________________
( १३१ )
,
हैं कि यह सूत्र साफ झूठा है. क्योंकि असल तो इधर श्वेताम्बरोंके हिसाब से तो आगेसे स्थितिका और भवनबासिका अधिकार चला आता है. लेकिन दिगम्बरोंने ये ' स्थितिः ' और 'भवनेषु' वाले सूत्र नहीं माने हैं तो इधर शेषशब्दसे किसको लेना उसका ही पता नहीं है. दक्षिण और उत्तरके इन्द्रोंका वैमानिक में तो आयुष्यभेद सूत्रसे दिखाया और इधर नहीं दिखाया. इधर पांचका उद्देश्य है और विधेयमें सिर्फ तीन ही हैं. और मान लिया जाय कि दोके शिवायको अर्धअर्धहीन कहना तो इसके लिये अव्वल तो अर्धशब्दको दो बार कहना चाहिये, लेकिन यह तो कहा ही नहीं. इतना ही नहीं, लेकिन इधर ' मिता: ' शब्दस्थितिकी साथ लगाना यह भी अयोग्य है. और 'मिताः ' का विशेष्य ही कोई नहीं कहा है. अक्कलमन्द प्रक्षेप भी करता तो 'अर्धविहीन पन्योपमा ' ऐसा सीधा सूत्र बनाता, असल में वो 'मिताः' शब्द ही फिजूल है. क्योंकि इधर किसी भी स्थिति के सूत्र में 'मिता : ' शब्द न तो लगाया है और न लगानेकी आवश्यकता है. दक्षिण और उत्तरके नागकुमारादिककी स्थिति में भी इधर फर्क नहीं दिखाया है. इन सबवोंसे साफ हो जाता है कि. दिगम्बरोंने इधर भी सूत्रोंका पूरा घोटाला कर दिया है ।
(३०) इसी चौथे अध्याय के सूत्र २९ में दिगम्बर लोक 'सौधर्मेशानयोः सागरोपमे अधिके' ऐसा पाठ मानते हैं. यह
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org