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________________ ( १४४ ) अतिचाररूप होवे, अन्यथा अधिक होने पर मी अन्यके भी प्रयोजन में आवे उसको अनर्थक कैसे कह सकें १ यानें अनर्थकपन तो तभी होवे कि अपने और दूसरेके भी प्रयोजनमें न आत्रे और अधिकपणा तो अपने कार्यसे ज्यादा हुआ उसको कह सकते हैं, और वही अनर्थदंडका अतिचार बनता है. ( ४३ ) आठवें अध्यायके ६ ट्ठे सूत्रमें दिगम्बर 'मतिश्रुतावधिमनः पर्यय केवलाना' ऐसा सूत्र मानते हैं. तब श्वेताम्बर 'मत्यादीनां' इतना ही सूत्र मानते हैं, श्वेतांबर लोक इसके संबध में कहतेहैं कि मति श्रुत अवधि मनःपर्यव और केवल ये पांचों ज्ञान प्रथम अध्याय में दिखा गये हैं. इससे मत्यादि इतनाही कहना काफी ऐसा नहीं कहना कि यदि इधर मति आदिको स्पष्ट नहीं कहते हैं तो फिर 'चक्षुस्चक्षुरधिकेवलानां' ऐसा दर्शनावरण के भेदों में: स्पष्ट निर्देश क्यों मानते हैं?. ऐसा नहीं कहने का कारण यह है कि.. इस ग्रंथ में इसके सिवाय किसी भी स्थानमें चार दर्शन गिनाये ही नहीं है. क्षायिक और क्षायोपशमिकभेदमें कमसे एक और तीन मिलके चार दर्शन गिनाये हैं. लेकिन किसी भी स्थान में चारदर्शनके नाम तो गिनायेही नहीं है. इस सबसे इन चार नामोंको जरूर कहना चाहिये. और मत्यादिज्ञानके नाम तो आगे आगये हैं, सबब नहीं कहना ही लाजिम हैं. दिगंबरों की उलटापालट करने की विचित्रता तो यह है कि यहां स्पष्टताकी जरूरत है और सूत्रकारने स्पष्टता की है वह उड़ा देते हैं और F Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004064
Book TitleTattvartha Kartutatnmat Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagranandsuri
PublisherRushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
Publication Year1936
Total Pages180
LanguageSanskrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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