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(४०) अध्यायसातवेंमें दिगम्बर लोग ' हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनं ' ऐसा पाठ मानते हैं, तब श्वेतांबर लोग 'हिंसादिष्विहामुत्र चापायावद्यदर्शनं । ऐसा पाठ मानते हैं. इधर तो साफ मालूम होजाता है. कि : इह' और 'अमुत्र'का समुच्चय करनेके लिये चशब्दकी जरूरत है, और सूत्रकारने चकार कहा भी होगा. लेकिन सिर्फ श्वेतांबरोंका सूत्र लेकर किसी भी तरहसे यद्वा तद्वा करके उलट पुलट करने का कार्यही दिगंबरोंने किया मालूम होता है...
(४१) जिसतरहसे नबमें सूत्र में जरूरी ऐसा चकार था, लेकिन दिगम्बरोंने उड़ा दिया, इसी तरहसे ग्यारहवें सूत्रः में ' मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च संवेगवैराग्यार्थ. ' ऐसा सूत्र बनाकर अनावश्यक चकारको शरीक कर दीया है.' इधर चकारका कोईभी मूल प्रयोजन नहीं है. और न तो इधर चकार लगानेसे कोई फायदा है. लेकिन दिगम्बरोंने इधर चकार लगा दिया है.
(४२) अध्याय सातवेंमें सूत्र ३२ में दिगम्बरोंने 'कंदर्प. ०परिभोगानर्थक्यानि ' ऐसा सूत्र माना है. और श्वेताम्बरोंने 'कंदर्प० गाधिकत्वानि' ऐसा सूत्र माना है. श्वेताम्बरोंका कहना है कि अनर्थदंडके अधिकारमें अनर्थक किसको गिनना? यही समझानेका होता है. और उसी ही शब्दको भीतर केस डालें ?, इससे यह साफ है कि अपने अर्थसे ज्यादा हो वह
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