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प्रकृति गिनाकर पापकी प्रकृति अपने आप समझमें आनेवाली होनेसे कहनेकी जरूरत ही नहीं थी. इतना होने पर भी सूत्रकी समझनेवाला आदमी स्पष्ट जान सकता है कि यह सूत्र श्रीमानउमास्वातिवाचकजीका वा किसी भी अकलमंदका बनाया हुआ नहीं है अकलमंद नया बनानेवाला होता तब भी ऐसा सूत्र नहीं बनाता. क्योंकि 'अन्यत् पाप' इतनाही कहना जरूरी था, क्योंकि पेश्तरके सूत्र में पुण्यप्रकृति स्पष्टतः दिखाई है. तो फिर 'अतो' इस पदकी जरूरतही क्या थी ? अपने आप 'अन्यत्' शब्द कहनेसे ही उससे याने पुण्यप्रकृतिसे भिन्न प्रकृतियोंको पाप कहना यह आ जाता. जैसे दिगम्बरोंके हिसाबसे "शेषाखिवेदाः' इस सूत्रमें 'इत:' वा 'अत:' कहनेकी जरूरत नहीं रही और श्वेताम्बरके हिसाबसे 'शुभः पुण्यस्य' सूत्रके बाद कितनेक स्थानके हिसाबसे 'शेषं पापं' इसमें 'इतः' वा "अत:' की जरूरत नहीं है, और दोनोंके मन्तव्यसे 'प्रत्यक्षमन्यत्' ऐसा जो सूत्र है उसमें 'अतः' वा 'इत:' कुछ भी नहीं है, और इसी तरहसे दूसरे भी दर्शनकारोंने शेषकी जगह पर 'अतः' वा 'इतः' नहीं लगाया है. सबब मालूम होता है कि यह सूत्र दिगम्बरोंने कल्पित बनाकर घुसेड दिया है. __- (२२) दिगम्बरोंने अध्याय छ?में सूत्र ऐसा माना है कि शुभः पुण्यस्याशुभ: पापस्य' याने शुभयोग पुण्यका आश्रव है और अशुभयोग पापका आश्रव है श्वेताम्बर लोग इस
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