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स्तिकाय है. इससे सिद्धमहाराजकी गति लोकान्त तक ही ऊर्ध्वम होवे. लेकिन इधर तो दिगम्बरोंने सूत्र उलटा धर दिया है याने हेतुमें कहा कि धर्मास्तिकायका अभाव है. तो क्या धर्मास्तिकायके अभावसे सिद्धोंकी ऊर्ध्वमें लोकान्त तक 'गति होती है ऐसा मानते हैं ? कभी ऐसा मानना नहीं होगा. आगे ही पांचवें अध्यायमें साफ २ कहा है कि 'गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः' याने जीव और पुद्गलोंकी गतिमें धर्मास्तिकाय ही सहारा देता है और उन दोनोंकी स्थितिमें अधर्मास्तिकाय सहारा देता है. जब यह बात निश्चित है तो फिर धर्मास्तिकायके अभावसे सिद्धोंकी गति है ऐसा कैसे कह सकेंगे? कभी मान लिया जाय कि संसारीजीवोंकी गतिमें धर्मास्तिकाय कारण है. परन्तु सिद्धमहाराजकी गतिके लिये धर्मास्तिकायको हेतु माननेकी जरूरत नहीं है. लेकिन ऐसा कोई भी फिरकेवाला मानता नहीं है. यदि ऐसा मान लिया जाय और इसीसे ही सिद्धमहाराजकी गतिमें धर्मास्तिकायके अभावको हेतु मान लिया जाय तो पेश्तर तो. खुद सरकारने कही हुई लोकान्ततककी ऊर्ध्व गति ही नहीं रहेगी. सबब वह है कि लोकान्त तकके सर्व स्थानमें धर्मास्तिकाय व्याप्त ही है. सूत्रकारमहाराजनें भी 'लोकाकाशेवगाह' 'धर्माधर्मयोः कृत्स्ने' .यह कहकर समग्रलोकमें धर्मास्तिकायका होना मंजूर किया है. तो फिर लोकान्त तक भी मुक्तोंकी गति कैसे होगी?
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