी विस्तार करना होता तो जीवा धनुःपृष्ठ बाहा प्रपातकुंड परिधि गणितपेद इत्यादिकका कथन करते । किन्तु वर्णनग्रंथकी तरह वर्णन करना ऐसे ग्रंथमें कदापि नहीं हो सक्ता। हिमवदादिपर्वतका वर्ण कहाजाय और उसमें न तो उसका आयाम मान कहा और न शिखरका मान और न शिखरों की उच्चतादि दिखावे, और न शिखरकी संख्याभी दिखलाई, १२ वें सूत्रमें हेमा नेत्यादि कहकर आगंके सूत्र में "उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः" ऐसा कह देना क्या उचित है? क्या सब वर्षधर मानमें सरीखे हैं? कदापि नहीं. तो फिर कुछ भी खुलासा किये बिनाही ऐसा सूत्र कैसे किया?१४वें सूत्र में"तेषामुपरि" ऐसा कहा गया,किन्तु उपरके भागमें यह हद कहां पर है? पूर्व पश्चिम मध्यमें है यह तो जतलाना था, १८ वें सूत्रमें "तद्विगुणद्विगुणा हृदाः पुष्कराणि च" कहा तो इस सूत्रसे दोनें दोनें हद और पुष्कर हैं ऐसा क्यों नहीं होगा? यावत् आयामादिकीही द्विगुणता लेनी, ऐसा कहांसे होगा? यावत् अवगाहमें दोगुना क्यों न होगा.१९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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