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जगह पर 'शुभः पुण्यस्य' और 'अशुभः पापस्य' ऐसा करके दोनों सूत्र अलग अलग मानते हैं. अब इस स्थानमें श्वेताम्बरोंका कहना है कि यदि ये सूत्र दोनों अलग नहीं होते तो प्रथम तो इधर समुच्चय करनेवाला शब्द चाहिये था. इतना ही नहीं, लेकिन ऐसा सूत्र पुण्यापुण्यका एकत्र करना होता तबतो 'शुभाशुभौ पुण्यपापयोः' यही कहना लाजिम था. सूत्रकार जहां कहीं समुच्चय कहते हैं वहां पर बहुत्वैश्व १.९ 'औपशमिकक्षायिको भावौ मिश्रश्च' (२-१) 'औदयिकपारिणामिको च ( २-१) 'सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च' (२.५) 'विग्रहवती च.' (२-२८ ) 'मिश्राश्चैकश:'( २.३२ ) 'मव्याघाति चाहारकं' (२-४९) 'तारकाच' (४.१२). सर्वार्थसिद्धौ च' (४.१९, ४-३२) 'परत्वापरत्वे च.' (५.२२), 'अणका स्कन्धाश्च' (५-२५) 'पारिणामिको च' ( ५३७ ) विसंवादनं च० ( ६-२२ ) 'द्भावने च० (६-२५): 'चोत्तरस्वर (६-२६ ) 'स्त्यानगृद्धयश्च' (७.७:) 'बिकल्पाश्चैकश: (७.९) 'तीर्थकरत्वं च' (७-१९ ) '०मन्तरायस्य च' (७-१४) 'क्षयाच्च केवलं': १०-१ ) 'परिणामाच्च' (१०-६) शिखाबच्च' (१०-७) ये सूत्र स्पष्ट तरहसे उदाहरण हैं के समुच्चय दिखाने के लिये चशब्द लगाया जाता है.
. इन सभी सूत्रोंमें मुख्यत्वे सिर्फ उन्हीं सत्रोंमें कहा हुआ समुच्चय है और उस समुच्चयको दिखलाने के लिये सूत्रकारने स्पष्ट
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