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नयोंका समावेश करके दूसरोंको व्याख्यान करनेका मोका होवेही नहीं, क्योंकि ऐसा करनेमें विरुद्धधर्मका समावेश करना ही पड़े, इसी हिसाबसे इतरदर्शन नपसमूहको न तो मानते हैं और न भिनभिन्ननयसे पदार्थोकी व्याख्या करते हैं, परंतु जैनशासनमें तो सब या अर्थ कोई भी नयविचारणा सिवाय का नहीं है, इससे भगवान उमास्वातिजीने नयका विचार चलाया है। इसी अपेक्षासे ही आचार्य महाराज श्रीसिद्धसेनदिवाकर फरमाते हैं कि भगवान आपमें सब दृष्टि है, लेकिन सबष्ठिमें आप नहीं है. देखिये ! " उदघाविक सर्वसिंघवः, समुदीर्णास्त्वयि नाथ ! दृष्टयः । न च तासु भवान् प्रदृश्यते, प्रवि'भक्तासु सरित्स्विवोदधिः ॥१॥" याने नयवादके हिसाबसे जैनमजहबमें सब मजहब हैं, लेकिन अन्यमजहबमें जैनमजहब नहीं है, नयवादसे जब ऐसा है तव अतीन्द्रियपदार्थके हिसाबसे ऐसा है कि सभी मजहब द्वादशांगसेही है, और इसीसे द्वादशांग ही रत्नाकर तुल्य है, केवल द्वादशांगका ही पदार्थ अन्यमजहबवालोंने
अन्यथारूपसे लिया है।' (१४) इतरदर्शनकारोंने द्रव्य और गुणादि पदार्थ मित्र मित्र माने
हैं, इससे ये लोग गुणादिक पदार्थोंको व्यक्त भावरूपसे नहीं निरूपण कर सकते हैं, तब जैनदर्शन द्रव्य और
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