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९-४९का भाष्य-बकुशो द्विविधः-उपकरण रकुशः शरीरबकुशश्च,
तत्रोपकरणाभिष्वक्तचित्तो विविधविचित्रमहाधनोपकरणपरिग्रहयुक्तो बहुविशेषोपकरणकाक्षायुक्तो नित्यं तत्प्रतीकारसेवी भिक्षुरुपकरण
बकुशो भवति । उपर्युक्त वाक्योंको देखकर दिगम्बरोंने भाष्य खुद सूत्रकारने किया होने परभी मंजूर किया नहीं है.
यद्यपि दिगम्बरोंने इस भाष्यको मान्य नहीं भाष्यका
किया है, लेकिन दिगम्बरों के आचार्योंने इसी अनुकरण
भाष्यको देखकर उसके ऊपरसे ही बादमें सर्वाथीसद्धिआदि टीकाएँ बनाई है. svoo.00000००००४ श्रीमान् गणधरमहाराजने और आचार्य
कृतिकी महाराजाओंने अनन्तगम और नयके आवश्यकता विचारसे युक्त अंगोंकी रचना की थी, और वह कृति श्रीमानकी वक्त अच्छी तरह विद्यमानभी थी, तो फिर सूत्रकारमहाराजको तत्वार्थ बनानेकी क्या जरूरत थी? श्रीमानने इस शास्त्रमें कही हुई बातों सूत्रों में स्पष्ट उपलब्ध थी
और अभी भी उपलब्ध है. देखिये ! सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्गके लिए 'नादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा ण होंति चरणगुणा ।
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