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________________ (४५) साथही नयकी व्याख्याका सूत्र कर देते। अतः सिद्ध होता है कि ये दोनों सूत्र असलसे ही हैं ।। (३) दसरे अध्यायमें भावन्द्रियके भेदोंमें उपयोगेंद्रियनामक भेदकों तो दोनोंही संप्रदायवाले मानते हैं. और जीवका लक्षण भी उपयोग ही है यह 'उपयोगो लक्षणं' इस सूत्रसे दोनों मंजूर करते हैं, और वह उपयोग तो सबही केवलीमहाराजाओंको भी होता है, अतः इधर उपयोगका स्वरूप दिखानेक लिये स्पर्शादिकविषयकाही उपयोग इधर लेना चाहिये, और यह दिखानेको सूत्रकीभी जरूरत ही है। .. [४] दूसरे अध्यायमें दिगंबर लोग "शेषास्त्रिवेदाः" ऐसा सूत्र मानते हैं, किन्तु श्वेतांवरियोंका कहना ऐसा है कि "गतिकषायलिंग." इत्यादि सूत्र जोकि औदायकके इक्कइस भेदको दिखानेवाला है, उसमें तीन वेद कहे हैं. और इधर नारक और संमूर्छजको नपुंसकवेदही होता हे और देवतामें नपुंसकवेद नहीं होता. जब ऐसे दो सूत्र कह दिये गये तो अपने आप ही निर्णय होगया कि मनुष्य और तिथंच जो गर्भज है वे वेदवाले होनेसे तीनोंही वेदयाले हैं. इस तरहसे अर्थापत्तिसे स्पष्ट बात थी, उसको दिखाने के लिये सूत्रकी कोई जरूरत नहीं है । और ऐसा नहीं मानेंगे तो औदारिकादिक औतपातिक नहीं होता है मसुकको अमुक योनी और अमुक जन्म नहीं है, अमुक सापर्वतनीय आयुष्यवाले हैं, एसा भी सूत्रकारको दिखाना होगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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