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________________ ( ३ ) महाराज के पीछे हुए हैं । तो फिर ये लोग किन शास्त्रोंके आधारसे संग्रह याने सूक्ष्मतासे सबविषयोंका उद्धार होना मान सकेँ ? | इसी कारण से दिगंबरियोंने इसे संग्रहित नहीं माना। जब ग्रंथको ही संग्रहित नहीं माना तो फिर वे उसके कर्ताको संग्रहकार कैसे मानें ? | और जब कर्ता को संग्रहकार ही नहीं माने तो उन्हें संग्रहकारों में अग्रगण्य कैसे कहें ?, अर्थात् श्वेतांबरलोग जिस प्रकार इस सूत्रको संग्रहित और सूत्रकर्ताको उत्कृष्टसंग्रहकार मंजूर कर उनकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा करते हैं उस तरह से दिगंबरोंने नहीं की, और कर सके भी नहीं । दूसरा कारण यह भी मालूम होता है कि दिगंवरियों में जिस वक्त शब्दानुशासन बना होगा उस वक्त इस तत्त्वार्थ सूत्र को उन लोगोंने पूरीतौर से नहीं अपनाया होगा । जो कुछ भी हो,. किन्तु हर्षकी बात है कि वर्तमानसमयमें इस सूत्र को श्वेतांबर और दिगंबर दोनों सम्प्रदायने अच्छीतरहसे अपनाया है । * * इस सूत्र को बनानेवाले आचार्यमहाराजको ग्रंथकर्ता aaiर लोग श्रीमान् 'उमास्वातिजीवाचक का और दिगंबर लोग 'उमास्वामी' कहते हैं । नाम- श्वेतांबर लोगों के हिसाब से इन आचार्यमहाराज की माताका नाम 'उमा' और पिताका नाम * 'स्वाती' था. इसीलिये आपका नाम 'उमास्वाति निर्णय जगतमें प्रसिद्ध हुआ । श्वेतांबर संप्रदायमें इन्हीं आचार्यमहाराज के For Personal & Private Use Only * Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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