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________________ ( ७७ ) की स्थिति दिखाई है. जैसे तीसरे अध्यायमें नारकोंकी स्थिति दिखाई है, वैसेही मनुष्य और तिर्यचकी भी स्थिति दिखाई है, ऐसे ही ज्ञानावरणीयादिकौकी भी स्थिति आमे दिखाई है, लेकिन किसी भी स्थानमें स्वरूप या भेद दिखानेके साथ स्थिति नहीं दिखाई है, तो इधर सूत्रकार अपनी शैली पलटावे इसका कोई भी विशेष सबब न होकर यही मानना वास्तविक होगा कि श्रीमानउमास्वातिजीमहाराजने स्वरूपदर्शक और स्थितिदर्शक सूत्र अलग ही किये थे, और किसी पंडितमन्य दिगम्बरने अपनी कल्पना चलाकर इकट्ठा करके एकही सूत्र कर दिया है। --- ( २४ ) इसी नवमें अध्यायमें दिगम्बरोंने 'आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्य' 'शुक्ले चाये पूर्वविदः' और 'परे केवलिनः' ऐसे तीन सूत्र माने हैं, और श्वेताम्बरोंने 'आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य' 'उपशान्त - क्षीणकषाययोश्च' 'शुक्ले चाये' 'पूर्वविदः' 'परे केवलिनः' ईस तरहसे पांच सूत्र माने हैं. अब इधर यही सोचनेका है कि क्या श्वेताम्बरोंने सूत्र बढा दिये हैं या दिगम्बरोंने कम कर दि हैं ? असल में तो इसका खुलासा सूत्रकार महाराज की सकते हैं कि अमुकने मेरी कृतिमसे सूत्र कम कर अमुकने मेरी कृतिमें सूत्र बढाये हैं. लेकिन अब अपनी अक्कलसे भी इसका कुछ निश्चय करा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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