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________________ ( १०९ ) ? में 'अविग्रहा जीवस्य' ऐसा ही सिर्फ कहा था. याने अविग्रहा का वक्त नहीं दिखाया था, वह वक्त इधर दिखाया. लोकन श्वेताम्बराके हिसाब से यह सूत्र अविग्रहागतिका वक्त दिखाने वाला होने के साथ विग्रहगतिमें भी आद्य समयकी गतिको अविग्रहापन दिखानेके लिये है, और इसीसे ही गतिमें जितने समय लगे उनमेंसे एकसमयको कम करके बाकी के समय विग्रह तरीके गिन सक्ते हैं. नियम भी यहीं है कि चाहे जितने ही समयकी वक्रगति हो, लेकिन आद्यसमय में तो ऋजुगति ही होगी. इस स्थान में अकलमन्द आदमी समझ सकते हैं कि यदि शास्त्रकारको अविग्रहांका वक्त ही कहना था तब तो 'अविग्रहा जीवस्यैकसमया,' ऐसा 'एकसमयाऽविग्रहा जीवस्य' ऐसा या 'जीवस्यैकसमयाऽविग्रहा, ऐसा या 'अविग्रहा जीवस्यै सैकसमया' ऐसा पाठ करते. लेकिन 'विग्रहवती च संसारिणः प्राकू चतुर्भ्यः,' ऐसा विग्रहगतिका अधिकार शुरू करके बीचमें अविग्रहका अधिकार नहीं लेते. इतना ही नहीं, किन्तु 'एक हौ त्रीन्वाडनाहारकः' ऐसा विग्रहके अनाहारकपनका टाइम दिखानेवाले सूत्र के बीच में कभी भी नहीं डालते इससे साफ है कि किसी दिगम्बरने अपनी अकल लगाकर गतिके साथ लगाने के लिये इस सूत्र में 'एकसमयाऽविग्रहा' ऐसा कर दिया है । " i (१०) सूत्र ३० में दिगम्बरोंके सतसे 'एकं द्वौ त्रीन्वाऽ नाहारकः' ऐसा पाठ है. तब श्वेताम्बरों के मतसे 'एक द्वौ वा For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International 1 3.
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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