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________________ ( ७६ ) समुच्चयवाचक ऐसे 'च' का प्रयोग किया है. और ये चकारवाले सभीसूत्र प्रायः दिगम्बरोंकी मंजूर भी है, जब आचार्य महाराजकी दिगम्बरोंके हिसाब से ही ऊपर दिये हुए सूत्रोंसे शैली सिद्ध होती है तो फिर इधर समुच्चायक ऐसे 'च' शब्दका प्रयोग न करें और दोनों एकत्र रक्खें यह कैसे बने ? इससे निर्णीत होता है कि हमारे माने अनुसार पुण्य और पापके लिए श्रीमान्मास्वातिवाचकजीने सूत्र अलग अलग हीं किये थे और इन दिगम्बरोंनें घोटाला कर दिया है । ( २३ ) नवमें अध्यायमें ध्यानके लक्षण के सूत्र में दिगंबरलोग 'उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमामुहूर्त्तात' ऐसा अखंड मानते हैं. जब श्वेताम्बर लोग 'उत्तम' इत्यादिकको एक 'सूत्र मानके 'आमुहूर्तात्' यह सूत्र अलग लेते हैं, अब इस स्थान में या तो दिगम्बरोंनें दो सूत्रोंका एक सूत्र बना दिया या श्वेताम्बराने एकसूत्रके दो सूत्र कर दिये हैं, यह सोचनेका है. असल में इसमें एक सूत्र हो या दो सूत्र हों इससे भावार्थका फर्क नहीं है. तथापि एकका दो करना या दो सूत्रका एक संत्र कर देना यह भवभय रहितपनका तो जरूर सूचक इधर अपने उस बात से मतलब नहीं है, लेकिन सूत्र दो थे और एक हुआ या एकही था उसके दो कर दिये. यद्यपि इस बासका निर्णय करना मुश्किल है, तथापि अशक्य तो नहीं है. क्योंकि सूत्रकार महाराजने अनेक स्थानों पर अनेक पदार्थों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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