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निश्चय नहीं होगा. सबब के प्रथम दूसरे देवलेोककी स्थिति एक सरखी बताई है. दुसरे देवलोक की कोई अलग उत्कृष्ट स्थिति दिखाई नहीं है के जिसको इधर तीसरे देवलाक में जघन्यस्थिति के रूप में माने. यदि मान लिया जाय कि इधर उत्कृष्टस्थिति के सूत्र में 'सौधर्मेशानयोः सागरोपमे अधिके' ऐसा कहा है, लेकिन जघन्यस्थितिके सूत्र में 'सौधर्मेशानयो:' ऐसा पद देकर जघन्यस्थिति नहीं कही है. इससे वहां पर जघन्यस्थिति ' अपरा पल्योपममधिकं ' इस सूत्र से सिर्फ सौधर्मदेवलोककी जघन्यस्थिति मानेंगे. अव्वल तो इधर सौधर्म ईशान दो देवलोक लेना इसका आपको निश्चय होना ही कठिन हैं. सबब कि आपने 'सौधर्मादिषु यथाक्रमं ' यह अधिकार सूत्र तो नहीं माना है. दूसरा इधर एक या दो देवलोक लेना उसके लिये कोई पद नहीं हैं इतना होने पर भी यह विरोध हो जायगा कि ईशानदेवलोक में आपको जघन्यस्थिति कौन माननी यह मुश्किल हो जायगा सबब कि सौधर्मदेवलोककी उत्कृष्ट स्थिति दो या साधिक दो सागरोपम है, और वहीं इशान में जघन्यस्थिति माननी होगी. इसका मतलब यह हो जायगा कि ईशान में जघन्यस्थिति दो सागरोपम या साधिक दो सागरोपम माननी होगी. इससे यह बडा हर्ज होगा कि यदि इधर ही दूसरे देवलोकसे पेश्तरकी उत्कृष्टस्थितिका जघन्यस्थितिपणा दिखाना होता तो आगे नरकके
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