________________
भावका कथंचित् भिन्नाभिनपणाको मान्य करने के कारण भावके नाससे पर्याय दिखा सक्ते हैं, और इसीसे तत्रार्थकारमहाराज : पर्यायपदार्थको भी साथ लेकर भावके नामसे ही गुणोंका भी निरूपण करते हैं, लेकिन पाठकोंको ख्याल रखना चाहिये कि यह शास्त्र मोक्षप्राप्तिके उद्देशसे ही बनाया गया है इससे ज्यादह जीवके उद्देशसे ही भावका निरूपण किया है। (१५) अन्यदर्शनकारोंने जीवको ज्ञानका अधिकरण माना है, माने आत्माको ज्ञानका भाजन माना है, परन्तु जैनदर्शनके मन्तव्यानुसार न तो ज्ञान आत्मासे भिन्न है और न ज्ञान आत्मामें आधेयभावसे रहा हुवा है, किंतु आत्मा झनस्वरूप ही है, इसीसे ही सूत्रकारने 'उपयोगो लक्षणं' ऐसा सूत्र कहा है, यद्यपि अन्यमजहबवालोको परमेश्वरमें ज्ञान मानना है और इंद्रिय या मन जो ज्ञानके साधन माने हैं वे परमेश्वरको नहीं मानना है, इससे ज्ञान आरंमाका स्वभाव है ऐसा जबरन मानना ही होगा, लेकिन नैयायिक और वैशेषिक की तरह सांख्य भी मुक्तोंमें ज्ञान मानते ही नहीं. फिर वे लोग आत्माको ज्ञानस्वरूप कैसे मानेंगे?, वाचकवृन्द ! याद रखिये कि इसीसे ही उन मतोंमें आत्माकी सर्वज्ञताका सद्भाव मानना मुश्किल होजाता है, ज्ञानकी तन्मयताही मंजुर
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International
·