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' सद्वैद्य सम्यक्त्व हास्य र ति पुरुषवेद शुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यं ऐसा सूत्र माना है, तब दिगम्बरोंने "सद्वेद्य शुभायुर्नामगोत्राणि पुण्" ऐसा सूत्र माना है. बादमें दिगम्बरोंने 'अतोऽन्यत् पाप' ऐसा आखिरका सूत्र माना है याने श्वेताम्बरोंने अकेले पुण्यकी प्रकृतियों को दिखानेवाला सूत्र स्पष्ट माना है और पापप्रकृतिको अर्थापत्ति से गम्य मानी है, जब दिगम्बरोंने दोनों तरहकी प्रकृतिको दिखानेवाले सूत्र अलग अलग माने हैं. असल में श्वेताम्बरोंको यह सोचना चाहिये कि सम्यक्त्व हास्य रति और पुरुषवेद ये सब प्रकृतियां मोहके भेद हैं, तो मोहका भेदरूप होनेवाली प्रकृतियां पुण्यरूप कैसे हो सकती हैं ? लेकिन श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों को यह तो मंजूर ही है कि असल में आत्माको बन्ध तो मिथ्यात्वमोहनीयका ही होता है. बाद में जब आत्मा शुद्धपरिणाममें आकर उन मिथ्यास्वके पुगलोंको शुद्ध कर डाले तभी उनपुद्गलोंको सम्यक्त्वमोहनी के पुद्गल कह सकते हैं, और उन्हीं सम्यक्त्वके पुद्गलों को वेदता हुआ जीव सम्यक्त्ववान् है और रहता है सम्यग्ज्ञानादिकको भी पाता है, तो फिर ऐसे पुद्गलोंका पुण्यरूप नहीं मानना वह कैसे होगा ! असल में तो जैनशास्त्र के हिसाब से सभी कर्मपुद्गल पापरूप ही है. लेकिन जिसके उदयमें आत्मा आनन्द पावे वैसे पुगलको पुण्य मानते हैं और जिन पुगलको वेदते आत्मा तकलीफ भोगता है उसको पाप मानते हैं. यदि
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