SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१४२) आत्मशब्द न रक्खें तो किसी मुनिमहाराजको किसी अधम. मनुष्यने कषायोदयसे ताडन तर्जन किया. तो क्या कषायोदयसे मुनिराजके शरीरमें जो पर्यायान्तर हुआ वह मुनिराजको चारित्रमोहको बन्धानेवाला होगा?, मानना ही होगा कि रैराग्यवान् मुनिराजको तो उससे निर्जरा होती है, तो पीछे इधर परिणामकी साथ आत्मशब्द लंगाना जरूरी ही है दोनों फीरके वालेने इसी ग्रंथके दुसरे अध्यायका औपशमिकवाले सूत्र में औदयिक पारिणामिकसे पेश्तर ही जीवस्वतत्व शब्दका कहना माना है, इससे यह भी मानतेही है कि कर्मोदयजन्य परिणाम भी जीव और अजीव दोनों में होता है, इससे इधर आत्मशब्द । होना ही चाहिए. .. (३९) इसी तरहसे सूत्र १४ में दिगम्बर 'बड्वारंभपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः' ऐमा ही सूत्र मानते हैं, तब श्वेतांबर 'बहवारंभपरिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः' ऐसा पाठ मानते हैं. श्वेतांबरोंका मतलब यह है कि जैसे बहुतआरंभादिसे नरकका अविरत ऐसे चक्रवर्तिआदि जीव आयुष्य बांधते हैं, उसी तरहसे तन्दुलमत्स्य कुरुटोत्कुरुट आदिके समान जीवो भी कषायोदयकी तीव्रतासे नरकंके आयुष्यका आश्रव करते हैं, इससे चकारकी जरूरत है, और इसीसे ही. देव, गुरु, धर्मकी आशातना करनेवालेको और मासादिकका तप करके आहार करनेवालेको भी नरकोदिका आयुष्य बांधने का संभव माना जायगा. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy