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________________ ( २ ) बहुत ही संक्षिप्तरूप होकर संग्राहक है। इसीलिये कलिकालसर्वज्ञ श्रीमान्, हेमचन्द्राचार्यजीने अपने श्रीसिद्धहैमशब्दानुशासनमें 'उत्कृष्टेऽनूपेन २.२-३९' इस कारकसूत्रकी व्याख्यामें बतौर उदाहरणके दिखाया है कि 'उपोमास्वाति संग्रही तार' याने शास्त्रोंके तत्त्वोंको संग्रह करके कहनेवाले श्रीमान् उमास्वातिजी महाराजही संग्रहकारआचार्योंमें शिरोमणि हैं। यही बात श्रीमान् मेविजयी उपाध्यायजी भी अपनी हेमकौमुदीमें फर्माते हैं । श्रीमान् विनयविजयजी उपाध्याय अपना प्रक्रियाव्याकरणमें और श्रीमान् मलयगिरीजी महाराज भी अपने शब्दानुशासनमें इस विषय पर इन्हीं महाराजका उदाहरण देते हैं। मतलब यह है कि शब्दानुशासनके बनानेवाले और उद्धृत करनेवालोंने भी इन्हीं उमास्वातिजीमहाराज की मुक्तकण्ठ. से प्रशंसा की और इन्होंको ही संग्रहकारों में अगुए बतलाये हैं। . श्वेतांबराचार्योंने जिस प्रकार उमास्वातिजीमहाराजकी संग्रहकारतरीके प्रशंसा की है वैसी दिगंबरोंके शब्दानुशासनमें नहीं पाई जाती. इसके मुख्य कारण दो प्रतीत होते हैं। एक. तो यह है कि श्वेतांबरोंके आगम-शास्त्र विस्तृत विद्यमान हैं. जिनकी अपेक्षासे इस तत्त्वार्थसूत्रको बडा ही संग्राहक मान सक्के हैं, किन्तु दिगंबरमजहबकी मान्यताके मुताबिक श्रीजिनेश्वरभगवान एवं गणधरमहाराजका कोई भी बचन या शास्त्र वर्तमानमें है ही नहीं । दिगंबरजैनियोंका जो कुछ भी साहित्य है वह उनके आचार्योंका ही बनाया हुआ है,जो कि उमास्वातिजी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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