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यह बात दोनोंको मंजूर है तो उस अपेक्षासे सम्यक्त्वपुद्गलका वेदन करना पुण्य क्यों नहीं होगा ? सम्यक्त्व पानेसे. अपूर्व आनन्द का अनुभव होता है ऐसा तो दोनोंको ही मंजूर है. अब आगे हास्य रति पुरुषवेद कहे हैं, वे भी आल्हादसे जंब अनुः भूत होते हैं तो फिर वह पुण्यतरीके क्यों न माना जाय ? इतनाही नहीं, लेकिन दोनोंको यह भी मंजूर है कि हास्य रतिः
और पुरुषवेदका कर्म अच्छा कार्य करनेसे ही बंधता है. बुरे. कार्यकी प्रवृत्तियोंमें तो शोक, अरति और स्त्रीवेदका ही बध होता है, तो फिर शुभयोगसे होनेवाला आश्रव 'शुभः पुण्यस्य ऐसा जो सूत्र पूर्वमें कहा है उस मुजब क्यों शुभ नहीं गिनना ?
और आश्रबके वक्त पुण्य गिने तो फिर उदयके वक्त उन प्रकृतियों को पुण्य नहीं कहना और पाप कहना यह कैसे होगा। विशेष आश्चर्यकी बात तो यह है कि दिगम्बरलोग सीने महापापका उदय मानकर स्त्रीको केवलज्ञान और मोक्ष नहीं होता है ऐमा मानते हैं. तो इधर तो उनके हिसाबसे स्त्रीवेदका. उदय भी जैसा पापरूप है वैसाही पुरुषवेदका उदय भी पाप
सहीं है. तो फिर स्त्रीको पुरुषकी तरह केवलज्ञान और मोक्ष क्यों नहीं मानते हैं ? यह तो एक सामान्यरूपसे विचारणा ही है. असलमें तो आगे छठे अध्यायमें दोनोंने सुम से होने वह पुण्यका और अशुभंयोग होने सो पाप सापर होवे ऐसा मंजूर कर लिया है, तो फिर पर
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