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________________ ( 88 ) (१) पहिले अध्याय में श्रुतज्ञानके भेद कथन किये बाद श्वेतांबर लोग २१ वें सूत्रमें “द्विविधोऽवधिः " इस सूत्र - को लेते हैं, किन्तु दिगंबरलोग इसको नहीं मानते हैं, और 'मक्प्रस्वयो" कहके सूत्रको शुरू करते हैं. अब इस स्थान पर सोचना चाहिये कि जब शुरूमें अवधिका भेद ही नहीं दिखाया तो फिर "भवप्रत्यय" ऐसा विशेषभेदका निरूपण कहांसे आसक्ता है ? उद्देशरूप सामान्यभेदको कहने के बादी मतिआदिज्ञानरूप प्रत्येक भेद कहे हैं, और मतिज्ञानमें भी इन्द्रियादिभेद कहकरही अवग्रहादि भेद कहे हैं, एवं अवग्रहादि भेदोंके अनन्तरही बहुबहुविधादि भेद दिखाये हैं. और श्रुतज्ञान में भी दो भेद सामान्य से दिखाने के बादही उनके विशेषभेद उसी सूत्र में भी दिखाये हैं. इससे स्पष्ट मालूम होता है कि आचार्यजीकी शैली तो "द्विविधोऽवधि:" इसी प्रकार सूत्रकी रचना करनेकी है. तिसपर भी दिगंबरी लोग मानते नहीं है यह उनकी मर्जी की बात है, पर सूत्रको लोप करना भव - भीरुका कार्य नहीं है. + (२) इसी तरह श्वेतांबर लोग नयके सामान्य पांच भेद मानकर आच और अन्त्य के नयके भेदों को दिखानेवाला "आद्यशब्दौ द्विविमेदौ" ऐसा ३५ वां सूत्र मानते हैं. तरियोंका मन्तव्य है कि यदि एकही सूत्रसे नयकी व्याख्या करनी होती तो " प्रमाणनयैरधिगमः " इस सूत्र के Jain Education International For Personal & Private Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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